कश्मीर से आतंकवादियों के सफाए का ये सही समय है
नए प्रशासन और सुरक्षा तंत्र को पत्थरबाजों का जवाब खोजने की जरूरत है. इसमें न सिर्फ पत्थरबाजों को काबू करना शामिल है बल्कि इन गतिविधियों का नेतृत्व करने वाले नेटवर्क को बेअसर करना भी शामिल है.
-
Total Shares
भाजपा द्वारा कश्मीर में पीडीपी से समर्थन वापस लेने के बाद राज्यपाल ने जम्मू कश्मीर में आठवीं बार राज्यपाल शासन लगा दिया. अब यह सोचने का समय है कि आखिर आतंकवाद विरोधी अभियानों से विकास कैसे प्रभावित होगा. खासकर तब जब रमजान के दौरान पूरे एक महीने तक सरकार द्वारा एकतरफा सीजफायर को हाल ही में खत्म किया गया है. यह घाटी में होने वाली गोलाबारी को उजागर करेगा, या फिर सबकुछ वैसा ही चलेगा जैसे पहले चलता था. क्या हम जम्मू-कश्मीर में हताहतों की संख्या में और बढ़ोतरी देखेंगे? क्या नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर हमलों में तेजी आएगी? उत्तर की राह देख रहे सवालों की फेहरिस्त बहुत लंबी है.
राज्यपाल एन एन वोहरा ने राज्य की कमान तब संभाली है जब जम्मू-कश्मीर और एलओसी पर स्थिति बिगड़ती ही जा रही है. दरअसल स्थिति तो कुछ समय पहले से ही खराब होनी शुरु हो गई थी. जम्मू-कश्मीर में ऑपरेशन ऑल आउट के लॉन्च और कई आतंकवादियों विशेष रूप से हिजबुल मुजाहिदीन से जुड़े आतंकवादियों की बड़ी संख्या में खात्मे के साथ ही वहां के हालात बिगड़ने शुरु हो गए थे. हालांकि, कुछ समय से आतंकी कैंप में युवाओं की भर्ती में भी बढ़ोतरी देखी गई है. स्थानीय युवाओं ने आतंकवादी गुटों का हाथ थामना शुरु कर दिया.
युवाओं ने बड़ी संख्या में आतंकियों का साथ देना शुरु कर दिया. ये चिंता की बात है
पत्थरबाजी करने में लोगों की भारी संख्या भागीदारी, जो आतंकवादियों की मदद कर रही है, एक खतरनाक रुप है. और इसके लिए कोई भी संतोषप्रद जवाब अभी तक नहीं मिला है. 'सीजफायर' के समय ग्रेनेड के उपयोग से लेकर आतंकवादियों द्वारा नागरिकों, छुट्टी पर गए सैनिकों और पुलिस अधिकारियों की हत्या के कुछ सनसनीखेज मामले भी देखने को मिले हैं.
राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी और सेना में राइफलमैन औरंगजेब को शिकार बनाने के पीछे उनकी नियत लोगों को डराने की थी. लेकिन इनके अंतिम संस्कार में बड़ी मात्रा में वो लोग ही आए थे जो आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति का भाव रखते थे. जन सैलाब इनकी अंतिम यात्रा के समय इस बात का गवाह है कि लोगों का आतंकवाद से भरोसा टूटा है.
एलओसी के पास के रास्ते खुले हैं. घुसपैठ के लिए यह सबसे अच्छा मौसम है. सीमा पार से गोलीबारी की घटना इतनी कम नहीं हुई है कि सीमावर्ती गांवों में नागरिक शांति से रह सकें. खासकर सीमा सुरक्षा बलों के हताहतों की संख्या चिंता का कारण रहा है. दोनों सेनाओं के निदेशक जनरलों के बीच की बातचीत का बहुत कम असर पड़ा है. हालांकि निलंबन के दौरान सिर्फ 23 आतंकवादी मारे गए. संभवतः इससे आतंकवादी समूहों को खुद को पुनर्गठित करने और अपने नेटवर्क को मजबूत करने के लिए समय मिल गया.
श्रीनगर में नए विवाद से यह पता चलेगा कि घाटी की समस्याओं के लिए रातोंरात कोई समाधान नहीं है. जहां तक आतंकवाद विरोधी अभियान का सवाल है, तो सुरक्षा बलों को अब कम राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना करना पड़ेगा. लेकिन काम करने का तरीका कमोबेश वही रहेगा. वैसे ऐसा भी नहीं है कि आतंकवाद विरोधी अभियानों की बाढ़ आ जाएगी. लेकिन युद्धविराम नहीं होने के कारण सुरक्षा बलों को अपनी खुफिया जानकारी के आधार पर कार्य करने और ऑपरेशन लॉन्च करने की पूरी आजादी होगी. 'युद्धविराम' के दौरान किसी भी तरह का ऑपरेशन करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इससे सीजफायर की विफलता का संकेत जाता है.
