अगर वो ‘शेर’ ना होता तो कश्मीर भारत का ना होता
वह 22 अक्टूबर का ठंडा दिन था, जब पश्तून कबाइलिए कश्मीर के बारामूला ज़िले में लूटपाट कर रहे थे. मक़बूल शेरवानी बिना डरे हमलावरों से मिले और उन्हें आगे नहीं बढ़ने की हिदायत दी. उन्होंने एक झूठ बोला था, जिसने कश्मीर को बचा लिया.
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दुनिया के किसी भी देश की युवा पीढ़ी उसके आने वाले भविष्य की बुनियाद होती है. उसके सामाजिक ताने-बाने की मज़बूत कड़ी होती है, उसकी आशा-आकांक्षाओं की इबारत होती है, उसकी आत्मा होती है. वह उस देश के मुश्किल दौर में सच्चे पथ-प्रदर्शक होते हैं, जो कि अपनी ज़िंदादिली से उसके टूटे मनोबल को अपने फौलादी हौसलों से उठा देती है. इसी तरह के नौजवानों के होने पर वह देश खुद को सार्थक महसूस करता है. तो यहीं दुनिया ने ऐसे भी युवाओं को देखा है, जो अपनी वीरता और पराक्रम से इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गए. वह अपने शौर्य से अपनी भूमि के नायक हो गए, देशभक्ति का पर्याय हो गए और आने वाली नस्लों के प्रेरणास्रोत बन गए. ऐसी ही आला शख्सियत की पहचान है, ‘द हीरो ऑफ बारामूला’ शहीद मक़बूल शेरवानी. यह इस बहादुर नौजवान के साहसी कर्मों का ही नतीजा है कि आज जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है.
यह बीसवीं सदी की तारीख का वह ऐतिहासिक दौर था, जब भारत सदियों के संघर्ष के बाद, ब्रिटिश दमनकारी हुक्मरानों से आज़ाद हुआ. परंतु आज़ादी की यह खुशनुमा सुबह, बंटवारे और रियासतों में खंडित देश के दुःखों के साथ मिली. बावजूद इसके बंटवारे के ज़ख्मों के साथ भारत, राष्ट्रीय एकीकरण में जुट गया. एक-एक कर सभी रियारतों को भारत से जुड़ने पर विभिन्न स्तरों की चर्चाएं होने लगती हैं.
वहीं उत्तर की दिशा में बर्फीली पहाड़ियों, हरी-भरी वादियों के बीच बहती नदियों और मनमोहक झरनों एवं वाटिकाओं से सजी जम्मू-कश्मीर रियासत थी. क्षेत्रफल के हिसाब से वह उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी रियासत थी. हालांकि स्वतंत्रता और विभाजन से यहां भी उसका असर पड़ा था, पर अन्य जगहों की तुलना में इधर स्थिति नियंत्रण में थी. शायद यहां किसी को भी यह अंदेशा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है. ब्रिटिश शर्तों के मुताबिक, सभी रियासतों की तरह जम्मू-कश्मीर को भी भारत या पाकिस्तान में से किसी एक देश के साथ विलय करना था. उस दौरान जम्मू-कश्मीर नरेश महाराजा हरि सिंह ने दोनों देशों के साथ यथास्थिति करार किए. इसी समय जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के बीच लगातार पत्राचार हो रहा था.
व्यापारिक चिट्ठियों के आदान-प्रदान से भारत और जम्मू-कश्मीर के नजदीक आने की ख़बर पाकिस्तान के कायद-ए-आज़म, मुहम्मद अली जिन्ना को नागवार गुज़री और नतीजतन उन्होंने अपनी सेना को रियासत पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. इसके ठीक बाद, पाकिस्तानी सेना और पश्तून कबाइलियों ने रियासत पर हमला कर दिया. पूरे जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए हमलावरों ने जम्मू, कश्मीर, लद्दाख और गिलगित पर एक साथ हमला किया. हमलावर इस दौरान हत्या, बलात्कार और लूटपाट करते हुए राजधानी श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे. हमला रोकने में अक्षम रियासत की सेना तथा तेज़ी से गहराते संकट पर महाराजा ने भारत से सहायता मांगी.
वहीं रियासत की जनता हमले को लेकर आतंकित थी. पर इसी बीच एक 19 साल के नौजवान में वह अदम्य साहस का परिचय दिया, जो शायद इस उम्र का कोई दूसरा करने की भी ना सोचें. वह कोई और नहीं बल्कि मक़बूल शेरवानी थे, जिन्होंने बिना अपनी जान की परवाह किए, अपनी मोटरबाइक से सीधे हमलावरों के पास चले गए.
