जैसा बीजेपी का 'राम मंदिर', वैसा ही केजरीवाल का 'लोकपाल'!
लोकपाल की नियुक्ति को लेकर जो रवैया यूपीए सरकार का रहा, मौजूदा मोदी सरकार का भी वैसा ही है. जब राजनीति में आने के बाद अरविंद केजरीवाल भूल गये तो किससे उम्मीद की जाये, सिवा सुप्रीम कोर्ट के.
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बरसों से देश में सीबीआई जांच की मांग इंसाफ पाने की दिशा में स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति रही है. सबसे सक्षम जांच एजेंसी में 'बिल्लियों के झगड़े' को निपटाने के जो तरीके अख्तियार किये गये उससे उम्मीदें और भी धुंधली होती जा रही हैं. सुप्रीम कोर्ट ने ही सीबीआई को 'पिंजरे का तोता' कहा था. सोहराबुद्दीन केस से लेकर यूपी में गठबंधन की कोशिशों के बीच सीबीआई छापों तक ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी न सिर्फ सही ठहराया है, पिंजरे का तोता सुधरने की बजाय और भी कुंद होता लग रहा है.
मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था या हालात में सीबीआई कभी स्वायत्त संस्था बन पाएगी, ऐसी कोई उम्मीद फिलहाल तो बेमानी लगती है. ऐसे में लोकपाल से ही जितनी भी उम्मीद बनती है, बन सकती है - और लोकपाल को लेकर भी उम्मीद की किरण सुप्रीम कोर्ट से ही आती लगती है. लोकपाल के माध्यम से राजनीति भले ही चमका ली जाये, लेकिन राजनीति लोकपाल को कभी हकीकत बनने भी देगी, ऐसा तो बिलकुल नहीं लगता. तब रास्ता क्या है?
फिलहाल तो सिर्फ और सिर्फ सुप्रीम कोर्ट. सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी डेडलाइन जरूर तय कर दी है जिससे लगे कि लोकपाल के आने का संकेत हो चुका है.
बगैर लोकपाल का नाम लिये 'पांच साल केजरीवाल'
लोकपाल की कोई भी चर्चा कम से कम दो नामों के जिक्र के बगैर पूरी नहीं हो सकती - अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल. मुख्यधारा की राजनीति में आने के बाद लोकपाल से अरविंद केजरीवाल ने भले दूरी बना ली हो, लेकिन अन्ना हजारे अभी नहीं थके हुए नहीं लगते. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर अन्ना हजारे ने महात्मा गांधी की पुण्यतिथि 30 जनवरी से अपने गांव रालेगण सिद्धि में फिर से अनशन करने की घोषणा की है. पत्र में अन्ना ने लिखा है कि लोकपाल और लोकायुक्त जैसे महत्वपूर्ण कानून पर अमल नहीं होना और सरकार का बार-बार झूठ बोलना वो बर्दाश्त नहीं कर सकते.
पहले लगा था लोकपाल का अस्तित्व देखने को भी विरोध की राजनीति में ही लगता है. अब ये भ्रम भी दूर हो चुका है. लोकपाल के जरिये राजनीति में आये अरविंद केजरीवाल अब प्रधानमंत्री बनने के जुगाड़ में लगे हुए हैं. यूपीए सरकार के दौरान लोकपाल के ड्राफ्ट को जोकपाल बताने वाले अरविंद केजरीवाल के ट्वीट, वीडियो या मीडिया को दिये बयानों में शायद ही कभी लोकपाल शब्द सुनने को मिलता हो. दफ्तर में सीबीआई के छापे पड़ने पर अरविंद केजरीवाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कायर और मनोरोगी तक कह डालते हैं, सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत तक मांग डालते हैं - लेकिन लोकपाल को लेकर कोई वीडियो बयान फिलहाल तो देखने को नहीं ही मिला है.
अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक सफर में लोकपाल को भी वही जगह हासिल है जो बीजेपी के दिल्ली फतह में अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन का. मंदिर निर्माण को लेकर बीजेपी को याद दिलाने वाले तो बहुतेरे देखे जा रहे हैं, लेकिन कोई ऐसा नजर नहीं आ रहा जो अरविंद केजरीवाल को लोकपाल की याद दिला पाये.
और लोकपाल जाने कहां गुम गया...
दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के लिए 'पांच साल केजरीवाल' जैसे स्लोगन लोकपाल के संदर्भ में तो निरर्थक लगते हैं - क्योंकि कार्यकाल का ज्यादातर हिस्सा बीत चुका है.
बड़े उम्मीदों की डेडलाइन
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को बीजेपी नेता शोर ही मचाते हैं. मंदिर बनाने के नाम पर मजबूरियां गिनाने लगते हैं. सत्ता में आ जाने के बाद आप नेता लोकपाल को लेकर मौन हैं. ऐसा लगता है आप और अरविंद केजरीवाल के लिए लोकपाल अब 'फुंका हुआ कारतूस' हो चुका है.
जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार को भ्रष्टाचार मुक्त सरकार बताते फिरते हैं, वैसे ही उनके साथी मंत्री भी. फिर तो लोकपाल की जरूरत ही नहीं लगती होगी!
