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Updated: 23 जनवरी, 2018 11:07 AM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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पूरी दुनिया जानती है कि देश की आजादी की लड़ाई में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का योगदान अविस्मरणीय रहा है. पर पंडित जवाहर लाल नेहरु ने शायद अपनी हीनभावना के कारण ही, जानबूझकर उनका लगातार अपमान किया. इसके विपरीत नेताजी ने तो उनको सदैव अपना बड़ा भाई ही माना और पूरा सम्मान दिया.

देश की आजादी के बाद भी नेहरुजी को ये लगता रहा कि नेताजी अचानक से कभी भी देश के सामने प्रकट हो सकते हैं. इसका खुलासा तो अब हो चुका है. इसमें भी पंडित नेहरु की कुंठा और अज्ञात डर ही कारण रहा होगा. नेहरु जी के निर्देश पर नेताजी के कलकत्ता में रहने वाले परिवार के सभी सदस्यों की गतिविधियों पर लगातार केन्द्रीय खुफिया विभाग (आई.बी.) की नजर रखी जाती थी. नेहरुजी को यह तो पता था ही कि नेताजी ही देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं. जनता उन्हें तहेदिल से चाहती है और सम्मान भी देती है. लेकिन, नेहरु जी के दिमाग के किसी कोने में यह बात घर कर गई थी कि अगर नेताजी फिर से देश लौटे तो उनकी सत्ता चली जाएगी.

जाहिर है, नेहरु जी की सोच के साथ उस वक्त की कांग्रेस खड़ी थी. इसलिए ही सारी कांग्रेसी सरकारें बोस परिवार पर दो दशकों तक पैनी खुफिया नजर रखती रही. नेहरुजी की 1964 में मृत्यु के बाद भी 1968 तक नेता जी के परिजनों पर खुफिया एजेसियों की निगरानी कायम रही.

subhash chandra bose, jawahar lal nehruनेहरु और बोस की दूरियां साफ थीं

नेताजी के सबसे करीबी भतीजे अमिया नाथ बोस 1957 में जापान गए. इस बात की जानकारी नेहरुजी को मिली. उन्होंने 26 नवंबर 1957 को देश के विदेश सचिव सुबीमल दत्ता को आदेश दिया कि वे भारत के टोक्यो में पदस्थापित राजदूत की ड्यटी लगाएं. यह पता करने के लिए कि अमिया नाथ बोस जापान में कर क्या रहे हैं? यही नहीं, उन्होंने इस बात की भी जानकारी देने को कहा था कि अमिया बोस भारतीय दूतावास या नेता जी की अस्थियां जहां रखी गयी हैं, वहां पर गये थे या नहीं?

अब जरा अंदाजा लगाइये कि नेहरु जी किस तरह की सस्ती और ओछी हरकतों में लिप्त थे. वे कितने भयभीत थे. इस सनसनीखेज तथ्य का खुलासा अनुज धर की किताब 'इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप' में हुआ है. सवाल यह उठता है कि नेहरुजी जापान में अमिया नाथ बोस की गतिविधियों को जानने को लेकर आखिर इतने उत्सुक क्यों थे? क्या उन्हें ऐसा लगता था कि अमिया नाथ की गतिविधियों पर नजर रखने से नेताजी के बारे में उन्हें कुछ पुख्ता जानकारी मिल सकेगी? क्या इसीलिए वे अमिया नाथ बोस पर देश में और उनके देश से बाहर जाने पर भी खुफिया निगरानी करवाते थे?

कहते हैं कि अमिया नाथ बोस पर नजर रखने के निर्देश खुद प्रधानमंत्री नेहरुजी ने दिए थे. नेहरुजी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे देश के प्रधानमंत्री बनने से पहले तो अमिया नाथ बोस के कलकत्ता के 1, बुडवर्न पार्क स्थित आवास में जाते थे. पर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अचानक अमिया नाथ बोस से सारे संबंध तोड़ लिए.

दिल दुखाया नेता जी का

नेताजी जब भी इलाहाबाद जाते थे तो वे नेहरु परिवार के आवास आनंद भवन में जाना कभी भी नहीं भूलते थे. कांग्रेस के 1928 में कलकता में हुए सत्र में भाग लेने के लिए निमंत्रण देने के लिए नेताजी तो खुद ही 'आनंद भवन' पहुंचे थे. उन्होंने मोतीलाल नेहरु और जवाहर लाल नेहरु जी को इसमें भाग लेने का स्वयं न्योता दिया था. नेताजी लगातार नेहरु जी को खत भी लिखते रहते थे. वे नेहरुजी से पारिवारिक मसलों पर भी लगातार पूछताछ किया करते थे. जिन दिनों इंदिरा गांधी अपनी मां कमला नेहरु के पास स्वीट्जरलैंड में थीं, तब नेताजी ने पत्र लिखकर नेहरु जी से पूछा था, 'इंदु (इंदिरा जी के बचपन का नाम) कैसी हैं? वह स्वीटजरलैंड में अकेला तो महसूस नहीं करती?'

