Kashmiri Pandits को घाटी-वापसी की सलाह देने वालों को ये 7 बातें जान लेनी चाहिए
ये कहने वालों की भी कोई कमी नहीं है कि अब कश्मीरी पंडित (Kashmiri Pandits) अपने पुराने घर लौटना चाहिए, लेकिन अभी भी कुछ बातें हैं, जिन पर नजर डालेंगे तो समझ आएगा कि आज भी कश्मीरी पंडितों का वापस लौटना आसान नहीं है.
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जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) से कश्मीरी पंडितों के पलायन (Kashmiri Pandit exodus) को 30 साल बीत चुके हैं. 19 जनवरी 1990 को करीब 5 लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर और जमीन छोड़कर भागना पड़ा था, क्योंकि बात जान पर बन आई थी. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. मोदी सरकार ने तो जम्मू-कश्मीर से धारा 370 (Abrogation of Article 370) को भी हटा दिया है और उसे दो हिस्सों में बांटते हुए दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिए गए हैं. पहला है जम्मू-कश्मीर और दूसरा है लद्दाख. मोदी सराकर (Modi Government) ने जब से जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई है, तब से वहां के लोगों को भी बाकी देश के नागरिकों जैसे अधिकार मिलने लगे हैं. इसी के साथ ये भी बात उठने लगी है कि अब कश्मीरी पंडितों उनकी सरजमीं पर वापस बसाने के इंतजाम किए जाने चाहिए. CAA और NRC विरोध के बीच भी इससे मिलती जुलती राय जाहिर की गई है. लेकिन क्या कश्मीरी पंडित इन बातों से उत्साहित हैं? एक उम्मीद तो जगी है लेकिन शंका-कुशंकाओं के साथ. लोगों के दिल में जो डर है, वह दूर नहीं हो रहा है. भले ही ये कहने वालों की कमी नहीं है कि अब वापस लौटने में कोई दिक्कत नहीं है, कश्मीरी पंडित अपने पुराने घर लौट सकते हैं. लेकिन अभी भी कुछ बातें हैं, जिन पर नजर डालेंगे तो समझ आएगा कि आज भी कश्मीरी पंडितों का वापस लौटना आसान नहीं है...
कश्मीरी पंडितों के साथ 30 साल पहले जो हुआ था, वो याद कर के आज भी सिहर उठते हैं लोग.
जो लोग कह रहे हैं कि कश्मीरी पंडितों को उनके पुराने घर लौट जाना चाहिए, उन्हें पहले ये भी जान लेना चाहिए कि-
1- कश्मीरी पंडितों के घरों को हड़प लिया गया है, जमीन पर भी कब्जा कर लिया है.
2- कुछ घरों को दबाव के चलते बेहद ही सस्ते दामों में बेच दिया गया है और उनके नए मालिक वहां आ गए हैं.
3- जिन घरों को तोड़ दिया गया या जला दिया गया, उन्हें दोबारा से बनाने की जरूरत है.
4- जिन पड़ोसियों के डर से भागना पड़ा दोबारा उन्हीं की बीच जाने में एक डर बना रहेगा कि फिर से वही सब ना हो जाए.
5- कश्मीरी पंडित कभी नहीं चाहेंगे कि उन घरों में रहने वाले नए मालिकों को जबरन वहां से निकाला जाए, क्योंकि इससे आगे की दुश्मनी बढ़ेगी.
6- जम्मू में अभी भी कश्मीरी पंडितों की कुछ कॉलोनियां हैं, लेकिन वहां कोई दिक्कत नहीं हो रही है, सब साथ मिलकर रहते हैं.
7- क्यों ना कि ऐसी ही कुछ कॉलोनियां कश्मीर में भी बनाई जाएं? कैदखाने बनाए जाने की साजिश का डर कैसा?
जो घाटी के लोग या टीवी डिबेट में शामिल होने वाले अलगाववादी नेता सैटलमेंट (colony) को सरकार की साजिश बताते हैं, वो जवाब दें -कि शर्तें थोपकर एक अल्पसंख्यक समुदाय को विवादित जगह पर कैसे बुलाया या भेजा जा सकेगा?? इस प्रोजेक्ट को राजनीतिक दृढ़ संकल्प और सामाज के लोगों की हमदर्दी की जरूरत है. सैटलमेंट कॉलोनी एक शुरुआत की तरह देखी जा सकती है. तब तक सरकार पुराने मकान को वापिस खाली कराए- कानूनी तौर पर, और जले हुए घरों को ठीक करवाने मे कश्मीरी पंडितों की मदद करे. कुछ साल में वहां के मूल निवासी खुद ही अपने पुराने घर की तरफ बढ़ सकते हैं. क्या कश्मीरी पांडित खुद हमेशा के लिये एक अलग कॉलोनी में रहना पसन्द करेंगे? एक शुरुआत होने की ज़रूरत है. ये वक्त है सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं और विपक्ष को साथ मिलकर अपने वादे पूरे करने का. अब सिर्फ आश्वासन देना भर काफी नहीं होगा. लोग देख रहे हैं और इंतजार भी कर रहे हैं.
क्या हुआ था कश्मीरी पंडितों के साथ?
वो दिन था 19 जनवरी 1990 का. उस दिन जो हुआ, उसकी कहानी सुनने वाले को तो रोंगटे खड़े हो ही जाते हैं, उसकी कहानी बयां करने वाले की भी रूह कांप जाती है. इसी दिन कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ने का फरमान जारी हुआ था. 4 जनवरी 1990 को एक उर्दू अखबार आफताब में हिजबुल मुजाहिदीन ने छपवाया था कि सभी कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले जाएं. एक अन्य अखबार अल-सफा में भी यही छापा गया. चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर यही बात बार-बार दोहराई जाती रही कि कश्मीरी पंडित यहां से चले जाएं, वरना बुरा होगा. वह सिर्फ कह नहीं रहे थे, बल्कि कर के भी दिखा दिया.
हत्या और रेप की दर्दभरी दास्तां है ये
लाउडस्पीकर और भीड़भाड़ वाली गलियों से ऐलान किया जाने लगा- रालिव, तस्लीव या गालिव (या तो इस्लाम में शामिल हो जाओ, या तो घाटी छोड़ दो, या फिर मरो). हर ओर नारे लगते थे 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' (हमें पाकिस्तान चाहिए. पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ.) लोगों की हत्या होने लगी, महिलाओं का रेप किया जाने लगा. करीब 4 लाख लोग इस पूरी कवायद में कश्मीर से भागे. सबसे अधिक लोग 19 जनवरी 1990 को ही भागे थे, जिस दिन नरसंहार शुरू हो गया था. वो दिन धमकाने का या डराने का नहीं था, बल्कि सीधे मार देने का था. अपना घर और जमीन छोड़कर भागे इन कश्मीरी पंडितों को देश के अन्य राज्यों में शरण तो मिल गई, लेकिन अपना घर खोने का दर्द अब तक वह झेल रहे हैं.
यदि कश्मीरी पंडितों को उनके इस भयानक अतीत से कोई राहत देना चाहता है तो उसकी पहल भारत सरकार और कश्मीरी घाटी दोनों तरफ से करनी होगी. 1990 की कड़वाहट दूर करने का यही तरीका है कि जिस तरह से कश्मीरी पंडितों को 1990 में पलायन के लिए मजबूर किया गया था, उसी तरह से उनके पुनर्वापसी का अभियान उसी घाटी से चलाया जाए. ताकि एक भरोसा जगे कि कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात सिर्फ जुमलेबाजी नहीं है.
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