ममता बनर्जी को विपक्ष की राजनीति में घुटन क्यों महसूस होने लगी?
पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से विपक्ष की राजनीति (Opposition Politics) में एक्टिव हुईं ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) राष्ट्रपति चुनाव की तारीख आते आते यू-टर्न के करीब नजर आने लगी हैं - अब तो शरद पवार (Sharad Pawar) भी साथ हैं, फिर किस बात का डर लग रहा है?
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की नजर दिल्ली की तरफ पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान ही अटक गयी थी. तभी ये बोल भी दिया था कि एक पैर से बंगाल और दो पैरों से वो दिल्ली भी जीतेंगी. चुनाव नतीजे आने के बाद ममता बनर्जी ने एक्शन में भी वैसा ही दिखाने की कोशिश की थी, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव आते आते ऐसा लग रहा है कि यू-टर्न लेकर कोलकाता लौट जाने के बारे में सोचने लगी हैं.
चाहे जिस हिसाब से देखें राष्ट्रपति चुनाव विपक्ष (Opposition Politics) के लिए 2014 के आम चुनाव की तैयारी के लिए बेहतरीन मौका रहा, लेकिन अब तो ऐसा लगता है जैसे पूरा विपक्षी खेमा पूरी तरह चूक गया हो. हालात भी खिलाफ ही रहे हैं, लेकिन अवसर भी तो आपदा में ही देखे जाते हैं. राजनीति में तो ऐसा अक्सर ही देखने को मिलता है.
सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से आयी आपदा के बीच ममता बनर्जी के लिए तो विपक्ष की राजनीति में अपना सिक्का चमकाने का बढ़िया ही अवसर रहा, लेकिन अचानक उनकी दिलचस्पी कम क्यों नजर आने लगी है?
अभी तो ऐसा बिलकुल भी नहीं लग रहा है कि शरद पवार (Sharad Pawar) कहीं से भी ममता बनर्जी का साथ देने से पीछे हटते नजर आ रहे हों, फिर भी ममता बनर्जी हद से ज्यादा परेशान लग रही हैं. ये तो ऐसा मौका रहा जब ममता बनर्जी अपनी नैसर्गिक फाइटर वाली प्रतिभा के साथ आगे बढ़तीं और सब मुट्ठी में कर लेतीं - लेकिन दूर दूर तक ऐसा कुछ होता दिखाई तो नहीं ही पड़ रहा है.
राष्ट्रपति चुनाव के लिए बने माहौल के बीच ही उप राष्ट्रपति चुनाव की भी तैयारियां शुरू हो चुकी हैं, लेकिन ममता बनर्जी की तरफ से कोई पहल तक नहीं महसूस की जा रही है - कहीं ममता बनर्जी ने बाकी बवाल छोड़ कर बंगाल में ही कुंडली मार बैठ जाने का फैसला तो नहीं कर लिया है?
ममता का बैकफुट पर चले जाना
ये तोआसानी से समझा जा सकता है कि राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी ममता के लिए थकाऊ तो साबित हुई है. सबसे बड़ी चुनौती तो विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाने की रही. ममता बनर्जी ने वो काम तो आराम से कर लिया. वैसे मीटिंग की राह सुगम बनाने के लिए ममता बनर्जी को सोनिया गांधी और राहुल गांधी की मजबूरियों का शुक्रगुजार भी होना चाहिये.
हो सकता है, ममता बनर्जी को अकाली दल के बादल परिवार, बीएसपी की मायावती और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस का एनडीए उम्मीदवार का समर्थन करना अच्छा न लगा हो, लेकिन जो साथ खड़े हैं उनके साथ तो कंधे से कंधा मिला कर चलने की कोशिश करनी ही चाहिये थी.
ममता बनर्जी को विपक्ष की राजनीति में दबदबा कायम करने का अभी से बेहतर मौका शायद ही मिले, चाहें तो यशवंत सिन्हा से पूछ सकती हैं.