नेताजी ने पंडित नेहरु को 30 जून 1936 से लेकर फरवरी 1939 तक लगातार पत्र लिखे. इन सभी पत्रों में नेताजी ने नेहरुजी के प्रति बेहद आदर का भाव दिखाया है. नेहरुजी को लिखे शायद उनके आखिरी खत के स्वर से ऐसे संकेत मिलते हैं कि नेता जी को उस समय तक अच्छी तरह समझ में आ गया था कि वे (नेहरु जी) अब उनसे (नेता जी से) दूरियां बना रहे हैं. ये खत भी कांग्रेस के त्रिपुरी सत्र के बाद ही लिखा गया था. यानी 1939 में. अपने उस 27 पन्नों के खत में वे साफ कहते हैं, 'मैं महसूस करता हूं कि आप (नेहरु जी) मुझे बिल्कुल नहीं चाहते.'

subhash chandra bose, jawahar lal nehruगांधी जी ने भी बोस का साथ छोड़ दिया था

दरअसल, नेताजी इस बात से आहत थे कि नेहरुजी ने 1939 में त्रिपुरी में हुए कांग्रेस के सत्र में उनका बिल्कुल साथ नहीं दिया. नेताजी फिर से दुबारा कांग्रेस के त्रिपुरी सत्र में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे. पर उन्होंने विजयी होने के बाद भी अपना पद छोड़ दिया था. क्यों छोड़ा था, इस तथ्य से सारा देश वाकिफ है. देश को यह भी पता है कि नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में गांधी जी के उम्मीदवार डा. पट्टाभि सीतारामैय्या को करारी शिकस्त दी थी. गांधी जी ने तो त्रिपुरी में यहां तक घोषणा कर दी थी कि 'सीतारामैय्या की हार मेरी हार होगी' नेताजी के दोबारा अध्यक्ष चुने जाने से कांग्रेस में आतंरिक कलह तेज हो गई थी. गांधीजी हरगिज नहीं चाहते थे कि नेताजी फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनें. गांधी की इस राय से नेहरु जी भी पूरी तरह से सहमत थे. तब नेताजी ने अमिया बोस को 17 अप्रैल 1939 को लिखे पत्र में कहा था, 'नेहरु ने मुझे अपने व्यवहार से बहुत पीड़ा पहुंचाई है. अगर वे त्रिपुरी में तटस्थ भी रहते तो पार्टी में मेरी स्थिति बेहतर होती.

नामधारी सिखों के पूजनीय नेताजी

नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारत के उन गिने-चुने नेताओं में हैं, जिन्हें देश के आम-खास सभी तहे-दिल से आदर सम्मान करते हैं. हालांकि स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास लिखने वालों ने उनके योगदान को कमतर करने की भरपूर कोशिशें की हैं. फिर भी उनके प्रति सारा देश कृतज्ञता का भाव रखता है. अब नामधारी सिख बिरादरी को ही ले लीजिए. ये नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने बिरादरी का पूज्य मानती है. लगभग हरेक नामधारी सिख के घर में उनका चित्र टंगा मिलेगा या उनके जीवन से जुड़ी कोई किताब जरूर मिलेगी. नेताजी का जन्म दिन आते ही बुजुर्ग नामधारी नेताजी का स्मरण करने लगते हैं.

नेताजी का नामधारी सिखों से संबंध 1943 के आसपास स्थापित हुआ था. तब नेताजी थाईलैंड में भारत को अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए वहां पर बसे भारतीय समाज के साथ गहन संपर्क कर रहे थे. एक दिन नेताजी का थाईलैंड की नामधारी बिरादरी के प्रमुख सरदार प्रताप सिंह के आवास में जाने का कार्यक्रम बना. वहां पर तमाम नामधारी बिरादरी मौजूद थी. नेताजी ने वहां नामधारी भाईयों से आहवान किया कि वे धन इत्यादि से उनकी मदद करें. ताकि वे गोरी सरकार को उखाड़ फेंक सकें. उसके बाद तो वहां पर मौजूद नामधारी और वहां उपस्थित गैर नामधारी भारतीयों ने धन, गहने और अन्य सामानों का ढेर नेताजी के आगे लगा दिया. यह सब नेताजी ध्यान से देख रहे थे. पर नेताजी को तब कुछ हैरानी हुई जब उनके मेजबान (सरदार प्रताप सिंह) ने उन्हें अंत तक स्वयं कुछ भी नहीं दिया.

