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Updated: 19 मार्च, 2022 12:49 PM
नाज़िश अंसारी
नाज़िश अंसारी
  @naaz.ansari.52
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फायनली, कर्नाटक हाई कोर्ट ने हिजाब मुद्दे पर सभी याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि 'हिजाब' इस्लाम धर्म का हिस्सा नही है. इसलिये यह अनिवार्य नहीं है. पहले तो यह समझिये बुर्क़ा और हिजाब दो अलग पहनावे हैं. हिजाब यानी स्कार्फ जो सिर्फ सिर को ढकता है. बुर्क़ा में स्कार्फ के साथ गले से पैर तक काले या दूसरे और भी रंग का एक लबादा भी होता है जो पूरे शरीर को ढकता है. क़ुरान में पहले मर्द के पहनावे का ज़िक्र किया गया. फिर औरत के लिये बाहर जाते वक़्त एक बड़ी सी चादर से जिस्म को ढकने की बात कही गयी. कुरान में पर्दे का कांसेप्ट है. किस तरह? यह साफ़ नहीं. इसलिये बुर्क़ा, हिजाब, चादर या इसके बिना भी मुसल्मान औरतों को देखा जा सकता है. जिसने पहना उसे अवार्ड नहीं मिलता. जो नहीं पहनता उसके खिलाफ फतवा भी नहीं.कर्नाटक कोर्ट ने फैसला क़ुरान के हवाले से दिया है. हां, लफ्ज़ बुर्क़ा क़ुरान में नहीं है लेकिन सर के ढकने की बात इस हद्द तक है कि एक भी बाल ना दिखे.

Hijab, Karnataka, Karnataka High Court, Verdict, Muslim, Women, Girls, Schoolहिजाब मामले में कर्नाटक हाई कोर्ट को नारी स्वालंबन में एक और अध्याय जोड़ते हुए फैसला औरतों लड़कियों की मर्ज़ी पर छोड़ना था

अगर कोर्ट ने फैसला देते वक़्त कुरान को ध्यान में रखा है तो बुर्क़ा और हिजाब को अलग अलग रखते हुए फैसला देना था. क्यूंकि हिजाब (स्कार्फ) का निषेध पगड़ी, सिर पर दुपट्टा, स्कल कैप का भी निषेध होगा. होना चाहिए. लेकिन इन्हें धार्मिक प्रतीक चिन्ह बताते हुए संविधान द्वारा दिये नागरिको के मौलिक अधिकार के तहत संरक्षित किया जाएगा.

लगे हाथ यह भी तय हो जाने दीजिए, क्या इस फैसले के बाद कोर्ट यह सुनिश्चित करेगी कि बुर्का पहनने वाली तमाम औरतों को बुल्लिंग, टीज़िंग, हूटिंग, इशारेबाज़ी, और उन कुटिल मुस्कानो का सामना नहीं करना पड़ेगा जो आंखों ही आंखों से उन्हें जाहिल, निरक्षर, लड़ाका, गुलाम कहती समझती रही हैं.

(बुर्के वाली औरतों के लिए यह भी एक पूर्व धारणा है. लेकिन जब प्रधानमंत्री ही अपराधी की पहचान कपड़ों से कर रहे हो तो कहा भी क्या जा सकता है) जब यह मुद्दा उठा तब सरकार, हिंदुत्ववादी संगठन और सोशल मीडिया सब इस्लाम को मध्ययुगीन कट्टर मज़हब कह रहे थे जो औरतों की आज़ादी के खिलाफ़ है.

जो अपनी औरतों को पढ़ने नहीं देता. बाहर नहीं निकलने देता. बच्चे पैदा करने की मशीन समझता है. जब मन में आए तलाक देकर दूसरी शादी कर लेता है. धर्म को लेकर मरने मारने पर उतारू रहता है. जबकि कोर्ट का दिया फैसला इस पक्ष में जाता है कि इस्लाम धर्म कट्टर नहीं है. इसमें महिलाओं को बिना पर्दा रहने को छूट है.

क्योंकि कोर्ट कह रहा 'हिजाब इस्लाम की धार्मिक रीति का हिस्सा नहीं है, इसलिए ये अनिवार्य नहीं है.' यानी अगर धर्म में होता तो अनिवार्य होता. फिर उन लड़कियों को भी जबरिया ओढ़ाया जाता जो पहनना नहीं चाहतीं. यह फैसला एक तरह से औरतों को धार्मिक जकड़न से आज़ाद करने की बजाय उसमें और बांधने वाला है. यह अप्रत्यक्ष रूप से कह रहा है कि वीमेन्स डे वाली सारी बातें अखबारों, सूक्तियों, ऑनलाइन शॉपिंग सेल तक ही सीमित हैं.

माय बॉडी माय चॉइस... यह क्या होता है? फालतू चकल्लस ना लड़ाओ. जितना धर्म में लिखा है, बस उतना ही करो. बड़ी भोली हो. समझती ही नहीं, 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' एक वाक्य नहीं झुनझुना है जो महिला सशक्तिकरण का दम भरने वाली औरतों को बहलाने के लिये दिया गया है.

होना तो यह चाहिये था कि नारी स्वालंबन में एक और अध्याय जोड़ते हुए फैसला औरतों लड़कियों की मर्ज़ी पर छोड़ना था. जैसा कि तमाम नारीवादी संगठन कहते रहे थे. तमाम मुसलमानों ने खुद को मोडर्न साबित करते हुए तर्क दिया था कि हम अपनी औरतों के साथ जबरदस्ती नहीं करते हैं. हिजाब या बुर्का पहनना ना पहनना उनका निजी मसला है.

औरतों की आज़ादी से उठा मसला धर्म को सर्वोपरि रखकर खत्म हुआ. इस तरह कोर्ट ने पितृसत्ता को और मज़बूत किया. लेकिन हैरानी इस बात की ज्यादा है की इस्लाम को मध्युगीन कट्टरता का संवाहक कहने वाले जानबूझकर या अनजाने उस मध्ययुगीन कट्टरता की तरफ लौटते दिख रहे हैं जिसका अब तक विरोध करती रहे है.

मामला सरकारी संस्थान में ड्रेस कोड फॉलो करने का था. होना भी चाहिये. सिर्फ आँख खुली होने वाले बुर्क़े में टीचर और स्टुडेंट के बीच कम्यूनिकेशन इश्यू तो है ही. तिस पर चेहरे का ढकना फ़र्ज़ भी नहीं. वाजिब है. कोर्ट ने क्लियर नहीं किया हिजाब (सिर्फ स्कार्फ) बैन है या समूचा बुर्क़ा.

बाक़ी धार्मिक प्रतीक चिन्हों को नागरिको के मौलिक अधिकार के तहत संरक्षित किया जाएगा. हिजाब धर्म से बाहर की चीज़ है तो बहस खत्म. सुप्रीम कोर्ट इससे कोई अलग फैसला देगी, गुंजाइश कम है. जिसे बेटियों को पढ़ाना होगा, पढ़ाएगा. ना पढ़ाने वालों के लिये धर्म महत्वपूर्ण है ही. लेकिन याद रखियेगा क़ुरान का पहला लफ्ज़ 'इक़रा' (पढ़ो) है. और बुर्क़े का विपरीत बिकनी नहीं होता.

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लेखक

नाज़िश अंसारी नाज़िश अंसारी @naaz.ansari.52

लेखिका हाउस वाइफ हैं जिन्हें समसामयिक मुद्दों पर लिखना पसंद है.

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