'भारत माता की जय' बोलने के लिए दबाव बनाना गलत
भारत का हर अनपढ़-गरीब हिन्दू और मुसलमान देशभक्त है और इसी देश में जीने-मरने की तमन्ना रखता है. यह डिवीजन और डिस्ट्रक्शन वाला कीड़ा तो सिर्फ पढ़े-लिखे-सक्षम लोगों के दिमाग में है!
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कोई अगर "भारत माता की जय" या "वन्दे मातरम्" नहीं बोलता, तो न बोले, पर ऐसा भी न कहे कि मेरी गर्दन पर चाकू रख दोगे, तो भी नहीं बोलूंगा. न ही कोई सचमुच इस बात के लिए उसकी गर्दन पर चाकू रख दे कि “बोलोगे कैसे नहीं?” इस मुद्दे को लेकर विवाद देशहित में नहीं है.
दोनों ही पक्षों की ज़िद अच्छी नहीं है. यह सब अपनी-अपनी आस्था के विषय हैं. हिन्दुओं में भी आस्तिक और नास्तिक होते हैं. जो नास्तिक होते हैं, वे किसी देवी-देवता की जय नहीं बोलते, तो क्या उन्हें विधर्मी और असामाजिक मान लिया जाना चाहिए?
अगर हमारे मुस्लिम भाइयों-बहनों की अपनी कुछ धार्मिक मान्यताएं हैं, जिनके चलते वह निराकार एकेश्वरवाद में यकीन रखते हैं और मूर्ति या चित्र रूप में किसी की उपासना नहीं करना चाहते, तो देश के नाम पर ही सही, उनपर ऐसा करने का दबाव नहीं डालना चाहिए.
अगर कोई ये नारे लगाता है कि "भारत तेरी बर्बादी तक जंग रहेगी" या "भारत तेरे टुकड़े होंगे" या "बंदूक के दम पर लेंगे आजादी", तो यह निश्चित रूप से देशद्रोह है. जो उन्हें देशद्रोही नहीं मानकर उनका बचाव और समर्थन करते हैं, मैं उनकी पुरजोर निंदा करता हूं.
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लेकिन मैं उन लोगों की भी निंदा करता हूं, जो "भारत माता की जय" या "वन्दे मातरम्" नहीं बोलने पर किसी को देशद्रोही घोषित कर देते हैं. मेरे ख्याल से देश के सभी नागरिकों को स्वयं ही यह तय करने दिया जाना चाहिए कि वह अपने मुल्क से किस रूप में मोहब्बत करें.
मुझे सबसे ज्यादा शिकायत देश के पढ़े-लिखे लोगों से है, जो स्वार्थ के लिए नफरत, उन्माद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का धंधा कर रहे हैं. पढ़े-लिखे लोग सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत फायदे में यकीन रखते हैं, इसलिए वे "फूट डालो, फ्रूट खा लो" की नीति पर चलते हैं.
इसे नियम की तरह तो पेश नहीं किया जा सकता, पर मेरा अनुभव यही है कि पढ़े-लिखे लोग अनपढ़-गरीबों की तुलना में अधिक जातिवादी और सांप्रदायिक होते हैं. अगर हमारे पढ़े-लिखे लोग इतने जातिवादी और सांप्रदायिक न होते, तो ये बुराइयां कब की खत्म हो गई होतीं.
इतना ही नहीं, एक अनपढ़-गरीब तो इसी मिट्टी में पैदा होता है और इसी की सेवा करते हुए इसी में मिट जाता है. लेकिन एक पढ़ा-लिखा आदमी जैसे ही थोड़ा सक्षम हो जाता है, न सिर्फ दूसरे देशों में जा बसने का सपना देखने लगता है, बल्कि बात-बात पर देश बांटने, देश तोड़ने या देश छोड़ने की धमकी भी देने लगता है.
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उदाहरण के लिए, आपने विद्वान लेखक यूआर अनंतमूर्ति को देश छोड़ने की धमकी देते सुना, लेकिन क्या कभी किसी अनपढ़-गरीब हिन्दू को ऐसी धमकी देते सुना? इसी तरह, आपने विद्वान अभिनेता आमिर खान को भी देश छोड़ने की धमकी देते सुना, पर क्या किसी अनपढ़-गरीब मुसलमान को ऐसी धमकी देते सुना?
हमारे पढ़े-लिखे लोग अन्य तरीकों से भी देश की जड़ें खोखली करने में जुटे हैं. भ्रष्टाचार क्या है? अगर इससे देश को नुकसान पहुंचता है, तो क्या यह देशघात नहीं है? और अगर यह देशघात है, तो यह कौन कर रहा है इस मुल्क में?
इसलिए बात हिन्दू-मुसलमान की है ही नहीं. भारत का हर अनपढ़-गरीब हिन्दू और मुसलमान देशभक्त है और इसी देश में जीने-मरने की तमन्ना रखता है. यह डिवीजन और डिस्ट्रक्शन वाला कीड़ा तो दोनों समुदायों के पढ़े-लिखे-सक्षम लोगों के दिमाग में है!
इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि प्रॉब्लम हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है. इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा रानी ने सर्जरी वाली जो बात कही थी, मेरे ख्याल से उसकी सबसे ज्यादा जरूरत हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है. पढ़े-लिखे लोगो... शर्म करो.
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