चुनावी गठबंधन को लेकर मायावती कदम बढ़ाने के बाद पीछे क्यों खींच लेती हैं?
कर्नाटक से कैराना तक विपक्ष एकजुट नजर आ रहा था, तभी मायावती ने गठबंधन को लेकर शर्त रख दी है. कहीं इसके पीछे भी वही वजह तो नहीं जिसका खुलासा कुमारस्वामी ने विश्वास मत हासिल करने के बाद विधानसभा में किया.
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उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ दिन पहले ही अनुभव को लेकर चर्चा चल रही थी. असल में ये चर्चा मायावती ने ही शुरू की थी और गठबंधन धर्म निभाने के मामले में अखिलेश यादव को कम अनुभवी बताया था. अखिलेश यादव ने भी इसे स्वीकार किया और मायावती के अनुभव का भविष्य में फायदा उठाने की बात कही.
सियासी तजुर्बे की बातें अलग हैं, लेकिन लगता है गठबंधन को लेकर मायावती के पुराने अनुभव पीछा नहीं छोड़ रहे हैं. मायावती को गठबंधन की राजनीति के बड़े ही खट्टे मीठे अनुभव रहे हैं - बीजेपी से भी और समाजवादी पार्टी से भी. समाजवादी पार्टी से तो इतने बुरे अनुभव रहे कि गेस्ट हाउस कांड को बड़ी मुश्किल से भुलाने की कोशिश कर रही हैं - वो भी तब जब मुलायम सिंह यादव से कमान अखिलेश यादव के हाथ में पहुंची चुकी है.
गठबंधन को लेकर हाल फिलहाल तो मायावती के फैसले ऐसे लग रहे हैं जैसे वो एक कदम आगे बढ़ती हैं - तभी दो कदम पीछे कर लेती हैं. ऐसा मायावती खुद के अनुभवों के चलते कर रही हैं या फिर किसी तरह का डर या दबाव है?
गठबंधन पर मायावती का स्टैंड
कर्नाटक से गठबंधन की गाड़ी कैराना पहुंच तो गयी लेकिन उससे आगे ग्रीन सिग्नल मिलेगा या नहीं निश्चित नहीं लग रहा. कैराना में वोटिंग से पहले हुई बीएसपी की मीटिंग में मायावती ने साफ तौर पर कह दिया कि 2019 के लिए गठबंधन पक्का नहीं हुआ है. मायावती ने करीब करीब ऐसा ही बयान गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों के लिए समाजवादी पार्टी के साथ हुए समझौते को लेकर भी दिया था.
गठबंधन को लेकर मायावती का ये स्टैंड सिर्फ यूपी के मामले में ही है. कर्नाटक में तो मायावती ने जेडीएस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया और अब तो उनका एक नेता भी विधानसभा पहुंच चुका है.
ऐसी कोई गठबंधन की शर्त नहीं होती!
कर्नाटक में कुमारस्वामी के मौके पर विपक्षी नेताओं की जमघट के बीच जिस तस्वीर ने लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान खींचा वो सोनिया और मायावती की ही रही. दोनों नेता बड़े ही खुशमिजाज लग रहे थे. कर्नाटक की एकजुटता का सीधा असर कैराना में देखने को मिला जब बीजेपी के खिलाफ सारे राजनीतिक दल एक दूसरे का हाथ पकड़ कर खड़े हो गये. यहां तक कि आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह और भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण ने भी विपक्ष की साझा उम्मीदवार तबस्सुम हसन के पक्ष में वोट करने की अपील की.
फूलपुर और गोरखपुर में तो बीएसपी कार्यकर्ताओं ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए घर घर जाकर वोट मांगे थे, लेकिन कैराना को लेकर मायावती ने ऐसा करने से पहले ही इंकार कर दिया था. हो सकता है राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार के हार जाने के चलते ऐसा किया हो. हालांकि, विधान परिषद के चुनाव में अखिलेश यादव ने उसकी भरपाई कर दी थी.
अखिलेश के साथ मायावती की मुलाकात दिल्ली में सोनिया गांधी के लंच पर हुई तो चर्चा रही कि जल्दी ही दोनों सार्वजनिक रूप से मंच साझा कर सकते हैं. उसी वक्त लालू प्रसाद की पटना रैली की रूप रेखा भी तैयार हो रही थी और उसमें भी दोनों का हिस्सा लेना तय हुआ था. रैली में अखिलेश यादव तो पहुंचे लेकिन मायावती ने दूरी बना ली. रैली से दूर तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी रहे, लेकिन वहां उनके लिखे भाषण पढ़े जरूर गये.
वैसे मायावती ने किसी तरह का गठबंधन न करने जैसी बात तो नहीं कही है, लेकिन उसमें सीटों के सम्मानजनक बंटवारे की शर्त जरूर रख दी है. अब कितनी सीटें सम्मानजनक होतीं हैं ये किसी विधानसभा में बहुमत के जादुई आंकड़े जैसा तो है नहीं. ऐसा लगता है जैसे मायावती ने पहले से ही सेफ-एग्जिट का उपाय खोज लिया है.
