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Updated: 15 मई, 2020 02:33 PM
अंकिता जैन
अंकिता जैन
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'दुनिया के मजदूरों (Workers) तुम एक हो, तुम संघर्ष करो' कार्ल मार्क्स ने जब यह कहा था तो उन्हें पता नहीं था कि एक दिन कोरोना (Coronavirus) जैसी बीमारी आएगी. दुनियाभर में लाखों कब्र एक-साथ खोदनी पड़ेंगी. मजदूर चाहे मैले कपड़े वाला हो या व्हाईट कॉलर वाला सबकी नौकरी जाएंगी. अर्थव्यवस्था (Economy) चौपट हो जाएगी. ऐसे में हर देश सिर्फ यही कोशिश कर रहा होगा कि वह कम से कम अपने लोगों को बचा ले. जितना हो सके अर्थव्यवस्था चौपट होने से बचा ले. ऐसे में शेखर गुप्ता, ‘द प्रिंट’ के शो में बड़ी अच्छी बात कहते हैं. यूं तो संकट कभी अच्छा नहीं होता. हमेशा बुरा ही होता है, लेकिन ‘नॉट वेस्टिंग ए गुड क्राइसेस’ का मतलब है जब आप उन मुश्किल हालातों में वे काम कर लें जिन्हें आपने लम्बे वक़्त से रोका हुआ था. लेकिन अब वक़्त और हालत आपको उन निर्णयों को लेने की दशा बना रहे हैं. हाल में ही हो रहे ‘लेबर लॉ’ (Labour Law) में बदलाव को भी उसी रूप में देख सकते हैं.

Narendra Modi, Migrant Workers, Coronavirus, Labour Lawकोरोना काल में जैसी मजदूरों की हालत है उनको इंसाफ तभी मिल सकता है जब उनके लिए सही श्रम कानूनों का गठन किया जाए

लेफ्ट हमें यह समझाता आया है कि मजदूरों का हमेशा से शोषण हुआ है. मजदूरों का शोषण करके जो भी मुनाफ़ा होता है उसे मजदूरों के हित में ही ख़र्च करने की बजाय उनके ऊपर बैठे लोग अपने ऐशोआराम में उड़ाते हैं. इसे प्रमाणित करने के लिए हमारे सामने मजदूरों के साथ हो रहे शोषण की छवि प्रस्तुत की जाती है. जो काफ़ी हद तक हमें मजदूरों की ज़मीनी हकीक़त समझाने में मदद भी करती है.

असल में देखा जाए तो कम्युनिज़म शोषण के विरोध में जन्मी प्रतिक्रिया थी. और विरोध, डर या गुस्से से जन्मी प्रतिक्रियाओं के आधार पर लिए गए निर्णय कई बार, कई जगह, कई हालातों में ज़मीनी हकीक़त के साथ मेल नहीं खा पाते. काम नहीं कर पाते, या प्रोडक्टिव नहीं बन पाते. ऐसा हम पिछले दशकों में हुए विभिन्न कम्युनिस्ज़म फॉलो कर रहे देशों को देखकर समझ सकते हैं.

इसका मतलब यह नहीं है कि हमें मजदूरों के साथ हो रहे शोषण को रोकना नहीं, इसी के लिए तो सरकार कानून बनाती है. उद्योग और मजदूर के बीच में अपना हस्तक्षेप रखती है ताकि मजदूरों को शोषण से बचाया जा सके. जैसे उन्हें बेहतर मेडिकल फेसिलिटी मिलें, उन्हें उनकी मेहनत की पूरी कीमत मिले, कोई फैक्ट्री है तो काम करने के लिए ज़रूरी संसाधन मिलें मसलन ग्लब्स, सूट, आदि. यदि काम के दौरान मजदूर किसी दुर्घटना का शिकार होता है तो उसका इलाज कराया जाए. उसके परिवार को मुआवज़ा दिया जाए, पेंशन दी जाए.

ये सभी मजदूरों के हित के लिए होते हैं. लेकिन जब यही कानून दूसरे पक्ष को अपना विरोधी मानकर, पूरी तरह से अनदेखा करके बनाए जाते हैं तो वो इतने एक्सट्रीम हो जाते हैं कि उद्योग ठप्प पड़ जाते हैं. 70-80 के दशकों में सोबियत के प्रभाव में आकर जोकि कम्युनिस्ट देशों का समूह है, भारत में भी कुछ कानून बनाए गए थे.

वो ऐसे कानून बने जिन्होंने इंडस्ट्रीज की कब्र खोद दीं. यही बात शेखर ‘द प्रिंट’ के उस विडियो में भी समझाते हैं. मसलन 100 (यह संख्या पहले 300 रखी गई जिसे 82 में बदलकर 100 किया गया) मजदूरों वाली कंपनी को अगर अपनी कार्यप्रणाली में कोई बदलाव लाना होगा, या कंपनी बंद करनी होगी या कुछ भी करना होगा तो उसके लिए इतने-इतने कानूनों का पालन करना ही पड़ेगा. व्यापार अनिश्चितता का नाम है.

ऐसे में व्यापारियों ने जब पाया कि बनाए गए कानून प्रैक्टिकल नहीं हैं, सुनने में सुन्दर लगते हैं लेकिन इनका पालन संभव नहीं है तो उद्योग ठप्प होने लगे और मजदूरों को अपने राज्यों में काम के फाके पड़ने लगे. कानून ज़रूरी है, मजदूरों के हित में. लेकिन यह भी देखना होगा कि ये कानून हमारी बिज़नस ग्रोथ को रोक तो नहीं रहे. इंडस्ट्रीज की ग्रोथ को तो नहीं रोक रहे.