वह 22 अक्टूबर का ठंडा दिन था, जब पश्तून कबाइलिए कश्मीर के बारामूला ज़िले में लूटपाट कर रहे थे. मक़बूल शेरवानी बिना डरे हमलावरों से मिले और आगे नहीं बढ़ने की हिदायत दी. उन्होंने कबाइलियों से यह झूठ बोला कि भारतीय सेना बारामूला के इलाके में आ चुकी है और आगे जाना खतरनाक हो सकता है. उनका यह झूठ काम कर गया और हमलावर चार दिनों तक बारामूला में ही रुके रहें. इसी बीच 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर नरेश महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसके साथ ही जम्मू-कश्मीर सदा के लिए भारत का अभिन्न अंग हो गया. अब राज्य की सुरक्षा भारत की ज़िम्मेदारी थी, इसी के तहत विलय के अगले ही दिन भारतीय सेना श्रीनगर पहुँच गई और हमलावरों से मुक्त कराकर इलाकों को पुनः अपने नियंत्रण में लिया.
मक़बूल शेरवानी के इस कदम का असर यह हुआ कि दुश्मन राजधानी श्रीनगर तक नहीं पहुंच पाए और महाराजा तथा भारतीय सेना को चार बहुमूल्य दिन मिल गए. परंतु उन्हें बाद में दुश्मनों ने 7 नवंबर 1947 को बंधक बना लिया. हमलावरों में इस बात का बहुत गुस्सा था कि एक नौजवान ने कबाइलियों की पूरी फौज को मूर्ख बनाया और उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. कबाइलियों का बंधक रहते हुए उन्होंने तरह-तरह की अमानवीय यातनाएं सहीं. अनेकों बार भारतीय सेना की पोज़िशन के बारे में पूछने का जवाब ना देने और ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ नारा लगाने से इनकार करने पर कबाइलियों ने मक़बूल शेरवानी को दो ऊंचे खंबों पर टांग दिया, शरीर में जगह-जगह कीलें ठोक दीं और उनकी नाक काट दी. यह उनकी देश के प्रति समर्पण भावना ही थी कि इतनी घोर यातनाएं सहने के बाद भी वे यह गीत “ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम, तेरी चाहत में जान भी लुटा देंगे हम” गा रहे थे.
बाद में जब भारतीय सेना दूसरी जगह छिपे हमलावरों को खत्म करके बारामूला पहुंची, तो उसी खंबें पर उनका पार्थिव शरीर लटका हुआ था. जांच में उनके शरीर में चौदह गोलियों के निशान पाए गए और स्थानीय लोगों के अनुसार, उनका पार्थिव शरीर पिछले दो दिनों से ऐसी हालत में था. बाद में भारतीय सेना ने अपने इस नायक को पूरे सैनिक सम्मान के साथ बारामूला मस्जिद में सुपुर्द-ए-खाक किया.
वहीं भारतीय सेना प्रतिवर्ष 27 अक्टूबर को विलय के बाद, राज्य में अपने पहले फौजी दस्ते के आगमन पर ‘इन्फैंट्री दिवस’ के रूप में मनाती है, जिसमें सेना के उच्च अधिकारी इस शूरवीर नागरिक को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. इसके अलावा साल 2004 में सेना ने इस योद्धा की याद में शहर के मध्य शेरवानी कम्यूनिटी हॉल का भी निर्माण किया. ऐसा भी कहा जाता है कि विभाजन से ठीक पहले, जब जिन्ना बारामूला की एक सभा में अपने ‘द्वि-देशी सिद्धांत’ को सही बता रहें थे, उसी दौरान मक़बूल शेरवानी तथा उनके समर्थकों ने जमकर विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप जिन्ना को बीच में ही अपना भाषण छोड़कर मंच से नीचे उतरना पड़ा था.
देश के प्रति सच्चा स्नेह और मुश्किल हालात में भी देश-प्रेम के खातिर कुछ करना हमें शहीद मक़बूल शेरवानी के व्यक्तित्व से सीखने को मिलता है. एक छोटी सी उम्र में देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान देने की ताकत इतिहास में सिर्फ इन्हें, शहीद खुदिराम बोस और शहीद भगत सिंह जैसे महान लोगों को ही थी, जो कि हम सभी को अपनी शौर्य गाथा से प्रभावित करते है. जम्मू-कश्मीर अगर आज भारत-भूमि का ताज है, तो इसमें सबसे बड़ा योगदान शहीद मक़बूल शेरवानी का है, जिन्होंने एक मज़बूत भारत के सपने को साकार करने में अपार संभावनाओं से भरा अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया. राष्ट्र अपने इस बेटे पर गर्व करता है.
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