कोई 'तोता' डराता तो नहीं!
बीते बरसों में ऐसी चर्चा अक्सर होती रही है कि मायावती और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को केंद्र की सत्ताधारी पार्टी सीबीआई के चाबुक से नचाती रही है. बिहार चुनाव से मुलायम के हटने और विपक्ष के बहिष्कार के बावजूद पूरे परिवार के साथ लोक सभा में बैठे रहने को भी ऐसी ही बातों से जोड़ कर देखा जाता रहा. पिछली बार भी जब सीबीआई ने मायावती को पूछताछ के लिए नोटिस भेजा तो बीएसपी नेता भी केंद्र पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग को लेकर जम कर बरसी थीं.
गठबंधन के भी साइड इफेक्ट्स होते हैं...
एक ताजा खुलासे के कारण ये बातें एक बार फिर प्रासंगिक लगने लगी हैं. कर्नाटक में विधायकों की खरीद फरोख्त के आरोप-प्रत्यारोप के बीच कुछ ऑडियो टेप भी कांग्रेस की ओर से रिलीज किये गये थे. कांग्रेस ने विधायकों को रिजॉर्ट पहुंचाने के साथ ही मोबाइल में ऑटो-कॉल रिकॉर्डिंग ऐप डाउनलोड कर लेने के लिए कहा - और फोन पर हुई बातचीत को बाद में सार्वजनिक किया. ऑडियो सही थे या गलत ये तो जांच का मामला है, लेकिन जो हालात थे उसमें कुछ भी संभव हो सकता है - कौन जानें? ताजा खुलासा भी एचडी कुमारस्वामी ने तब किया जब मुख्यमंत्री पद की शपथ के बाद सदन में विश्वास मत हासिल कर लिया.
कुमारस्वामी ने इकनॉमिक टाइम्स को बताया “ईडी के अधिकारी की ऐसी सीधी धमकी मैंने खुद फोन पर रिसीव की. कांग्रेस के साथ मुझे सरकार बनाने से रोकने का ये उनका तरीका है. मैंने बोल दिया जो करना चाहो कर लो...”
कर्नाटक विधान सौध में भी कुमारस्वामी ने ऐसी ही बात कही थी, "एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट के एक अधिकारी ने मुझे कॉल किया और कहा - अगर आप उनके साथ जाते हैं तो 'मलेशिया में जो आपकी प्रॉपर्टी है', उसे लेकर वे केस दर्ज करने जा रहे हैं."
ये सारे वाकये एक बार फिर उन्हीं बातों की ओर इशारा कर रहे हैं कि जो कुमारस्वामी के साथ हुआ कहीं मायावती के मामले में भी तो नहीं हो रहा है. सर्वे और रिपोर्ट तो बता ही रहे हैं कि विपक्ष की एकजुटता से बीजेपी को 2019 में कितना नुकसान हो सकता है. सबसे ज्यादा नुकसान की संभावना भी यूपी से ही बतायी जा है.
गठबंधन को लेकर पीछे हटने के साथ ही मायावती का एक और कदम भी ऐसी ही आशंकाओं की कड़ी से जुड रहा है. मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी का अध्यक्ष बनाया था. तब आनंद भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते विवादों में भी थे. मायावती के विरोधियों का कहना रहा कि बीएसपी नेता ने भाई को एजेंसियों से बचाने के लिए ऐसा किया है. पार्टी पदाधिकारी बन जाने के बाद अगर कोई कार्रवाई होती तो उसे राजनीति से प्रेरित बताया जा सकता था, अन्यथा सामान्य तौर पर ऐसी हालत में किसी आम कारोबारी के खिलाफ एक्शन जैसी बात होती.
अब मायावती ने आनंद कुमार को हटा दिया है. हालांकि, मायावती का कहना है कि ऐसा फैसला उन्होंने इसलिए लिया क्योंकि बीएसपी में भी कांग्रेस जैसी परिवारवाद की बातें चलने लगी थीं. करीबियों और रिश्तेदारों को लेकर उनके पास सिफारिशें आने लगी थीं. मायावती ने कार्यकर्ताओं से भी साफ कर दिया कि उनके बाद बीएसपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष उनके परिवार का कोई नहीं होगा - और वैसे भी इस बारे 20-22 साल आगे तक तो कोई सोचे भी नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार सीबीआई को 'पिंजरे का तोता' कहा था, लेकिन कुमारस्वामी की बातों से तो ऐसा लग रहा है कि उस भूमिका में प्रवर्तन निदेशालय या आयकर अफसरों को भी शामिल किया जाने लगा है. गठबंधन को लेकर मायावती को फिर से उधेड़बुन में ला देने के पीछे कोई 'तोता' ही तो नहीं है?
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