अब पाकिस्तान ये साबित करने पर तुल जाएगा कि राज्यपाल शासन कश्मीर की परेशानियों का हल नहीं है. और इसके लिए वो जिस तरीके का इस्तेमाल करेगा वो कोई नया नहीं होगा. यह घाटी में विरोध प्रदर्शन, पत्थर फेंकने, आतंकवादी हमलों जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देगा. चुनाव के लिए तैयारी कर रही राजनीतिक दलों के साथ साथ पाकिस्तान और आईएसआईएस के लोग अपनी उपस्थित दर्ज कराने की कोशिश करेंगे. इन आतंकवादी संगठनों रणनीति होगी कि राजनीतिक संगठनों को बदनाम करके खुद को कश्मीरियों के लिए एकमात्र उम्मीद के रूप में पेश करें.
सेना के लिए आतंकियों के सफाए का ये सबसे सही समय है
आईएसआईएस इसे राजनीतिक के बजाय इस्लामी आंदोलन के रूप पेश करने का प्रयास करेगा. दिल्ली ने हाल ही में आईएसआईएस से संबंधित कुछ कट्टरपंथी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया है. अब जबकि चुनाव बहुत दूर नहीं हैं, ऐसे में आतंकवादियों पर बल प्रयोग संभव है. हालांकि, पाकिस्तान के सरपरस्तों को ये बात भी ध्यान में रखनी होगी कि एक भी नागरिक की हत्या लोगों को उनके खिलाफ खड़ा कर सकती है.
मतदाताओं में डर पैदा करने और उन्हें मतदान से दूर रखने के लिए इस तरह के हथकंडे चुनावों के करीब होने पर इस्तेमाल किए जाएंगे. जहां तक राज्य में नए नेतृत्व का संबंध है, इसे बिना किसी हस्तक्षेप के उचित बल के उपयोग की अनुमति देनी चाहिए. कश्मीर हिंसा में हिंसा कोई नई बात नहीं है. ऐसे में आज के हालात को भी कुछ अलग नहीं कहा जा सकता है. लेकिन अगर हम स्वतंत्र चुनाव चाहते हैं तो आतंकियों का सफाया करना जरुरी है.
इसके बाद ही वहां के लोगों द्वारा निडरता से घर से बाहर निकलने और अपनी अधिकार का उपयोग करने के लिए सही परिस्थितियां बनाई जा सकती हैं. ऑपरेशन ऑल आउट की सफलता को भुनाने की बहुत जरुरत है. आतंकवाद विरोधी अभियान में लगातार संघर्ष की गुंजाइश होती है जिसके कारण ही आतंकवादी बैकफुट पर होते हैं. प्राथमिकता के आधार पर सुरक्षा बलों को इस प्रक्रिया को फिर से अंजाम देना होगा. निलंबन के दौरान स्थानीय भर्ती में वृद्धि की कोई खबर सामने नहीं आई है.
नए प्रशासन और सुरक्षा तंत्र को पत्थरबाजों का जवाब खोजने की जरूरत है. इसमें न सिर्फ पत्थरबाजों को काबू करना शामिल है बल्कि इन गतिविधियों का नेतृत्व करने वाले नेटवर्क को बेअसर करना भी शामिल है. दूसरी बड़ी समस्या मारे गए आतंकवादियों के अंतिम संस्कार में बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति की है. अक्सर आतंकवादी इन सभाओं में शामिल होते हैं और हवा में अंधाधुंध फायरिंग करते हैं. और उनके साथी अपने संगठनों और पाकिस्तान के झंडे फहराते नजर आते हैं. ऐसे सभाओं में जाने से लोगों को रोकना मुश्किल होगा, हालांकि एक अदद शुरुआत की जरूरत है. साथ ही, आतंकवादियों द्वारा इन अवसरों का उपयोग युवाओं को प्रेरित करने के लिए करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है.
अंतिम संस्कार में शामिल होने और अपने हथियारों का प्रदर्शन करने वाले आतंकवादियों को चुनकर टारगेट किया जा सकता है. सच्चाई ये है कि सीजफायर के दौरान भी आतंकवादी कोई बड़ी कार्रवाही नहीं कर पाए. और इसकी गवाही इस बात से मिलती है कि रमजान के दौरान आतंकी गुटों के साथ भारी संख्या में युवा शामिल नहीं हुए. जिससे वो अपने नुकसान की भारपाई नहीं कर पाए.
छुट्टी पर गए एक सैनिक और एक संपादक की हत्या उनकी इस निराशा को दर्शाते हैं. सुरक्षाबलों को इस मौके को भुनाना चाहिए और आतंकवादियों पर मजबूती से हमला करना चाहिए.
ये भी पढ़ें-
जम्मू से शाह ने 2019 आम चुनाव का एजेंडा सामने रख दिया
जम्मू-कश्मीर का अगला गवर्नर बनने की दौड़ में 10 नाम हैं, जिसमें दसवां पक्का है
एक हफ्ते के अंदर भाजपा के सहयोगियों में बढ़ता असंतोष कहीं भजपा को 2019 में भारी न पड़ जाए
आपकी राय