2019 लोकसभा चुनाव में हार-जीत महिला वोटर्स ही तय करेंगी !
भाजपा के अभी तक के कार्यकाल के दौरान महिलाओं के लिए शुरू की गई योजनाएं और उनके हक की लड़ाई इस बात की पुष्टि करती हैं कि 2019 में हार और जीत का फैसला महिलाएं ही करेंगी.
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महिलाएं हमेशा से ही चुनावों में अहम रोल अदा करती रही हैं. लेकिन अब अगर पार्टियों का पैटर्न देखा जाए तो राजनीतिक पार्टियां महिला वोटर्स को लुभाती सी दिख रही हैं. और ऐसा हो भी क्यों नहीं, अब महिला वोटर्स की संख्या पुरुष वोटर्स के लगभग बराबर जो हो गई है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा की जीत में महिलाओं का अहम योगदान रहा था, जिसे भाजपा 2019 में भी भुनाएगी ही. भाजपा के अभी तक के कार्यकाल के दौरान महिलाओं के लिए शुरू की गई योजनाएं और उनके हक की लड़ाई इस बात की पुष्टि करती हैं कि इस बार हार और जीत का फैसला महिलाएं ही करेंगी. 2014 का चुनाव यूं तो अर्थव्यवस्था में ग्रोथ लाने और नौकरियां पैदा करने के बल पर लड़ा गया था, लेकिन 2019 का वोट महिलाओं पर अधिक फोकस करेगा. ऐसा नहीं है कि सिर्फ भाजपा ही महिलाओं पर फोकस कर रही है, बल्कि लगभग हर पार्टी का झुकाव महिलाओं की ओर दिख ही रहा है. इस बार महिलाओं के वोट ही निर्धारित करेंगे कि किसे सत्ता का सुख मिलेगा और कौन विपक्ष में बैठकर सरकार को कोसेगा.
इस बार महिलाओं के वोट ही निर्धारित करेंगे कि किसे सत्ता का सुख मिलेगा.
2015 का बिहार चुनाव ही देख लीजिए
जब 2015 में बिहार चुनाव हुए तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में शराबबंदी का वादा किया था, जिसे सत्ता में आते ही उन्होंने पूरा भी किया. माना जा रहा है कि ये फैसला भी नीतीश कुमार ने महिलाओं के दबाव में किया था और इसका उन्हें फायदा भी खूब मिला. शराब की वजह से बिहार में गरीबी और हिंसा की घटनाएं बहुत अधिक बढ़ गई थीं, जिसकी वजह से महिलाओं को सबसे अधिक दिक्कत होती थी. कई बार महिलाओं ने शराब के खिलाफ प्रदर्शन भी किए थे. शराबबंदी की शुरुआत बिहार ने की और महिला वोटर्स को अपनी ओर खींच लिया. अब छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश भी शराबबंदी की राह पर चल पड़े हैं. इससे सरकारें महिला वोटर्स को लुभाने में कामयाब जरूर होंगी.
2019 में भाजपा का फोकस महिलाओं पर
भाजपा सामाजिक मुद्दों पर फोकस कर रही है, जिससे उसे इस बार भी देश के लोगों का साथ मिलने की संभावना है, खासकर महिलाओं का साथ. कर्नाटक चुनाव के दौरान पीएम मोदी पहले भी यह कह चुके हैं कि उनके लिए महिलाएं सर्वोपरि हैं. पिछले चार सालों में मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया, आयुष्मान भारत की शुरुआत की और उज्ज्वला योजना के तहत गरीब परिवारों को मुफ्त में रसोई गैस मुहैया कराई. ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर भी भाजपा ने फोकस करते हुए सितंबर 2018 में एग्जिक्युटिव ऑर्डिनेंस पास कराया, जिससे मुस्लिम महिलाओं की नजरों में भी पार्टी की अहमियत बढ़ी है.
कांग्रेस भी पीछे नहीं है
यहां ये सोचना गलत होगा कि सिर्फ भाजपा ही महिला वोटर्स को लुभा रही है. कांग्रेस भी महिला वोटर्स को लुभाने में लगी हुई है. राहुल गांधी आए दिन पीएम मोदी को इसी बात पर घेरते दिखते हैं कि वह महिलाओं की सुरक्षा का वादा कर के सत्ता में आए थे, लेकिन महिलाएं अभी भी सुरक्षित नहीं हैं. राहुल गांधी तो यहां तक कह चुके हैं कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आ जाती है तो वह सुनिश्चित करेंगे कि 2024 तक कांग्रेस शासित कम से कम आधे राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हों. दिलचस्प आंकड़े ये हैं कि इस समय कांग्रेस सिर्फ 3 राज्यों तक सिमट कर रह गई है.
महिलाओं को मिल सकते हैं अधिक मौके
भारतीय संविधान में 1993 में हुए 73वें संशोधन के अनुसार कम से कम एक तिहाई ग्राम परिषद अध्यक्ष के पद महिलाओं के लिए आरक्षित होने चाहिए, लेकिन न तो राज्य स्तर पर ना ही राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कुछ होता दिख रहा है. महिला-पुरुष के बीच में इस बढ़ते गैप को भरने के लिए पार्टियां महिला आरक्षण बिल को मंजूरी दे सकती हैं, जो पहली बार 1996 में लाया गया था. इसके तहत लोकसभा और राज्यसभा में कम से कम 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. राज्यसभा में तो इसे मंजूरी मिल चुकी है, लेकिन लोकसभा में इसे मंजूरी मिलना अभी बाकी है. 2004 से लेकर 2014 तक भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस पर आरोप लगाती रही कि उसने इतने सालों तक बिल लटकाए रखा. अब राहुल गांधी ने पीएम मोदी से कहा है कि वह बिल को पास करें, उन्हें इस बिल के लिए कांग्रेस का पूरा सपोर्ट है. देखा जाए तो दोनों ही पार्टियां इस बिल का किसी भी तरीके से विरोध करने से बच रही हैं और अपना समर्थन दे रही हैं.
बात भले ही भाजपा की हो या फिर कांग्रेस की, दोनों ही महिला वोटर्स को लुभाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार दिख रहे हैं. हो सकता है कि इसी का फायदा महिलाओं को मिल जाए और महिला आरक्षण बिल पास हो जाए. अगर ऐसा हो जाता है तो जिस तरह महिला वोटर्स की संख्या पुरुष वोटर्स के लगभग बराबर हो चुकी है, वैसे ही चुनाव लड़ने में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों को टक्कर दे सकती है. वैसे भी, समाज में पुरुषों को सबसे अधिक चिंता अपने परिवार की होती है, खासकर मां-बहन-बेटी की. अगर उन्हें ही फोकस करते हुए पार्टियां चुनावी घोषणाएं करती हैं तो महिलाओं का साथ तो मिलेगा ही, साथ ही अधिकतर पुरुष वोटर्स भी साथ होंगे.
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