जहां तीन साल में एक उपचुनाव नहीं हो पाया उस कश्मीर में विधानसभा चुनाव क्या अभी मुमकिन है?
राज्य में आखिरी बार पंचायत चुनाव अप्रैल-मई 2011 में कराए गए थे. जबकि शहरी निकाय चुनाव जनवरी 2005 में हुए थे. ये जानकारी ही काफी है हाल-ए-कश्मीर बताने को.
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मंगलवार (19 जून) को जम्मू-कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भाजपा के बीच का तीन साल पुराना गठबंधन टूट गया. जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने राज्यपाल एनएन वोहरा को फोन करने के बाद मीडिया से बात की. उन्होंने राज्य में जल्द चुनाव कराने की मांग की.
कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि वो पीडीपी का समर्थन नहीं करेगें. राज्य के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ बातचीत के बाद राज्यपाल वोहरा ने राष्ट्रपति को जम्मू कश्मीर के संविधान की धारा 92 के तहत राज्य में गवर्नर रुल लागू करने की सिफारिश कर दी. बुधवार को राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने राज्य में गवर्नर रुल को मंजूरी दे दी. हालांकि समस्या का ये फौरी समाधान है.
चुनाव का इंतजार तो है पर क्या ये हो पाएगा?
राज्यपाल सदन को भंग करके चुनावों की घोषणा कर सकते हैं. लेकिन राज्य में चुनाव कराने की स्थिति कितनी अनुकूल है?
पिछले साल अप्रैल में श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए उप-चुनाव में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में आठ लोगों की मौत हो गई थी. इसमें 7.14 प्रतिशत मतदान हुआ था. जो उस समय तक का सबसे कम आंकड़ा था. एक महीने बाद 38 मतदान केंद्रों में हुए फिर से मतदान में सिर्फ 2 प्रतिशत मतदान हुआ. यह राज्य के इतिहास में सबसे कम मतदान प्रतिशत था. खानसाहिब विधानसभा क्षेत्र में तो एक भी वोट नहीं पड़ा था, जबकि बड़गाम में केवल तीन वोट डाले गए थे.
आंकड़ें क्या कहते हैं?
सीट के लिए कुल मतदान को 7.14 प्रतिशत से 7.13 प्रतिशत में संशोधित किया गया था. नेशनल कॉन्फ्रेंस प्रमुख फारूक अब्दुल्ला ने 10,700 से अधिक मतों के अंतर से पीडीपी उम्मीदवार नज़ीर खान को हराया. अब्दुल्ला को लगभग 48,554 वोट मिले थे, जबकि खान को 37,77 9 वोट मिले.
किसी भी तरीके से इसे चुनाव नहीं कहा जा सकता है. यहां तक कि 2014 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भी इस निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 26 प्रतिशत ही मतदान हुआ था. 24 सितंबर 2002 को आतंकवादियों ने गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमला किया था. उसी दिन जम्मू कश्मीर में चार दौर में होने वाले मतदान का दूसरा दौर था. लेकिन आतंकी घटना के बाद भी उस दिन जम्मू कश्मीर में लगभग 41 प्रतिशत मतदान हुआ था.
भारतीय राजनीतिक दलों और विदेश मंत्रालय ने 1996 से ही राज्य के मतदाताओं द्वारा चुनावों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने को जनता द्वारा नई दिल्ली में आत्मविश्वास के तौर पर पेश किया है.
हालांकि, श्रीनगर उपचुनाव ने घाटी में चुनाव का एक जर्द चेहरा पेश किया. अनंतनाग लोकसभा सीट का मामला सबसे खराब था. जून 2016 में महबूबा मुफ्ती ने मुख्यमंत्री बनने के लिए इस सीट को खाली कर दिया. 2017 के उपचुनाव में, उनके भाई तस्सादुक हुसैन ने पीडीपी उम्मीदवार के रूप में यहां से चुनाव लड़ा था. मतदान से एक दिन पहले ही हिंसा के कारण उपचुनाव को रद्द कर दिया गया था. आलम ये है कि कानून और व्यवस्था की स्थिति दिन पर दिन खराब होने के कारण चुनाव आयोग वहां आज तक उप-चुनाव नहीं करा पाई है.
1996 के बाद से अनंतनाग में उप-चुनाव में ये देरी देश में सबसे लंबे समय तक की देरी हो गई है. अगले आम चुनावों के लिए अब एक साल से भी कम समय बचा है. इसलिए बहुत संभावना है कि ये सीट तब तक खाली ही रहेगी.
आगे की रणनीति?
1996 से पहले, जब छह महीने के भीतर खाली सीट को भरने का वर्तमान नियम प्रभावी हुआ था, तो हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में चुनाव कराने में लंबी देरी के कुछ उदाहरण थे.
2018 की शुरुआत में, चुनाव आयोग ने स्थिति का जायजा लेने का फैसला किया कि क्या राज्य पंचायत चुनाव आयोजित करता है और वे कितने शांतिपूर्वक ढंग से होंगे. हालांकि, आज तक राज्य स्थानीय निकाय चुनावों को कराने में असमर्थ रहा है, इसके साथ ही उप-चुनाव कराने की संभावना भी कम हो गई है. 17 अप्रैल, 2018 में भी राज्यपाल वोहरा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को राज्य के शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव कराने के लिए रिमांइडर दिया था.
राज्य में आखिरी बार पंचायत चुनाव अप्रैल-मई 2011 में कराए गए थे. जबकि शहरी निकाय चुनाव जनवरी 2005 में हुए थे. राज्य में शहरी स्थानीय निकाय चुनाव आठ साल से और पंचायत चुनाव दो साल से लंबित हैं.
ये उदाहरण ही काफी हैं राज्य में निष्पक्ष चुनाव कराने की परिस्थिति के बारे में बताने के लिए.
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