We, as a govt,are committed to a corruption-free India
That's why when we found out corrupt practices by a few officers in @IndiaSports, we gave their info to relevant agencies,who arrested them today
We will continue to have zero tolerance approach towards corruption @PMOIndia pic.twitter.com/R8YuRceS2X
— Rajyavardhan Rathore (@Ra_THORe) January 17, 2019
लोकपाल को लेकर यूपीए सरकार को जो रवैया रहा वो तो पता ही है, नरेंद्र मोदी सरकार तो और भी आगे रही. सूचना के अधिकार के तहत मिले जवाब से मालूम हुआ कि लोकपाल चयन समिति की पहली बैठक मोदी सरकार के सत्ता में आने के 45 महीने बाद मार्च, 2018 में हुई थी.
4 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति को लेकर अब तक उठाये गये कदमों पर हलफनामा दाखिल करने को कहा था. 17 जनवरी को कोर्ट ने धीमी प्रगति को लेकर नाखुशी जताई. सफाई में केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने बुनियादी सुविधाओं की कमी और मैनपावर जैसी समस्याओं का हवाला दिया, जिसकी वजह से सर्च कमेटी काम नहीं कर पायी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल और सदस्यों के लिए नामों की सूची तैयार करने के लिए डेडलाइन तय कर दी - फरवरी, 2019 के आखिर तक.
सियासत की फितरत ऐसी ही होती है...
लोकपाल के मामले में सुनवाई कर रही चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस एलएन राव और जस्टिस एसके कौल भी शामिल हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सर्च कमेटी को सभी जरूरी सुविधाएं और कर्मचारी उपलब्ध कराने को कहा है, तय वक्त में काम पूरा हो सके. इस मामले की अगली सुनवाई 7 मार्च को होगी.
2013 में लागू हुए लोकपाल और लोकायुक्त एक्ट को 1 जनवरी, 2014 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली थी और ये 16 जनवरी 2014 को लागू किया गया था. बावजूद इसके पहले लोकपाल की नियुक्ति होनी अभी भी बाकी है.
कैसे काम करती है लोकपाल चयन समिति
सीबीआई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाई पावर कमेटी को हफ्ते भर का व्कत दिया था - लेकिन उसे दो दिन में ही निपटा दिया गया और आलोक वर्मा की छुट्टी हो गयी. मीटिंग में विरोध की आवाज बने कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे सीबीआई वाले में जाते हैं, लेकिन लोकपाल वाली चयन समिति की बैठक में जाने से इंकार कर देते हैं.
लोकपाल चयन समिति में कुल पांच सदस्य होते हैं जिनमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस, स्पीकर, लोक सभा में विपक्ष के नेता और प्रतिष्ठित कानूनविद् को शामिल किये जाते हैं. कांग्रेस लोक सभा में सबसे बड़ी पार्टी तो है लेकिन उसे नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिला है. चयन समिति जब लोक सभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को बुलाती है तो वो इंकार कर देते हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे को बतौर विशेष आमंत्रित सदस्य बुलाया जाना मंजूर नहीं है. जब केंद्र सरकार ने बैठक न हो पाने की ये वजह बतायी तो सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल कानून की धारा 4 का हवाला दिया, जिसके मुताबिक अगर चयन समिति में कोई पद खाली है, तब भी लोकपाल की नियुक्ति हो सकती है.
आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक लोकपाल चयन समिति की आखिरी बैठक 19 सितंबर 2018 को हुई थी. तब बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन, तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और कानूनविद् मुकुल रोहतगी मौजूद थे. मुकुल रोहतगी से पहले कानूनविद् के रूप में चयन समिति में पीपी राव थे.
27 सितंबर 2018 को आठ सदस्यों वाली चयन समिति द्वारा सर्च कमेटी का गठन किया गया था. सर्च कमेटी के प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रंजन प्रकाश देसाई हैं.
लोकपाल के प्रसंग में इन दिनों सीनियर वकील प्रशांत भूषण पर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की टिप्पणी की ज्यादा चर्चा हो रही है. सच तो ये है कि गैरसरकारी संगठन कॉमन कॉज की तरफ से प्रशांत भूषण ने लोकपाल की नियुक्ति में देरी को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की है और उसी पर सुनवाई के दौरान बात यहां तक पहुंची है.
सुनवाई के दौरान जब प्रशांत भूषण ने सर्च कमेटी के काम को लेकर संदेह जताया तो चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा, 'चीजों को नकारात्मक रवैये से न देखें. चीजों को सकारात्मक रूप से देखें और दुनिया एक बेहतर जगह होगी. हम दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं.'
एक बात तो सही है कि मौजूदा मोदी सरकार के कार्यकाल में लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने वाली - फिर भी इतना तो लगने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट यूं ही सख्ती बरतता रहा तो नयी सरकार लोकपाल पर फैसले को मजबूर जरूर हो सकती है - और अब तो लोकपाल की सख्त जरूरत भी लगने लगी है.
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