जब पक्ष-विपक्ष का एक ही हाल तो भगवान ही बचाए जान
यह पहली बार नहीं है जब बिहार में चमकी बुखार का प्रकोप दिखा हो. साल 2014 में भी 355 मौतें हुई थीं तब भी इतनी ही हाय-तौबा मची थी. तब भी बिहार की सत्ता में नितीश कुमार ही काबिज थे. लेकिन अब 100 बच्चों की मौत भी सुशासन बाबू की तन्द्रा नहीं तोड़ पा रही है.
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बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार कहे जाने वाले एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिंड्रोम (AES) ने विकराल रूप धारण कर लिया है. इस बीमारी से अब तक 100 से भी ज्यादा मासूमों की जान चली गई है. हालांकि मासूमों की मौत का सिलसिला बदस्तूर जारी होने के बावजूद सत्तासीन लोगों की संवेदनहीनता कई सवाल खड़े करती है.
सत्ता पक्ष में बैठे लोगों की संवेदहीनता का आलम यह है कि AES को लेकर केंद्रीय और राज्य मंत्री की बिहार के स्वास्थ्य विभाग की आपात बैठक के दौरान भी राज्य के स्वास्थ मंत्री मंगल पांडेय मौतों से ज्यादा भारत-पाकिस्तान के मैच का हाल जानने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे. जब भारत ने पाकिस्तान को मैच हरा दिया तब मंगल पांडेय ने तुरंत ही ट्वीटर पर इस बात का इजहार भी किया कि वह इस मैच की पल पल की जानकारी से अपडेट थे. भले ही उन्हें अपने राज्य में मचे हाहाकार की कोई जानकारी हो या ना हो.
संवेदनहीनता की पराकाष्टा तो केंद्रीय स्वास्थ राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने भी दिखा दी जब इस बीमारी को लेकर केंद्रीय स्वास्थ मंत्री हर्षवर्धन की प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ही चौबे जी झपकी मारते दिखे.
प्रेस कान्फ्रेंस में स्वास्थ राज्य मंत्री अश्विनी चौबे झपकी मारते नजर आए
और अब बात राज्य के मुखिया सुशासन बाबू नितीश कुमार की. जानलेवा बीमारी के चरम पर पहुंचने के कई दिनों बाद मुख्यमंत्री साहब ने मुजफ्फरपुर का दौरा कर समीक्षा बैठक में भाग लिया. अब मुख्यमंत्री के समीक्षा बैठक के बाद हालात कितने सुधरेंगे यह तो अगले कुछ दिनों में पता चल पाएगा, मगर जब 100 बच्चों की मौत भी सुशासन बाबू की तन्द्रा नहीं तोड़ पा रही है तो समझा जा सकता है कि आखिर मुख्यमंत्री की प्राथमिकताओं में मासूमों की जानें कितना नीचे चली गयी हैं.
सत्ता पक्ष ही क्यों बिहार में तो विपक्षी खेमे में भी इन मौतों को लेकर कोई खास हलचल नहीं दिख रही है. अगर विपक्षी नेताओं के इक्का दुक्का बयानों और कुछ विरोध प्रदर्शन को छोड़ दिया जाए तो राज्य के मुख्य विपक्षी दल, राष्ट्रीय जनता दल भी इस मुद्दे पर सरकार को घेरने में पूरी तरह नाकामयाब रहा है. आमतौर पर हरेक मुद्दे पर मुखर रहने वाले राष्ट्रीय जनता दल के नेता और लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ने इस मुद्दे पर खामोशी ओढ़ रखी है. लगता है कि लोकसभा चुनावों में एक भी सीट ना जीत पाने का सदमा शायद तेजस्वी यादव झेल नहीं पा रहे हैं. तभी तो इस मुद्दे पर तेजस्वी यादव का कोई ट्वीट तक नहीं दिखा. तेजस्वी ने आखिरी ट्वीट 10 जून को अपने पिता के 'अवतरण दिवस' (जन्मदिन) पर किया था.
राबड़ी देवी भी बिहार के मुख्यमंत्री की तरह ही इस मुद्दे पर आज जगी हैं, राबड़ी देवी ने आज ट्वीटर पर इस मुद्दे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का भरसक प्रयास किया है. हालांकि उनकी पार्टी ने इससे पहले इस मुद्दे को जातीय रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यह ट्वीट उसी की एक नजीर है.
यह पहली बार नहीं है जब बिहार में चमकी बुखार का प्रकोप दिखा हो. साल 2014 में भी 355 मौतें हुई थीं तब भी इतनी ही हाय-तौबा मची थी. तब भी बिहार की सत्ता में नितीश कुमार ही काबिज थे. हालांकि इसके बाद के अगले चार सालों में बिहार में चमकी बुखार से मौतों में कुछ गिरावट देखने को जरूर मिली थी, मगर तब भी यह आंकड़ा सरकार को सकते में डालने के लिए काफी था. साल 2015 में 90, साल 2016 में 102, 2017 में 54 और 2018 में 33 मौतें हुईं. आकड़ें यह बताने के लिए काफी हैं कि यह कोई नई बीमारी नहीं है बल्कि ये बीमारी सालों से बच्चों की मौत की नींद सुला रही है. बावजूद इसके इस बीमारी की रोकथाम के लिए कोई बेहतर पहल नहीं की गई, इसकी एक बानगी तब भी देखने को मिली जब केंद्रीय स्वास्थ मंत्री साल 2019 में भी साल 2014 में स्वास्थ मंत्री रहते हुए किए गए अपने वादों को दोहरा गए. जो यह बताने के लिए काफी है कि पिछले पांच सालों में काम क्या हुआ.
इन्सेफेलाइटिस से बिहार में अब तक 100 से ज्यादा बच्चों की जाने गई हैं
ऐसा नहीं है कि केवल बिहार ही स्वास्थ सेवाओं के प्रति उदासीन है, बच्चों की मौतों का ऐसा ही नजारा पिछले सालों में उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिला था. कुल मिलाकर पूरे भारत में ही स्वास्थ सेवाओं की स्थिति काफी लचर रही है. इसे पिछले साल आई नेशनल हेल्थ प्रोफाइल में दिए आकड़ों से समझा जा सकता है, जहां प्रत्येक 11 हजार की आबादी पर केवल सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर की उपलब्धता बताई गयी थी. यह आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि देश में सरकारी स्वास्थ सेवाएं कितनी कारगर हैं. वहीं दूसरी तरफ निजी अस्पतालों में इलाज एक सामान्य भारतीय की जेब से बाहर की बात है.
देश भर में उबाल तभी आता है जब मौत का आकड़ां 50-100 के पार पहुंच जाए, वो भी शायद कुछ दिनों के लिए ही. अब इसे त्रासदी ही कहेंगे कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा स्वास्थ सेवाओं की लगातार अनदेखी के बावजूद यह कभी चर्चा का विषय नहीं बन पाता. चीजें तभी बदलेंगी जब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही इन मौतों को लेकर जवाबदेह हो. हालांकि वर्तमान में पक्ष-विपक्ष के जो हालात हैं उनमें भगवान ही लोगों की जान बचा सकते हैं.
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तो क्या वाकई Lychee जानलेवा बन चुकी है, जो बच्चों को मौत के घाट उतार रही है?
काश किसी को मुजफ्फरपुर के पिताओं का दर्द भी नजर आये
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