आज गांधी पर हमला कहीं सोची समझी रणनीति तो नहीं है?
जिससे मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला, आंग सान सू जैसी हस्तियां प्रेरणा लेती हों, उसी गांधी को आज सोची समझी रणनीति के तहत दरकिनार करने की अनवरत कोशिश हो रही है.
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मोहन दास करमचन्द गांधी (2 अक्टूबर1869–30 जनवरी 1948) एक ऐसा नाम जिसके बिना भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति और राजनैतिक संलाप(डिस्कोर्स) की कल्पना भी नहीं की जा सकती. एक शख्स जिसके बारे में न जाने कितनी ही किवदंतियां प्रचलित हैं, जिसके बारे में आइंस्टाइन का कहना था कि, आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए इस बात पर विश्वास करना मुश्किल होगा कि हाड़-मांस का एक ऐसा मानव कभी पृथ्वी पर भी चला होगा. ओशो गांधी को इस दुनिया का सबसे शातिर राजनेता घोषित करते हैं. जिससे मुलाकात से पहले चार्ली चैपलिन जैसा सधा और मंझा हुआ अभिनेता नर्वस हो जाता है, उसकी हथेलियों में पसीना आने लगता है. जिससे मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला, आंग सान सू की जैसी हस्तियां प्रेरणा लेती हों. उसी गांधी को आज सोची समझी रणनीति के तहत दरकिनार करने की अनवरत कोशिश हो रही है.
गांधी जिसे हम समग्रता में समझने के बजाय सतही और छिछली बहसों के मार्फत याद करते हैं, कि वे किस तरह नेहरू के पक्षधर और सुभाष चंद्र बोस के विरोधी थे. वे किस तरह भगत सिंह की फांसी को रुकवा सकते थे. वे किस तरह भारत में व्याप्त जातिवादी व्यवस्था के पोषक थे. वे किस तरह एक गाल पर लगे तमाचे के बाद दूसरा गाल बढ़ा देने की बात किया करते थे. वे किस तरह उनके पुत्रों के लिए आदर्श पिता नहीं साबित हुए. वे किस तरह ब्रह्मचर्य के परीक्षण के लिए एक नाबालिग के साथ हमबिस्तर थे. वे किस तरह मुसलमानों के पक्षधर और हिन्दुओं के विरोधी थे. वे किस तरह भारत विभाजन की मुख्य वजह थे. वे किस तरह इंग्लैंड की सत्ता और व्यवस्था के नजदीक थे. वे किस तरह मशीनों के खिलाफ थे और न जाने क्या-क्या.
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एक ऐसा शख्स जिसे कभी अंबेडकर के बर-अक्स खड़ा किया जाता है तो कभी सुभाष, कभी पटेल तो कभी गोलवलकर के, जिसे सांप्रदायिकता की बहस में मुसलमानों का पैरोकार साबित करने की कोशिश की जाती है. मगर इस बहस को खड़ी करने वालों को इस बात का अंदाजा तक नहीं है कि गांधी क्या हैं? और आम जनमानस में उनकी क्या छवि है. पिछली सरकारों ने जहां सिलसिलेवार ढंग से गांधी को पहले नोटों, चरखों और तारीखों तक सीमित कर देना चाहा वहीं तत्कालीन सरकार गांधी को लोगों के जेहन से भी हटा देना चाहती है. गांधी की जन्मतिथि 2 अक्टूबर जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' घोषित किया है. उसे पिछली सरकारों ने पहले महज छुट्टी और तत्कालीन सरकार ने इसे स्वच्छता अभियान का प्रतीकात्मक अभियान बना कर उनके प्रभाव व आभामंडल को कम से कमतर करने की पुरजोर कोशिश की है. आखिर देश के प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपिता के नाम को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कई बार गलत उद्धरित करना क्या संदेश देता है? गांधी की हत्या के इतने वर्ष बीतने के बाद उनके हत्यारे गोडसे की मूर्तियों को स्थापित करने और उसे शहीद के तौर पर महिमामंडित किए जाने के क्या मायने निकाले जाएं? गांधी की राजनीति और सोच से मेल न रखने वालों द्वारा भारत सरकार का संचालन और फिर उन्हें नजरअंदाज करते हुए दोयम दर्जे का साबित कर देने के कुछ तो मायने हैं ही. आखिर एक शख्स जो आज से कई वर्ष पहले शारीरिक रूप से मार दिया गया, मगर जिसकी वैचारिक संततियां आज भी जगह-जगह सत्ता और तंत्र से लोहा लेती दिखलाई पड़ जाती हैं उससे कोई कैसे पार पाए.
एक ऐसा शख्स जो शारीरिक रूप से दिखने में जितना ही जीर्ण-शीर्ण, मानसिक रूप से उतना ही मजबूत. एक शख्स जो शतरंज के माहिर खिलाड़ियों की तरह विपक्षियों की चालें बहुत पहले भांप जाता हो. जो सत्ता और व्यवस्था से लड़ने के लिए पहले जनमानस को तैयार करने में विश्वास रखता हो. जो शख्स सत्ता के विकेंद्रीकरण में विश्वास रखता हो. एक बार तय कर लेने के बाद पूरी शक्ति से उस काम को करने या न करने में जुट जाता हो चाहे पूरी दुनिया ही उसके खिलाफ क्यों न हो. एक शख्स जिसने पढ़ा बहुत ज्यादा मगर लिखा बहुत कम और जिसकी जिंदगी व कर्म ही जनता के लिए संदेश और नज़ीर है, उसी शख्स को उसकी ही फिलॉसफी की आड़ लेकर घेरने की बात करना न ही बचकाना है और न ही अनभिज्ञता, बल्कि इसे वर्तमान दौर में भारत की सत्ता पर विराजमान दक्षिणपंथी पार्टियों और उन्हें कभी परोक्ष तो कभी प्रत्यक्ष सहयोग करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों की सोची-समझी रणनीति के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता.
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