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Updated: 22 मार्च, 2016 02:51 PM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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असम में अगले महीने विधान सभा चुनाव होने वाले हैं. चुनाव में कांग्रेस ने जो पोस्टर लगाये हैं उनमे देश द्रोह के आरोपी एक कम्युनिस्ट छात्र कन्हैया कुमार की तस्वीरें हैं. वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस के बड़े नेता शशि थरूर ने कन्हैया की तुलना भगत सिंह से कर दी है. क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि अब कांग्रेस का भरोसा अपने नेतृत्व से उठ गया है और वो कन्हैया को राहुल गांधी से बड़ा नेता मानने लगी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि चुनावों में कांग्रेस राहुल गांधी से ज्यादा भरोसा कन्हैया कुमार पर जताती दिख रही है. इसमें कोई शक नहीं कि वर्तमान राजनीति में विपक्ष एक अजीब छटपटाहट के दौर से गुजर रहा है. विपक्षी राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस नेतृत्व के सभी चेहरे मोदी की आभा के आगे फीके साबित हो चुके हैं. राजनीति का वर्तमान दौर मोदी का दौर है. यानी, 'मोदी इज मुद्दा, मुद्दा इज मोदी'. आप या तो मोदी के साथ हैं अथवा मोदी के खिलाफ हैं. राजनीति में बीच का कोई रास्ता शेष नहीं बचा है. आज कांग्रेस राजनीति की ही नहीं बल्कि आत्मविश्वास की लड़ाई भी हार चुकी है. कांग्रेस के नेताओं का विश्वास न तो अपने किसी नेता में रहा और न ही अपने नेतृत्व से ही कांग्रेस में कोई उम्मीद दिख रही है. यह एक ऐसी छटपटाहट का दौर है जिसमें हताशा और भ्रम पूरी पार्टी में पसरा हुआ है.  

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हताशा और भ्रम के इस दौर में कांग्रेस की हालत ऐसी हो गयी है कि उसके नेता अब टीवी मीडिया के गमले में उगे एक कम्युनिस्ट छात्र नेता को भगत सिंह बताने लगे हैं. हालांकि इसके पहले पहले खुद कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अघोषित युवराज राहुल गांधी तक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार का समर्थन कर चुके हैं. आश्चर्य है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के पास चेहरों का ऐसा अकाल भी क्या पड़ा है जो उसे देशद्रोह के आरोपी एक कम्युनिस्ट छात्र को अपने चुनावी पोस्टर में शीर्ष पर जगह देनी पड़ गयी?

खैर, शशि थरूर ने कन्हैया की तुलना भगत सिंह से की तो कांग्रेस ने देश का मिजाज देखते हुए इस बयान से किनारा कर लिया. हालांकि जब कांग्रेस कन्हैया को अपना चुनावी पोस्टर ब्वाय बना ही चुकी है, खुद राहुल गांधी कन्हैया का समर्थन कर चुके हैं तो फिर शशि थरूर के बयान से भी किनारा करने वाली इस खानापूर्ति की कोई जरुरत नहीं थी. कांग्रेस ने यह गलती तो कर ही दी है, वरना कहाँ भगत सिंह और कहाँ कन्हैया? कोई साम्य नहीं है. झूठ की खेती कर अफवाहों की फसल उगाने वाले कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों द्वारा फैलाया गया यह भी एक बड़ा झूठ है कि भगत सिंह कम्युनिस्ट थे. जबकि सच्चाई इसके उलट है. सैधांतिक सच्चाई तो ये है कि एक कम्युनिस्ट कभी राष्ट्र की आजादी के लिए लड़ ही नहीं सकता है, जबकि भगत सिंह इस राष्ट्र की आजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले वीर लड़ाके थे. शशि थरूर सहित कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों को यह पता होना चाहिए कि भगत सिंह अपने लेखों की शुरुआत 'प्रात: स्मरणीय मातृभूमि' और अंत 'वन्दे मातरम' से करते थे. क्या तब का या अभी का कोई कम्युनिस्ट 'वन्दे मातरम' बोल भी सकता है? भगत सिंह को कम्युनिस्ट बताने के पीछे एक ऐसा हास्यास्पद तर्क दिया जाता है कि वे जेल में लेनिन की किताब पढ़ रहे थे. अब भला लेनिन की किताब पढने से कोई कम्युनिस्ट हो जाता है क्या! अगर इस लिहाज से भी देखें तो भगत सिंह ने वीर सावरकर की 1857 स्वतंत्रता संग्राम किताब को भी पढ़ा. इसपर कम्युनिस्ट क्या कहेंगे?

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आज भगत सिंह जैसे राष्ट्रवादी स्वतंत्रता सेनानी से एक कम्युनिस्ट की तुलना करके कांग्रेस नेता शशि थरूर ने यह साबित किया है कि कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर भरोसे का संकट है. उनको अपने नेतृत्व पर और अपने शीर्ष नेता पर भरोसा ही नहीं है. राजनीति का यह वो काल है जब विपक्ष मोदी विरोध की बेबसी में किसी का भी समर्थन करने को तैयार है. मोदी विरोधियों को बस एक तात्कालिक प्रतीक चाहिए मोदी का विरोध करने के लिए, चाहें उस प्रतीक का कोई वैचारिक जनाधार हो या न हो. हालांकि मोदी विरोध की जद्दोजहद में आतंकी अफजल पर कार्यक्रम करने वाले एक देशद्रोह के आरोपी की तुलना राष्ट्रवादी भगत सिंह से करना, उस महान क्रांतिकारी का अपमान है जो अपने राष्ट्र और मातृभूमि के लिए वन्दे मातरम कहते हुए फांसी पर झूल गया था.

लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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