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Updated: 26 मई, 2022 06:29 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कपिल सिब्बल (Kapil Sibal) ने कांग्रेस तो छोड़ दिया, लेकिन समाजवादी पार्टी ज्वाइन करने के बजाय सिर्फ लिव-इन पॉलिटिक्स के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया. पेशे से वकील कपिल सिब्बल ने ये सब काफी सोच समझ कर ही तय किया होगा.

ये समझना फिलहाल थोड़ा मुश्किल लगता है कि नये गठजोड़ से ज्यादा फायदा अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को हुआ है या कपिल सिब्बल को, लेकिन ये तो पक्का है कि दोनों ही पक्षों के लिए सौदा तो फायदे का ही है.

जैसे नया क्लाइंट और प्रोफेशनल फीस मिली हो: हो सकता है कांग्रेस (Congress) को कपिल सिब्बल की जरूरत नहीं रही होगी. जरूरत इसलिए नहीं क्योंकि कांग्रेस की कानूनी लड़ाइयां खत्म हो गयी हैं. कांग्रेस की लीगल टीम काफी बड़ी है और कपिल सिब्बल तो एक सदस्य भर थे. कांग्रेस के पास अब भी अभिषेक मनु सिंघवी, पी. चिदंबरम और सलमान खुर्शीद जैसे सीनियर वकील नेता हैं. पी. चिदंबरम की तो इतनी डिमांड है कि वो कांग्रेस के खिलाफ ही ममता बनर्जी तक का केस लड़ने कोलकाता पहुंच जाते हैं.

हां, समाजवादी पार्टी को जरूर एक ऐसे वकील की जरूरत अरसे से रही है. जैसे बीएसपी के पास सतीशचंद्र मिश्रा हैं, जो सुप्रीम कोर्ट सहित तमाम अदालतों में बीएसपी नेता मायावती के लिए कानूनी मोर्चा संभाले रहते हैं.

लालू यादव की पार्टी आरजेडी ने भी ऐसी ही कोशिश की थी, अपने जमाने के जाने माने वकील राम जेठमलानी को राज्य सभा भेज कर. हालांकि, लालू यादव को चारा घोटाला केस में कोई खास फायदा नहीं मिल पाया था.

वैसे सिब्बल ने एक तकनीकी एहतियाती इंतजाम जरूर कर रखा है. वो समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट के तौर पर राज्य सभा नहीं जा रहे हैं. कपिल सिब्बल ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार नामांकन दाखिल किया है - और समाजवादी पार्टी सिर्फ सपोर्ट कर रही है.

ये बात अलग है कि नामांकन के मौके पर चाचा रामगोपाल यादव के साथ अखिलेश यादव की मौजूदगी अलग ही संदेश दे रही थी. समाजवादी पार्टी को दिल्ली में राम गोपाल यादव के साथ एक और मजबूत सपोर्ट मिल गया है - कपिल सिब्बल के रूप में जो दिल्ली की राजनीति में मददगार साबित हो. मुलायम सिंह यादव की सक्रियता कम हो जाने के बाद समाजवादी पार्टी के लिए ये मुश्किल जरूर खड़ी हो गयी थी.

मोटे तौर पर देखा जाये तो कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर के इर्द-गिर्द सुनील जाखड़ और हार्दिक पटेल वाले रास्ते पर चलते हुए कपिल सिब्बल ने भी इस्तीफा दे दिया है, लेकिन असल वजह कुछ और लगती है - कुछ ऐसे, जैसे G-23 के नेता भी निराश करने लगे हों. सबसे महत्वपूर्ण बात सरवाइवल के लिए एक राज्य सभा जैसा एक मंच भी तो जरूरी था - और वो तो कांग्रेस में रहते मिलने से रहा. जैसा गुलाम नबी आजाद के साथ हुआ. उदयपुर के नव संकल्प चिंतन शिविर के बाद अगर गुलाम नबी आजाद के साथ कुछ अच्छा होता है तो बात और है.

