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Updated: 26 मई, 2022 07:34 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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आज हम कश्‍मीर और केरल में पनप रही विभाजनकारी शक्तियों के साथ जैसे रह रहे हैं, वैसे तो अवि‍भाजित भारत में भी रह ही सकते थे. कम से कम बलूच आदिवासियों को राहत ही होती. नीचे के दो ट्वीट पर दो सेकेंड ठहरकर आगे पढ़ें.

भारत के इतिहासकार खिलाफत आंदोलन को हिंदू-मुस्लिम एकता और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का मजबूत आधार बताते हैं. भारतीय इतिहास में खिलाफत की विश्लेषण का आधार यही है. बहुत चालाकी से इसे स्वतंत्रता संग्राम का एक जरूरी हिस्सा साबित किया जा चुका है. वह भी आज से 100 साल पहले. सोचिए कि 100 साल पहले किससे सवाल उठाने की उम्मीद करते- जब अकबर के नवरत्नों में शामिल सिहों, तानसेनों, शुक्लाओं, तिवारियों की भरमार थी जिनमें ज्यादातर दीन-ए-इलाही होकर दुनिया से रुखसत हुए. जो बचे रह गए उन "टोडरमलों" को लगा कि वे राजा राय बहादुर हैं. आज का भारत उनके "बादशाह सलामत" और "दीन-ए-इलाही" का बोझ ढोते-ढोते इतना थक चुका है कि उसकी हालत- अब मरा या तब मरा वाली है. मैं उम्मीद करता हूं कि यह लेख दो हिस्सों में हैं और पहले से दूसरे हिस्से तक धैर्य के साथ आख़िरी लाइन तक आप मेरी बात को पढ़ने-सुनने और देखने की कोशिश करेंगे. 100 साल के बदले 20 मिनट खर्च करना आपका ऐतिहासिक दायित्व है आज के वक्त में.

विश्लेषण के कई दृष्टिकोण होते हैं. होने ही चाहिए. हमारी ज्ञान परंपरा में यही है. लोकतंत्र का मकसद भी यही है. मगर बात जब गांधी, नेहरू, खेमन महतो, अनुज शुक्ला या हमारे गांव के किसी रज्जाब मियां की है ही नहीं फिर किसी धार्मिक स्थापना को भारत की स्थापना कैसे मनवा देंगे आप? क्या यह हमारा दुर्भाग्य नहीं है कि खिलाफत को लेकर भारतीय इतिहास में सभी तथ्य और विश्लेषण असल में धुर भारत विरोधी हैं और भारत ही नहीं उस जैसे तमाम एशियाई देशों को समाप्त करने की बर्बर और क्रूर धार्मिक अंतर्राष्ट्रीय योजनाओं का हिस्सा हैं.

khilafatखिलाफत का आंदोलन गांधी जी के नाम की वजह से देशव्यापी हो गया था.

आपको लग सकता है कि जब रूस यूक्रेन युद्ध हो रहा है तो साल 2022 में साल 2019 के एक धार्मिक आंदोलन की कहानी यहां क्यों पढ़ाई जा रही है?

मौजूदा हालातों का विश्लेषण करने पर खिलाफत को किस तरह देख पाते हैं आप

इसकी वजह है. मैंने अभी कुछ हफ्ते पहले आधुनिक भारतीय इतिहास को खिलाफत के चश्मे से देखने की कोशिश की. मेरा पेशा, भारत की परंपरा और इतिहास मुझे इसकी अनुमति देता है. मैंने आज अभी के दिन तक हर सेकेंड, हर दिन हर हफ्ते क्या पाया? मैं बताता हूं. मैंने पाया कि अगर खिलाफत हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र और स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा है फिर तो भारत को 1947 में बंटवारे की जरूरत नहीं थी? खिलाफत में जाने, भारत को बांटने और यहां किसी को रोकने का फैसला करने वालों पर बहस होनी चाहिए.

हम तो जैसे अभी रह रहे हैं वैसे ही बंटवारे से पहले रहते थे. बल्कि ज्यादा प्यार और मोहब्बत से रहते थे. हम जैसे कई राज्यों के रूप में आज रह रहे हैं उसमें भला एक पाकिस्तान भी होता तो क्या ही फर्क पड़ जाता? कश्मीर, केरल के साथ तो हमीं रह रहे हैं ना कि कोई और रह रहा है. क्या फर्क पड़ा वहां.

