Kashmir election: आतंकियों की आजादी बनाम अब्दुल्ला की ऑटोनोमी
कश्मीर के लिए जितना फिजूल है आजादी का राग, उतनी ही उलझी है कश्मीर चुनाव को लेकर अब्दुल्ला की ऑटोनोमी की बात, और उसका वादा.
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करीब 6 महीने पहले जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी के गठबंधन वाली सरकार गिर गई थी और राज्य में राज्यपाल शासन लागू हो गया था. अब 6 महीने पूरे होने पर राज्यपाल सत्यपाल मलिक की सिफारिश पर जम्मू-कश्मीर में 22 साल बाद एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है. इस मौके का फायदा उठाते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने सियासी दाव खेला है. अब्दुल्ला ने कहा है कि अगर उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस सत्ता में आती है तो वह तीनों क्षेत्रों जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में स्वायत्तता प्रदान करेंगे. हालांकि, ये नहीं बताया कि स्वायत्तता के मायने उनके लिए क्या हैं.
कश्मीर के लिए जितना फिजूल आए दिन आजादी का राग अलापना है, अब्दुल्ला की स्वायत्तता की बात भी उतनी ही उलझी है. इसमें कोई दोराय नहीं है कि यह सब सिर्फ कश्मीर चुनाव के मद्देनजर मतदाताओं को खुश करके उनका वोट हासिल करने के लिए किया जा रहा है. कश्मीर यूं ही दुनिया की सबसे पेंचीदा समस्या नहीं है, बल्कि जो भी कश्मीर को हक दिलाने या आजादी दिलाने या भले ही स्वायत्तता की बात करता हो, उनमें से किसी के भी पास कश्मीर को लेकर कोई डिजाइन नहीं है, जो ये बता सके कि कश्मीर का भविष्य कैसे निर्धारित किया जाने वाला है.
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने स्वायत्तता की बात कर के सिर्फ एक सियासी दाव खेला है.
देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर पर चौतरफा हक जताने की बात होती है, लेकिन किसी के पास इसके भविष्य को संवारने का कोई प्लान नहीं है. आइए जानते हैं कैसे-
पहला पाकिस्तान, जो कंफ्यूज है
इस लिस्ट में पहला नाम तो पाकिस्तान का ही है, जो आए दिन जम्मू-कश्मीर के लोगों की भारत से भी अधिक परवाह करने का दावा करता रहता है, लेकिन कभी अपने दावे के प्रमाण नहीं दे पाता. अगर ये समझा जाए कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर को आजाद देखना चाहता है, तो ऐसा बिल्कुल नहीं है. ये सिर्फ गुमराह करने वाली बात होगी. जम्मू-कश्मीर में अगर जनमत संग्रह कराना होगा, तो संयुक्त राष्ट्र के नियम के मुताबिक सबसे पहले तो भारत और पाकिस्तान को अपनी-अपनी सेना हटानी होगी, जिसके लिए पाकिस्तान किसी कीमत पर राजी नहीं होगा.
दूसरा है भारत, जो विरोध झेल रहा है
अगर कश्मीर में भारत की स्थिति देखी जाए तो घाटी का एक बड़ा तबका भारतीय सेना के खिलाफ है. भारत के पास भी इस समस्या से निपटने के लिए कोई खास प्लान नहीं है. सेना के दम पर भारत भी कश्मीर में पैर जमाए है. वहां के लोगों की मांगें भी भारत सरकार पूरी नहीं कर पा रही है.
तीसरे नंबर पर हैं अलगाववादी और आतंकी
जब बात अलगाववादी या आतंकियों की होती है, तो सामने आता हिंसा का मंजर. ये वो लोग हैं जो बंदूक की नोक पर जम्मू-कश्मीर की आजादी की बात करते हैं. जनता का एक बड़ा हिस्सा भी उनकी बातों में आ जाता है, लेकिन पूरी दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें बंदूक के सहारे किसी देश का भविष्य बना हो. ये अलगाववादी और आतंकी जम्मू-कश्मीर को स्वर्ग से जहन्नुम बना देंगे.
चौथा और सबसे अहम है यहां का प्रशासन
प्रशासन से यहां मतलब है नेताओं और राजनीतिक पार्टियों से. हर राजनीतिक पार्टी जनता को तरह-तरह के सपने दिखाती है और वोट बटोरने की कोशिश करती है, लेकिन भविष्य का कोई रोडमैप उनके पास भी नहीं है. सिर्फ सत्ता में आने भर के लिए कुछ प्रलोभन दिए जाते हैं, जैसे इस बार फारूक अब्दुल्ला ने दिया है.
अब्दुल्ला के बयान से ये समझ नहीं आता कि आखिर स्वायत्तता का क्या मतलब है? क्या वो उसी आजादी की बात कर रहे हैं, जो अलगाववादी और आतंकी आए दिन मांगते हैं? या फिर उनका ये बयान सिर्फ एक चुनावी मोहरा भर है? अगर अब्दुल्ला सिर्फ राजनीतिक फायदा पाने के लिए स्वायत्तता की बात कर रहे हैं तब तो ठीक है, वरना इससे कुछ हासिल नहीं होगा, बल्कि सब कुछ बिगड़ ही जाएगा.
अगर जम्मू-कश्मीर की बात करें तो वहां सिर्फ डिफेंस और टेलिकम्युनिकेशन पर भारत सरकार का कंट्रोल है, इसके अलावा सब कुछ स्वायत्तता जैसा ही तो है. विधानसभा उनकी अपनी है, कानून उनका अपना है, पूरे देश से अलग वहां पर प्रॉपर्टी या रिसोर्सेस खरीदने-बेचने के अपने नियम कायदे हैं. इन सबमें तो भारत सरकार कोई दखल नहीं देती है. अब अब्दुल्ला के बयान से कई सवाल खड़े हो गए हैं. क्या अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर में तैनात सेना को हटाने की बात कर रहे हैं? या वह चाहते हैं कि सरकारी अमले में जो आईएएस अधिकारी तैनात हैं वह भी जम्मू-कश्मीर के ही सदस्य हों? पूरे देश से अलग जम्मू-कश्मीर का अपना अलग कानून है, जिसे वहीं की विधानसभा से पारित क्या गया है तो फिर अब्दुल्ला आखिर चाहते क्या हैं? देखा जाए तो अब्दुल्ला की स्वायत्तता की बात सिर्फ चुनावी जुमला भर लगती है, जिसका मकसद सिर्फ मतदाताओं को लुभाना भर है.
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