आरएसएस को नाजी और फासिस्टों जैसा मानते थे महात्मा गांधी
भारत की तकरीबन हर राजनैतिक पार्टी और संगठन महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर रहे हैं. लेकिन दूसरी विचारधाराओं में ऊपर से दिख रहे बदलाव के बीच यह भी देखना होगा कि खुद महात्मा गांधी आरएसएस के बारे में क्या सोचते थे.
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महात्मा गांधी को इस संसार से विदा हुए आज 68 साल हो गए हैं. और इन सात दशक में उनके बहुत से आलोचक भी आखिरकार, गांधी मार्ग पर चलते हुए पाए गए. कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो भारत की तकरीबन हर राजनैतिक पार्टी और संगठन महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर ही रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे नरेंद्र मोदी ने जब महात्मा गांधी के चश्मे को अपनी सरकार का प्रतीक सा बना दिया तो, लगने लगा कि गांधी विचार के आगे भारत में सारी विचारधाराएं नतमस्तक हो गई हैं. लेकिन दूसरी विचारधाराओं में ऊपर से दिख रहे बदलाव के बीच यह भी देखना होगा कि खुद महात्मा गांधी आरएसएस के बारे में क्या सोचते थे?
वैसे तो गांधी जी ने समय-समय पर इस बारे में अपनी बातें दृढ़ता से रखीं और उनकी हत्या के बाद सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध भी लगाया. लेकिन यहां महात्मा गांधी की निजी सचिव रहे प्यारेलाल जी लिखित किताब ‘पूर्णाहुति’ (द लास्ट फेज) का जिक्र प्रासंगिक हो जाता है. निजी सचिव होने के अलावा प्यारेलाल जी बापू के अंतिम दिनों में लगातार उनके साथ रहे. डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा लिखित प्रस्तावना वाली पूर्णाहुति के चौथे खंड में प्यारेलाल जी ने 12 सितंबर 1947 को आरएसएस के एक नेता और गांधी जी के बीच के संवाद को कुछ ऐसे लिखा. यह जेहन में यह बात भी रहनी चाहिए कि उस समय दिल्ली शहर भयानक सांप्रदायिक दंगों से जल रहा था. यहां से किताब का उद्धरण शुरू होता है- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अधिनायक गांधी जी से मिलने आए. यह सबको मालूम था कि आरएसएस का शहर के और देश के दूसरे विविध भागों के हत्याकांड में मुक्चय हाथ था. परंतु इन मित्रों ने इस बात से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि हमारा संघ किसी का शत्रु नहीं है. वह हिंदुओं की रक्षा के लिए है, मुसलमानों को मारने के लिए नहीं है. वह शांति का समर्थक है.
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यह अतिशयोक्ति थी. परंतु गांधी जी को तो मानव स्वभाव में और सत्य की उद्धारक शक्ति में असीम श्रद्धा थी. उन्हें लगा कि हर मनुष्य को अपनी नेक नीयती साबित करने का अवसर देना चाहिए. आरएसएस के लोग बुराई करने में गौरव नहीं समझते इसका कुछ तो महत्व है ही. गांधीजी ने उनसे कहा, ‘‘आपको एक सार्वजनिक वक्तव्य निकालना चाहिए और अपने विरुद्ध लगाए आरोपों का खंडन करना चाहिए तथा मुसलमानों की हत्या करने और उन्हें सताने के कामों की निंदा करनी चाहिए, जो कि शहर में अब तक में हुआ है और अभी भी हो रहा है.’’ उन्होंने गांधीजी से कहा: आप खुद हमारे कहने के आधार पर ऐसा कर सकते हैं. गांधीजी ने उत्तर दिया: मैं अवश्य करूंगा. परंतु आप जो कुछ कह रहे हैं, उसमें यदि सचाई हो, तो ज्यादा अच्छा होगा कि जनता उसे आपके मुंह से सुने.
गांधी जी की मंडली के सदस्य बीच में ही बोल उठे: संघ के लोगों ने वाह के निराश्रित शिविर में बढिया काम किया है. उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है. गांधी जी ने उत्तर दिया, ‘‘परंतु यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था.’’ उन्होंने आरएसएस को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सामाजिक संस्था माना.’
थोड़े दिन बाद आरएसएस के नेता गांधी जी को अपने एक स्वयं सेवक सम्मेलन में ले गए, जो वे भंगीबस्ती में कर रहे थे. इस सम्मेलन में लंबे संवाद के बाद गांधीजी ने अंत में एक ही बात कही- मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आप के खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है, तो उसका परिणाम बुरा होगा.’’
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