नेताजी ने सरदार प्रताप सिंह से व्यंग्य के लहजे में पूछा, 'तो आप नहीं चाहते कि भारत माता गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो?' जवाब में सरदार प्रताप सिंह ने बड़ी विनम्रता से कहा, 'नेताजी, मैं तो इंतजार कर रहा था कि एक बार सारे उपस्थित लोग अपनी तरफ से जो देना है, दे दें. उसके बाद मैं उसके बराबर की रकम आपको अपनी ओर से अकेले ही अलग से दे दूंगा.' यह सुनते ही नेताजी ने सरदार प्रताप सिंह को गले लगा लिया. उस दिन के बाद से नेताजी नामधारियों के भी प्रिय नेता हो गये. आज भी नामधारी सिख बिरादरी दिल्ली से बैंकॉक तक में नेताजी के जन्मदिन पर गोष्ठी और दूसरे कार्यक्रम आयोजित करती है.

श्रमिकों के हितैषी भी

कभी–कभी मुझे इस बात पर हैरानी होती है कि हमारे देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वारा मजदूरों के हक के लिए किए उनके जुझारू संघर्ष पर कभी चर्चा नहीं होती. नेताजी टाटा स्टील मजदूर संघ के साल 1928 से 1937 तक लगातार नौ वर्षों तक प्रेसिडेंट रहे. वे यूनियन की गतिविधियों में बहुत ही सक्रिय थे. वे मजदूरों के अधिकारों को लेकर बहुत ही संवेदनशील रहते थे और उनके मसले लगातार मैनेजमेंट के समक्ष उठाते थे.

subhash chandra bose, jawahar lal nehruमजदूरों के भगवान साबित हुए बोस

टाटा स्टील की यूनियन का गठन 1920 में हुआ था. तब टाटा कंपनी में भारतीय अफसर बहुत ही कम थे. नेताजी ने यूनियन के अध्यक्ष चुने जाने के बाद कंपनी के चेयरमैन एन. बी. सकतावाला को 12 नवंबर 1928 को लिखे अपने एक पत्र में कहा कि, 'कंपनी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये भी है कि कामगार सारे भारतीय हैं. पर इसमें भारतीय अफसर बहुत कम हैं. ज्यादातर अहम पदों पर ब्रिटिश ही हैं.' उन्होंने आगे लिखा कि वे चाहते हैं कि टाटा स्टील का भारतीयकरण हो. इससे यह कंपनी और बुलंदियों पर जाएगी.

नेता जी के पत्र के बाद टाटा स्टील का मैंनेजमेंट चेता और उसने अपना पहला भारतीय जनरल मैनेजर बनाया. नेताजी के आह्वान पर टाटा स्टील में 1928 में एतिहासिक हड़ताल भी हुई. उसके बाद से ही टाटा स्टील में मजदूरों को बोनस मिलना शुरू हुआ. टाटा स्टील इस लिहाज से देश की पहली बोनस देने वाली कंपनी बन गई. इसका श्रेय भी नेताजी को ही जाता है. 1928 में हुई सफल हड़ताल के बाद नेताजी ने टाटा स्टील यूनियन से अपनी दूरियां बना लीं. मैनेजमेंट से मजदूरों के हक में समझौता करने के बाद वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े.

ट्रेड यूनियन के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि नेताजी के प्रयासों के बाद आगे चलकर देश की दूसरी बड़ी कंपनियों ने भी अपने मजदूरों को बोनस देना शुरू कर दिया. जमशेदपुर में मजदूरों का नेतृत्व करने के दौरान नेताजी को दो-दो बार एटक का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुना गया. 21 सितंबर 1931 को जब नेताजी जमशेदपुर टाउन मैदान में मजदूरों द्वारा आयोजित सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. तब उन पर कातिलाना हमला भी किया गया था. अचानक कुछ लोग मंच के ऊपर चढ़ गए. वे नेताजी और मंच पर उपस्थित अन्य लोगों से मारपीट भी करने लगे. लेकिन, निहत्थे मजदूर जब हमलावरों पर भारी पड़ने लगे, तब वे भाग खड़े हुए. हमलावर नेताजी की हत्या की नीयत से आए थे, पर सफल नहीं हुए. इस घटना में कुल 40 लोग घायल हुए थे. टाटा स्टील मजदूर संघ को छोड़ने के बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस देश की आजादी के लिए चल रहे राष्ट्रव्यापी आंदोलन का हिस्सा बन गए और देखते-देखते ही देश में सर्वोच्य लोकप्रिय नेता बन गए.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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