राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करना क्या शिवसेना की 'घर वापसी' है?
राष्ट्रपति के लिए एनडीए की उम्मीदवार, द्रौपदी मुर्मू को लेकर महाराष्ट्र में उद्धव का रुख हैरान करने वाला है. सवाल ये है कि अपना पॉलिटिकल करियर बचाने के लिए कहीं उद्धव घरवापसी के मूड में तो नहीं हैं?
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किसी ज़माने में करीबी रह चुके एकनाथ शिंदे द्वारा की गई बगावत के बाद, अपना सब कुछ गंवाने वाले महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पुनः चर्चा में हैं. कारण है एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू. उद्धव ठाकरे द्वारा आगामी राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने का फैसला करने के बाद, शिवसेना को महाराष्ट्र में उसकी सहयोगी कांग्रेस से आलोचना का सामना करना पड़ा है. भले ही महाराष्ट्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बालासाहेब थोराट ने द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने के चलते शिवसेना के रुख पर गंभीर चिंता व्यक्त की हो लेकिन द्रौपदी मुर्मू-राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जैसा रुख उद्धव का है. सवाल ये है कि अपना पॉलिटिकल करियर बचाने के लिए कहीं वो घरवापसी के मूड में तो नहीं हैं?
द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करने का फैसला अगर उद्धव ने लिया है तो वो बेवजह नहीं है
उद्धव ठाकरे का आने वाला वक़्त कैसा होगा इसपर चर्चा होगी लेकिन उससे पहले जिक्र थोराट के उस ट्वीट का जिसमें उन्होंने महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) का हिस्सा शिवसेना के वैचारिक दलबदल पर सवाल उठाया है. ट्विटर पर थोराट ने लिखा है कि 'राष्ट्रपति चुनाव एक वैचारिक लड़ाई है. यह लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए चल रहा संघर्ष है. यह महिला बनाम पुरुष या आदिवासी बनाम गैर-आदिवासियों का सवाल नहीं है.”
अपने ट्वीट में थोराट ने ये भी लिखा कि, 'जो लोग संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के पक्ष में हैं, वे यशवंत सिन्हा का समर्थन कर रहे हैं.'
राष्ट्रपती पदाची निवडणूक ही वैचारिक लढाई आहे. लोकशाही आणि संविधान रक्षणासाठी सुरू असलेला हा संघर्ष आहे. स्त्री, पुरुष किंवा आदिवासी, बिगर आदिवासी अशी ही लढाई नाही.जे संविधान आणि लोकशाहीच्या संरक्षणाच्या बाजूने आहेत ते सर्व यशवंत सिन्हा यांना पाठिंबा देत आहेत. pic.twitter.com/LSykyJ0b6L
— Balasaheb Thorat (@bb_thorat) July 12, 2022
क्योंकि उद्धव की घोषणा को कांग्रेस और कांग्रेस में भी थोराट की तरफ से बहुत गंभीरता से लिया गया है. अपने ट्वीट्स की सीरीज में, उन्होंने आगे लिखा कि, 'शिवसेना ने द्रौपदी मुर्मू का समर्थन क्यों किया? उन्होंने इसके कुछ कारण बताए, लेकिन हम इसके पीछे शिवसेना नेतृत्व की वास्तविक भूमिका के बारे में कुछ नहीं कह सकते.
थोराट के अनुसार शिवसेना एक अलग राजनीतिक दल है, इसलिए वे अपने फैसले स्वतंत्र रूप से ले सकते हैं. हालांकि, इस वैचारिक लड़ाई में शिवसेना द्वारा निभाई गई भूमिका जब गैर-लोकतांत्रिक रास्ता अपनाकर राज्य सरकार को उखाड़ फेंका गया और शिवसेना के अस्तित्व को चुनौती दी गई, वह समझ से बाहर है. सेना महा विकास अघाड़ी (एमवीए) का हिस्सा है, लेकिन उन्होंने निर्णय लेते समय हमारे साथ कुछ भी चर्चा नहीं की.
शिवसेना हा एक वेगळा राजकीय पक्ष आहे, त्यामुळे ते त्यांची भूमिका घेऊ शकतात. मात्र या वैचारिक लढाईत जेव्हा गैर लोकशाही मार्गाचा अवलंब करून राज्यातील सरकार पाडले गेले, शिवसेनेच्या अस्तित्वाला आव्हान दिले गेले, अशा परिस्थितीत शिवसेनेने घेतलेली भूमिका अनाकलनीय आहे.
— Balasaheb Thorat (@bb_thorat) July 12, 2022
मुर्मू को लेकर उद्धव के स्टैंड पर भले ही कांग्रेस गंभीर रूप से आहत हो लेकिन जब हम एनसीपी को देखते हैं तो मिलता है कि एनसीपी द्वारा मामले को बैलेंस करने के प्रयास तेज हैं. एनसीपी ने कहा है कि भले ही शिवसेना ने एनडीए उम्मीदवार का समर्थन करने का फैसला किया है, वे चाहते हैं कि राज्य में उनका गठबंधन बरकरार रहे.
एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष जयंत पाटिल ने कहा कि हर राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने अपनी पसंद बनाई है. यह एनडीए का समर्थन नहीं है. मुर्मू आदिवासी समुदाय से हैं. इसलिए, शिवसेना को अपना समर्थन देना चाहिए था.
“हमारे पास प्रतिबंध नहीं हो सकते हैं, कई निर्णय व्यक्तिगत पार्टी स्तर पर लिए जाते हैं, जहां गठबंधन सहयोगियों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. हालांकि, द्रौपदी मुर्मू के समर्थन की घोषणा करने से पहले शिवसेना ने चर्चा नहीं की थी.
बहरहाल चाहे वो कांग्रेस हो या एनसीपी इनके तर्कों को यदि एक बार के लिए दरकिनार कर लें तो उद्धव का द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करना बेवजह नहीं है. यदि उध्दव ने ये फैसला लिया है तो जल्दबाजी में नहीं बल्कि सोच समझकर लिया है. महाराष्ट्र में जिस तेजी से सियासी समीकरण बदल रहे हैं उद्धव को इस बात का एहसास है कि यदि वो यशवंत सिन्हा का समर्थन कर देते तो इसका सीधा असर उनके उन सांसदों पर पड़ता जो परिस्थितियां विषम होने के बावजूद उद्धव के साथ हैं.
ध्यान रहे अभी उद्धव के ऊपर से संकट के बादल टले नहीं हैं. विधायकों के बाद शिवसेना सांसद भी किसी भी पल उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ सकते हैं. उद्धव इस बात से अवगत हैं कि यदि ऐसा हो गया तो फिर उनकी राजनीति ख़त्म हो जाएगी. क्योंकि मौजूदा वक़्त में उद्धव के सबसे बड़े राइवल शिंदे पहले ही मुर्मू का समर्थन करने की बात कह चुके हैं, कहीं न कहीं उद्धव ने ये फैसला अपने सांसदों का विश्वास जीतने के लिए लिया है.
बहरहाल राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर उद्धव का ये रुख उनकी राजनीति के लिहाज से कितना फायदेमंद होगा इसका फैसला तो वक़्त करेगा लेकिन जैसे हालात अभी के हैं कह सकते हैं कि उद्धव दूध से जले हैं और छाछ भी फूंक फूंककर पी रहे हैं. यदि उन्होंने अपनी 'घरवापसी' के संकेत दिए हैं तो ये मज़बूरी काम जरूरत ज्यादा है.
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