कम्युनिज़म के प्रभाव में ऐसे कई कानून हमारे देश में अब तक बन चुके हैं जिन्होंने उद्योगों का बोना बना दिया. पिछले वर्ष के आर्थिक सर्वे में ही यह बात आँकड़ों के साथ समझाई गई है. कानूनों में अति सख्ती ने इंडस्ट्रीज के लिए कुपोषण का काम किया. आश्चर्य की बात यह है कि ये जो कानून मजदूरों के हित में बनाए गए थे, उद्योगों को बोना बनाकर इन्होंने जो नुक्सान किया वह ‘एट दी एंड’ मजदूरों का ही किया.

कोई कंपनी अगर ग्रो ही नहीं करेगी तो वह अपने मजदूरों को क्या फ़ायदे देगी? यदि वह चल ही नहीं पाएगी तो क्या नौकरी देगी? जो भी कंपनी शुरू होती है वह लोन लेकर खड़ी होती है. उनके पास इतना पैसा नहीं होता कि वे मुनाफ़े भी बांटे, लोन भी चुकाएं, और अपने वर्कर्स को एक्स्ट्रा फेसिलिटी भी दें. इसके लिए ज़रूरी है उनका ग्रो करना, उन्हें मुनाफ़ा मिलना.

कंपनी का आगे बढ़ना. इसलिए हमें ऐसे कानूनों की ज़रुरत है जो मजदूरों के हित में हों, लेकिन वे इंडस्ट्री को बोना भी ना बनाएं. उन्हें बांधे भी ना. एक बैलेंस की ज़रुरत है. ख़ासकर आज के समय में जब हिंदी पट्टी वाले सात राज्यों में मजदूरों का हुजूम वापस लौट रहा हो. जहां की सरकारों को यह निश्चित करना हो कि उनके राज्यों में जो लोग लौट रहे हैं, उन्हें ना सिर्फ नौकरी मिले बल्कि इनकी वापसी से राज्यों को वापस चौपट हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सहयोगी भी बनाया जा सके.

1991 के रीफोर्म्स के बाद इन कानूनों में कुछ सुधार की कोशिश हुईं लेकिन लेफ्ट हमेशा इन सुधारों को ‘मजदूरों का दुश्मन’ बनाकर प्रस्तुत करता रहा. हालांकि लेफ्ट का होना ज़रूरी है वरना बिना स्पीडब्रेकर के गाड़ी आएं-बाएं कहीं भी भागती है लेकिन हमेशा एक्सट्रीम विरोध में ना जाकर, तालमेल बनाने की ज़रुरत होती है.

आज covid-19 में हमें इंडस्ट्रीज की बेहद ज़रुरत है और उस जगह ज़रुरत है जहां ये मजदूर लौट रहे हैं. जहां ये रहते हैं. ऐसे में इंडस्ट्रीज ग्रो करें इसके लिए कानूनों में बदलाव की ज़रुरत है. क्योंकि ये पिछले 30-40 सालों का सुबूत है, डाटा है कि हम हालिया कानूनों के साथ ग्रो नहीं कर सकते, इनमें बदलावों की ज़रुरत है. छूट देने की ज़रुरत है.

कोम्प्रोमाईज़ की ज़रुरत है. जहां हमें मजदूर को शोषण से भी बचाना है और इंडस्ट्री को आगे भी बढ़ाना है. एक्सट्रीम लेबर लॉ ने जो नुक्सान किया उनमें से एक यह भी था कि ‘अनऑर्गनाइज्ड लेबर्स’ को बढ़ा दिया. संगठित मजदूरों को मिलने वाली सुविधाएं अधिक होती हैं. तय होती हैं. लेकिन कड़े कानूनों ने जब उद्योग बंद किए तो असंगठित मजदूरों की बढ़ती संख्या ने उन्ही का नुक्सान किया.

हम हर शहर में चौराहों-चौराहों अपने लिए मजदूरी तलाशते दिहाड़ी मजदूर देखते हैं. ये सभी असंगठित मजदूर होते हैं. इनके लिए कोई निहित सुविधाएं नहीं हैं, जो किसी फेक्ट्री में काम करने वाले मजदूर को मिलती हैं. क्योंकि कंपनीज़ ने वही-खतों में मजदूर की संख्या 99 पर रखी, ताकि कानूनों से बचा सके और उसके ऊपर मजदूरों की ज़रुरत पड़ी तो उन्हें ‘वर्बल एग्रीमेंट’ पर रखा. मतलब इतना ही देंगे, काम करना है तो करो वाली प्रवर्ती.

मरता क्या ना करता. मजदूर को काम कैसे भी मिले. इससे असंगठित मजदूर देशभर में बढ़े. आज आप डाटा देखेंगे तो पूरे भारत में 90% से ऊपर असंगठित मजदूर हैं. ऐसे में तीन साल के लिए जो श्रम कानूनों में छूट दी गई है वह मेरी नज़र में सही लगती है. अब भी कुछ ज़रूरी तीन-चार कानून ऐसे हैं जो मजदूरों को बेसिक सुविधा देंगे, लेकिन उनके अलावा जो बदले गए उनसे मजदूरों को उनकी अपनी जगहों पर काम मिलने की सम्भावना बढ़ेगी.

हां लेकिन सरकारों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि तीन साल में फिर नए सिरे से कानून बने, जो मजदूरों की ज़रूरतों और व्यापार को ध्यान में रखकर बनें. क्योंकि अधिक छूट शोषण पैदा करती है. फिर हम तो हिन्दुस्तानी हैं, जहां से मिले, जितना मिले चूस लेने की प्रवति वाले हैं.

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अंकिता जैन अंकिता जैन @ankita.jain.522

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