ऐसा लगता है जैसे कपिल सिब्बल को चिंतन शिविर में G-23 के नेताओं के रुख ने निराश किया हो. बुलावा तो कपिल सिब्बल को भी था, लेकिन हार्दिक पटेल की तरह वो भी चिंतन शिविर से दूर ही रहे. हार्दिक पटेल तो गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे, लेकिन कपिल सिब्बल को तो कभी भी ऐसा कोई ओहदा मिला भी नहीं - और कभी कभार उनके मुंह से शिकायती लहजे में ये निकल भी पड़ता था.

लेकिन बगैर किसी ओहदे के भी कपिल सिब्बल अपने निजी डिनर पर राहुल गांधी से ज्यादा नेताओं को बुलाने की हैसियत तो रखते ही हैं - और साबित भी कर चुके हैं. कपिल सिब्बल अपने राजनीतिक कॅरियर के जिस मोड़ पर पहुंच चुके हैं, उनको किसी राजनीतिक दल के बैनर की बहुत जरूरत भी नहीं थी. वैसे भी कांग्रेस की वजह से कपिल सिब्बल को फायदे की जगह नुकसान ही हो रहा था. जब भी बीजेपी नेता राम मंदिर को लेकर कांग्रेस पर हमला बोलते, कपिल सिब्बल का ही नाम उछलता. राम मंदिर निर्माण के रास्ते में बाधा पहुंचाने वाले नेता के रूप में. बीजेपी नेता अक्सर ही सुप्रीम कोर्ट से कही गयी कपिल सिब्बल की बातें याद दिलाने लगते.

kapil sibal, sonia gandhi, akhilesh yadavये कैसे कपिल सिब्बल और अखिलेश यादव साथ साथ हं?

कपिल सिब्बल ने जो नयी राह पकड़ी है, बीजेपी नेताओं के निशाने से तो वैसे भी नहीं बचने वाले लेकिन एक नयी ताजगी तो महसूस कर ही सकते हैं - और शायद इसीलिए कपिल सिब्बल आने वाले दिनों में खुद को एक एक्टिव राज्य सभा सांसद के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं.

कपिल सिब्बल की चुप्पी का राज क्या है?

कपिल सिब्बल ने कांग्रेस तो पूरी तरह मोहभंग होने के बाद ही छोड़ी होगी. सवाल ये उठता है कि कपिल सिब्बल का मोहभंग किससे हुआ है - कांग्रेस पार्टी से, गांधी परिवार से या फिर पार्टी के अंदर उभरे बागी G-23 के ताजा रवैये से?

कपिल सिब्बल बताते हैं कांग्रेस छोड़ने से पहले वो सोनिया गांधी से मिलने भी गये थे. सिब्बल के मुताबिक, सोनिया गांधी का उनके प्रति व्यवहार सद्भावपूर्ण रहा. सिब्बल का ये भी कहना है कि कांग्रेस से इस्तीफा देना इतना आसान नहीं था. बात में दम तो है. किसी भी संस्थान से कोई छोटा कर्मचारी भी रिटायर होता है या किसी खास परिस्थितिवश उसे अलग होना पड़ता है, तकलीफ तो होती ही है. कपिल सिब्बल के बताये बगैर भी भावनाओं को समझा जा सकता है, भले ही संस्थान को ऐसी बातों से कोई फर्क न पड़ता हो.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी ज्वाइन कर लेने के बाद जब सचिन पायलट और अशोक गहलोत का विवाद सड़क पर आ पहुंचा था, तो कपिल सिब्बल के एक ट्वीट की काफी चर्चा रही. कपिल सिब्बल कवि भी हैं और उनकी अंग्रेजी कविताओं का एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है - 'आई विटनेस'. एक पोस्ट में कपिल सिब्बल ने उसी अंदाज में लिखा भी, 'अपनी पार्टी के लिए चिंतित हूं... क्या हम तभी जाग पाएंगे जब हमारे अस्तबल से घोड़े भाग जाएंगे?'

ये कपिल सिब्बल ही हैं जो सरेआम पूछ बैठे थे कि कांग्रेस में फैसले कौन ले रहा है? क्योंकि कांग्रेस के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष तो है ही नहीं. कपिल सिब्बल के कहने का मतलब रहा कि अंतरिम अध्यक्ष होने के नाते सोनिया गांधी को भी बड़े फैसलों के लिए CWC की मंजूरी जरूरी होती, जबकि पंजाब कांग्रेस को लेकर धड़ाधड़ फैसले लिये जा रहे थे.