मीटिंग में आने को अरविंद केजरीवाल और के. चंद्रशेखर राव दोनों ही नहीं आये थे, लेकिन बाद में टीआरएस नेता ने यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी का सपोर्ट कर अपना इरादा भी साफ कर दिया. सुनने में आ रहा है कि जल्द ही आम आदमी पार्टी भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर फैसला लेने वाली है - और वो फैसला भी ममता बनर्जी के खिलाफ जाएगा, ऐसा नहीं माना जा रहा है. 2027 के राष्ट्रपति में भी अरविंद केजरीवाल ने विपक्षी की उम्मीदवार मीरा कुमार को ही वोट दिया था.
निश्चित तौर पर ममता बनर्जी को मनमाफिक उम्मीदवार न मिल पाने से निराशा हुई होगी. ममता बनर्जी ने जिन लोगों की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखा, सारे ही पीछे हट गये. शरद पवार और गोपाल कृष्ण गांधी की कौन कहे, फारूक अब्दुल्ला तक ने ममता बनर्जी का प्रस्ताव ठुकरा दिया - और आखिर में थक हार कर यशवंत सिन्हा को आगे करना पड़ा, लेकिन विडंबना देखिये कि आदिवासी वोटों के डर से अब तो ये भी समझ में नहीं आ रहा है कि विपक्षी कैंडिडेट के साथ ममता बनर्जी खड़ी भी हैं या नहीं?
उपराष्ट्रपति चुनाव से ममता ने मुंह मोड़ लिया है: 18 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटिंग है - और उससे पहले 13 या 14 जुलाई तक विपक्ष की तरफ से उप राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम फाइनल किये जाने की संभावना जतायी जा रही है, लेकिन हैरानी की बात ये है कि तृणमूल कांग्रेस नेता की अब तक किसी भी तरह की दिलचस्पी नहीं देखने को मिली है.
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर ममता बनर्जी के कदम पीछे खींच लेने के बाद एनसीपी नेता शरद पवार ने कमान संभालने की कोशिश की है. हाल ही में शरद पवार ने तस्वीरें शेयर करते हुए ट्विटर पर बताया था कि उनके दिल्ली आवास पर राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मीटिंग हुई. मीटिंग में यशवंत सिन्हा के चुनाव प्रबंधन का काम देख रहे सुधींद्र कुलकर्णी भी मौजूद थे. सुधींद्र कुलकर्णी, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी के लंबे समय तक सहयोगी रहे हैं.
ये भी मालूम हुआ है कि ममता बनर्जी के यशवंत सिन्हा को लेकर पीछे हट जाने के बाद उनके दौरों की निगरानी का काम भी शरद पवार ही कर रहे हैं. पहले तो यशवंत सिन्हा के कैंपेन में भी आत्मविश्वास की पूरी झलक देखी जा रही थी, लेकिन अब तो लगता है जैसे उम्मीदवारी ही उनके कंधों पर बोझ बन गयी है और मजबूरी में जैसे तैसे ढोये जा रहे हैं.
विपक्ष के हिस्से की उप राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी एक बार फिर कांग्रेस के पास चली गयी है. कांग्रेस की तरफ से सीनियर नेता मल्लिकार्जुन खड़्गे और जयराम रमेश उप राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाने की कोशिश कर रहे हैं.
मुर्मू के डर से ममता ने मैदान छोड़ा: कहने को तो ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी पर आम राय न बनाने की तोहमत भी बीजेपी पर ही मढ़ने की कोशिश की, लेकिन उसके साथ ही लगा जैसे मैदान ही छोड़ दी हों.
ममता बनर्जी ने बीजेपी पर इल्जाम लगाया कि अगर बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू का नाम पहले ही बता दिया होता तो आम राय बन सकती थी और विपक्ष को अपना उम्मीदवार खड़ा करने की कोई जरूरत नहीं होती. लगे हाथ ममता बनर्जी ने ये भी जोड़ दिया कि राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू की जीत के चांस ज्यादा हैं.
असल बात तो ये है कि ममता बनर्जी के मन में आदिवासी वोटों को लेकर डर पैदा हो गया है. जाहिर है ये डर 2024 के आम चुनावों से ही जुड़ा हुआ होगा. पश्चिम बंगाल में संथाल आदिवासियों की खासी तादाद है - और राज्य में जितने भी आदिवासी हैं 80 फीसदी संथाल ही हैं - और द्रौपदी मुर्मू भी संथाल समुदाय से ही आती हैं.