हां, पाकिस्तान ना होता तो शायद हम भौगोलिक रूप से और ज्यादा शक्तिमान होते. कम से कम बलूच आदिवासियों के साथ भारतीय हिंदू 52 शक्तिपीठों में से एक हिंगलाज देवी (बलूच नानी मां का मंदिर कहते हैं) के दर्शन तो नवराते में कर ही लेता एक बार. और तिरुपति की तरह ही भारत को बेशुमार राजस्व देने वाला एक मंदिर सरकार की तिजोरी भर रहा होता, पुजारियों या मौलानाओं की नहीं. भारत को ईरान की सीमा तक चंद्रगुप्त और महान अशोक के निशान खोजने की जरूरत महसूस होती, अगर पाकिस्तान भारत में होता. वहां की स्थानीय जनजातीय स्मृति से अभी भी अशोक और चंद्रगुप्त नहीं मिटे हैं. भारत कहता है- प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत ही क्या है. गूगल करिए शर्तिया मिलेगा.   

पंजाब के सिख जब मन करते करतार साहिब पर माथा टिकाने रॉयल एनफील्ड से जा सकते थे. अपनी जमीन पर कहीं कोरिडोर बनाया जाता है क्या? आधुनिक भारतीय इतिहास के सबसे महान शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा तो पाकिस्तान में नहीं तोड़ी जाती. हमारी आत्मा में बसा सिंध हमारे साथ होता- वह जैसा भी था हिंदू या मुस्लिम. वह हमारा था और उसके होने पर हमने आपत्ति कहां की थी. हमारी छाती पर आने वाले हर पहले तीर तलवार को तो सिंध ने झेला है. आपात्ति करके हम भारत को मुंह तो नहीं दिखा सकते कभी?

खिलाफत नहीं होता तो भारत को तमाम दुख भोगने नहीं पड़ते

खालिस्तान के आंदोलन की जो पटकथा लिखी गई- पाकिस्तान नहीं बनता तो वह भी नहीं होता हमारे इतिहास में.  तब पाकिस्तान को कश्मीर का हिस्सा चीन को देने की जरूरत क्यों होती. तब शायद हम पैन्गोंग लेक, गलवानी घाटी से अलग किसी और मोर्चे पर चीन से जूझ रहे होते आज. और यह बात भी मैं दावे से कह सकता हूं- पाकिस्तान नहीं होता तो खालसा कमांडर इन चीफ 'हरि सिंह नलवा' का देश बामियान में बुद्ध को किसी भी सूरत में ढहने नहीं देता. बामियान को बारूद से उड़ाना आज भी हमें परेशान करता है. बहुत परेशान करता है. जिस नलवा के नाम भर से काबुल के बच्चे सो जाते हैं उसकी सीमा पर भारत की मौजूदगी भर बुद्ध का सबसे बड़ा ढाल होता.

इतिहास में हमें भला क्या जरूरत पड़ती कि कश्मीर पर कबाइली हमले के बाद पीओके के शारदा पीठ से किताबों-मूर्तियों को खच्चरों पर लादकर भागना पड़ता. पांच हजार साल में इस तरह खच्चरों पर किताबें लादकर भागने का इतिहास नहीं दिखता है- भारत का. हम बैठकर पढ़ने वाले लोग हैं और वह भी बड़े-बड़े पुस्तकालयों में. हम कैसे भूल गए कि नालंदा से काफी पहले पेट्रा (जार्डन) और पर्सिया में दो बड़े पुस्तकालय जलाए जा चुके हैं.

फिर मेरे सामने यह भी सवाल आता है कि तीन तलाक पर एकदम क्रांतिकारी नजर आ रहे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अचानक से ही कदम पीछे क्यों खींचना पड़ा? जबकि उनके पास ऐतिहासिक बहुतमत था उस वक्त. असंख्य सवाल हैं, मैंने तो देश से बाहर के ज्यादा सवाल गिनाए अंदर के नहीं जिनकी वजह खिलाफत के 100 साल ही हैं. शायद एक चीज यह भी होती कि आज टीवी पर बहस बुरके या हिजाब को लेकर नहीं हो रही होती.

क्योंकि खिलाफत के बावजूद 100 साल क्या बल्कि अभी बीस या तीस साल पहले तक दिल्ली-हैदराबाद जैसे शहरों से बाहर के भारत में कम से कम पहनावा और स्थानीय सामाजिक संस्कारों में कोई धार्मिक बंटवारा नहीं था और यह बहस का विषय भी नहीं था. शायद यह बहस की जाती कि किसी अनुज शुक्ला और उसका परिवार जो साड़ी में या तो धोती-नेकर पहनकर घूमता था उसकी बेटियां "रिप्ड जिंस" और "शॉर्ट स्कर्ट" तक कैसे पहुंची. और यह कैसा अनुज है जो बेटियों को सादी नहीं पहनाना चाहता और उसे धर्म का विषय भी नहीं बनाता.

इसके आगे लेख का दूसरा हिस्सा यहां क्लिक कर पढ़ें:-

हिंदू-मुस्लिम एकता की फरेबी कहानियों में से एक है खिलाफत आंदोलन का किस्सा

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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