जब कपिल सिब्बल ने ये सवाल पूछा था, तब कांग्रेस में ऐसे कुछ फैसले लिये गये थे जो रणनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण रहे. मसलन, कैप्टन अमरिंदर सिंह से इस्तीफा मांग लिया जाना, सुनील जाखड़ को हटाकर नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का प्रधान बना दिया जाना - और तमाम दावेदारों को किनारे कर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया जाना.

ये तभी की बात है जब भाई-बहन की जोड़ी को कांग्रेस में नयी लीडरशिप के तौर पर देखा जाने लगा था - और वैसे भी कांग्रेस के भीतर और बाहर हर कोई महसूस भी कर रहा था कि पंजाब से जुड़े सारे फैसले राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा मिल कर ले रहे थे, अंतरिम अध्यक्ष होने के नाते सोनिया गांधी तो बस बच्चों की बात मानते हुए दस्तखत कर दिया करती थीं.

और कपिल सिब्बल का सवाल इतना दमदार और असरदार रहा कि CWC की मीटिंग बुलाकर सोनिया गांधी को कहना पड़ा था - मैं ही फैसले ले रही हूं. मीटिंग में सोनिया गांधी ने कहा था कि अगर मुझे कुछ कहने की अनुमति हो तो मैं कहना चाहूंगी कि मैं ही अध्यक्ष हूं और सारे फैसले भी मेरे ही हैं. कोई कर भी क्या सकता था. CWC के सदस्य चुपचाप सुन लिये जो सबके लिए दिये गये बयान का संदेश था, समझ भी गये.

कपिल सिब्बल के सवाल पूछने के बाद ही G-23 नेताओं की तरफ से CWC की मीटिंग बुलाये जाने की मांग भी हुई थी - और ये डिमांड ऐसी रही कि सोनिया गांधी ने उनकी चिट्ठियों की तरह टालने की कोशिश भी नहीं की.

कपिल सिब्बल ऐसे ही तीखे सवाल पहले भी पूछते रहे. 2020 के बिहार चुनाव सहित ज्यादातर चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर को लेकर भी कपिल सिब्बल की टिप्पणी एक जैसी ही सुनने को मिली थी - कांग्रेस नेतृत्व को तो जैसे हारने की आदत पड़ चुकी है.

हालांकि, कांग्रेस छोड़ देने के बाद काफी कुरेदने पर भी कपिल सिब्बल कुछ भी नहीं बोल रहे हैं. ये थोड़ा अजीब भी लगता है. जो नेता कांग्रेस की हर फजीहत का खुलेआम मजाक उड़ाता रहा हो. बात बात पर सीधे गांधी परिवार को टारगेट करता रहा हो, वो कांग्रेस से इस्तीफा देते ही खामोश हो जाये.

ये बात इसलिए भी अजीब लगती है क्योंकि सुनील जाखड़ और हार्दिक पटेल दोनों ही कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाये हुए हैं. सुनील जाखड़ तो बीजेपी के हो भी चुके हैं, लेकिन हार्दिक पटेल तो अब भी कपिल सिब्बल वाला स्टेटस ही शेयर कर रहे हैं. फिर भी दोनों के स्टैंड में फर्क क्यों है?

क्या ऐसा इसलिए क्योंकि कपिल सिब्बल गांधी परिवार के वकील भी रहे हैं? नेशनल हेराल्ड केस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए जमानत अर्जी कपिल सिब्बल ने ही दाखिल की थी - और RSS के मानहानि वाले केस को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी पैरवी की थी. एक वकील का अपने क्लाइंट के साथ पेशेवर कमिटमेंट होते हैं, जो सुनील जाखड़ और हार्दिक पटेल पर लागू नहीं होते. तभी तो हार्दिक पटेल बातों बातों में ही बता डालते हैं कि कैसे चिकन सैंडविच राहुल गांधी की कमजोरी है - और कपिल सिब्बल ऐसी वैसी कोई भी बात नहीं करते, जबकि हार्दिक पटेल के मुकाबले तो कपिल सिब्बल बड़े राजदार होंगे.