संथाल समुदाय की आबादी पश्चिम बंगाल की 5 लोक सभा सीटों और 30 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में फैली हुई है - और ममता बनर्जी को डर लग रहा है कि कहीं अगले आम चुनाव में ही संथाल आदिवासियों की नाराजगी की कीमत तृणमूल कांग्रेस को न चुकानी पड़े.
ममता के लिए बड़ा मौका था, चूक गयीं
अगर द्रौपदी मुर्मू की मुखालफत से आदिवासी की नाराजगी का डर है तो ममता बनर्जी के पास रास्ते और भी थे. बिना मतलब कन्फ्यूजन पैदा करके कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. ममता बनर्जी ने जो रास्ता अपनाया है, विपक्षी खेमा तो दूर होगा ही ये भी हो सकता है कि संथाल आदिवासी भी आने वाले चुनाव में कन्फ्यूजन में दूरी बना लें.
अगर ममता बनर्जी सार्वजनिक तौर पर ये घोषणा कर देतीं कि वो यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी वापस ले रही हैं, तो भी ज्यादा नुकसान नहीं होता. तकनीकी तौर पर उम्मीदवारी से वापसी भले ही संभव न हो तो भी एक घोषणा ही तो करनी है - ये कोई प्रत्यक्ष चुनाव तो है नहीं कि पूरे अवाम तक बात पहुंचानी जरूरी हो.
बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन गांधी परिवार की अपनी उलझनों की वजह से ममता बनर्जी के लिए खुल कर खेलने का ये बहुत बड़ा मौका है - अभी तो कुछ कहने की भी जरूरत नहीं होती , वो चाहतीं तो अपने हिसाब से हर तरीके का 'खेला' कर सकती हैं.
सोनिया गांधी अपनी तबीयत ठीक होने का इंतजार कर रही हैं, और प्रवर्तन निदेशालय उनसे पूछताछ की प्रतिक्षा में बैठा हुआ है. राहुल गांधी से नेशनल हेराल्ड मनी लॉन्ड्रिंग केस में पांच दिन की पूछताछ हो चुकी है. हो सकता है, सोनिया गांधी से पूछताछ के बाद भी उनको पेश होने के लिए कहा जाये.
कहने का मतलब ये है कि जब तक राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों ही प्रवर्तन निदेशालय के पचड़ों से उबर नहीं जाते, कांग्रेस की सारी राजनीतिक गतिविधियां यूं ही ऑटो मोड में चलती रहेंगी. अभी तो ऐसा भी नहीं है कि ममता बनर्जी के दिल्ली आते ही राहुल गांधी विपक्षी दलों के नेताओं को बुलाकर मीटिंग करने लगें.
कभी ऐसा रहा कि शरद पवार भी ममता बनर्जी को मिलने के लिए समय नहीं दे रहे थे, लेकिन महाराष्ट्र की महाविकास आघाड़ी सरकार चले जाने के बाद उनके भी रिमोट की बैट्री डाउन चल रही है. ये ठीक है कि शरद पवार ने राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का उम्मीदवार बनने से पहले ही इनकार कर दिया था, लेकिन जब ममता बनर्जी ने मीटिंग बुलायी तो प्रफुल्ल पटेल को भी लेकर पहुंचे थे.
अभी तो ममता बनर्जी चाहें तो शरद पवार कदम कदम पर साथ देने को तैयार मिलेंगे. उससे इतर भी देखें तो हेमंत सोरेन और एमके स्टालिन को छोड़ कर कोई भी ममता बनर्जी का विरोध करने की स्थिति में नहीं है - टीआरएस नेता केसीआर भी यशवंत सिन्हा को समर्थन देकर अपना स्टैंड साफ ही कर चुके हैं.
और ये तो तय है कि अगर वक्त रहते ममता बनर्जी ने बीजेपी के खिलाफ काउंटर इंतजाम नहीं किये, तो वो दिन दूर नहीं जब उनका हाल भी नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे जैसा ही हो जाएगा.
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