सिब्बल क्या क्या करने वाले हैं?

कपिल सिब्बल ने अपनी नयी पारी में मददगार बनने के लिए अखिलेश यादव के साथ साथ आजम खान का भी आभार जताया है. स्वाभाविक भी है. आजम खान ही तो अखिलेश यादव और कपिल सिब्बल के बीच कनेक्टिंग लिंक हैं.

अखिलेश यादव और आजम खान के बीच कपिल सिब्बल के आ जाने से तीनों को मनमाफिक फायदा हुआ है. आजम खान को जेल से निकलने के लिए एक अच्छे वकील की जरूरत थी, कपिल सिब्बल उम्मीदों पर खरे उतरे. अखिलेश यादव को आजम खान सहित मुस्लिम विधायकों की नाराजगी दूर करने के लिए जो महती जरूरत थी, कपिल सिब्बल उसमें भी पूरी तरह फिट हो गये - और बदले में कपिल सिब्बल को राज्य सभा के लिए एक नया सपोर्ट सिस्टम भी मिल गया, जिसके साथ उनको फ्रीलांस से ज्यादा आगे का कॉन्ट्रैक्ट भी नहीं करना पड़ा.

नयी पारी के साथ कपिल सिब्बल ने अपने राजनीतिक भविष्य का जो संकेत दिया है, ऐसा नहीं लगता है कोई बहुत फर्क पड़ने वाला है. पहले की ही तरह बीजेपी ही उनके निशाने पर होगी - और कांग्रेस पर चुप्पी साध कर एक संकेत ये भी दे दिया है कि वो किसी गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी फोरम के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं. ऐसे फोरम की पहल तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने की है - और उस राह पर वो आगे बढ़ रहे हैं.

कपिल सिब्बल का कहना है कि वो विपक्ष में रह कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार का विरोध जारी रखना चाहते हैं. कपिल सिब्बल का मानना है, एक निर्दलीय आवाज उठेगी तो लोगों को ऐसा लगेगा कि वो किसी पार्टी से नहीं जुड़े हुए हैं - लेकिन ये कपिल सिब्बल की बड़ी गलतफहमी है.

समाजवादी पार्टी का सपोर्ट लेने के साथ ही कांग्रेस के प्रति चुप्पी साध कर वो लोगों को कन्फ्यूज करने की कोशिश कर रहे हैं तो गलती कर रहे हैं. लोग तो ये मानेंगे कि वो समाजवादी पार्टी भले न ज्वाइन किये हों, लेकिन कांग्रेस को भी मन से नहीं छोड़ा है. अगर यही बात समाजवादी पार्टी के समर्थकों के मन में भी आ गयी, तो वे भी दूरी बना सकते हैं.

कपिल सिब्बल चाहते हैं कि 2024 में ऐसा माहौल बने कि मोदी सरकार की खामियों को जनता तक पहुंचाया जा सके और ऐसी ही उनकी अपनी तरफ से कोशिश भी होगी, लेकिन सवाल ये भी है कि जब राहुल गांधी चीख चीख कर 2019 में 'चौकीदार चोर है' का नारा लगाकर भी कुछ नहीं कर पाये तो अखिलेश यादव का हाथ थामे कपिल सिब्बल 2024 में क्या कुछ कर पाएंगे?

जिस तरह की बातें कपिल सिब्बल कर रहे हैं, शरद पवार पहले से ही वो सब कर रहे हैं. सवाल ये भी है कि क्या कपिल सिब्बल शरद पवार जितने प्रभावी हो सकेंगे? विपक्षी खेमे के लिए शरद पवार और कपिल सिब्बल दोनों का सबसे मजबूत पक्ष यही है कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, लिहाजा किसी को भी उनसे बात करने में कोई खतरा महसूस नहीं होगा.

शरद पवार का अपना लंबा राजनीतिक अनुभव संसार है - और हर पार्टी के नेताओं से शरद पवार के व्यक्तिगत संबंध हैं. हो सकता है, कपिल सिब्बल शरद पवार जितने प्रभावी न हों, लेकिन क्या प्रशांत किशोर से भी कमजोर पड़ेंगे?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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