मायावती ने BJP का रिश्ता कबूल तो कर लिया - बदले में मिलेगा क्या?
उत्तर प्रदेश में राज्य सभा चुनाव के बाद सारे राजनीतिक समीकरण बदलने वाले हैं - अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के खिलाफ मायावती (Mayawati) ने बीजेपी से (BJP) हाथ मिलाने का संकेत दे दिया है, लेकिन बदले में मिलेगा क्या?
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उत्तर प्रदेश में हो रहे राज्य सभा की 10 सीटों के लिए चुनाव में नये राजनीतिक समीकरण साफ साफ नजर आने लगे हैं. बीएसपी और समाजवादी पार्टी से जुड़े कुछ राजनीतिक घटनाक्रम के बाद बीजेपी (BJP) के प्रति मायावती (Mayawati) का सॉफ्ट कॉर्नर मजबूती से उभर कर सामने आया है - ये कहना तो अभी मुश्किल होगा कि ये सब 2022 के विधानसभा चुनाव तक कायम रहने वाला है, लेकिन एक खास राजनीतिक गोलबंदी की तरफ इशारा तो मिल ही रहा है.
बीएसपी नेता मायावती का ये कहना कि समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को हराने के लिए वो बीजेपी का भी साथ दे सकती हैं, भविष्य के राजनीतिक गठबंधन की एक रफ तस्वीर तो खींच ही रहा है. कोरोना वायरस और लॉकडाउन के बाद के राजनीतिक स्टैंड और बयानों पर गौर करें तो कई बार लगा कि मायावती कांग्रेस के खिलाफ उन मुद्दों पर भी रिएक्ट करती रही हैं जिस पर बीजेपी को ऐतराज होना चाहिये. मायावती चुप भी रह जातीं तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. तभी तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने मायावती को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक बता डाला था.
चुनाव दर चुनाव बीएसपी की हार के बाद ये तो साफ हो चुका है कि मायावती अकेले बूते कुछ कर पाने में अक्षम होती जा रही हैं. मार्केट में पांव जमाये रखने के लिए गठबंधन की जरूरत पड़ रही है और सत्ता में होने चलते मायावती को बीजेपी के साथ होने में ही भविष्य दिखायी दे रहा है - लेकिन बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी को मायावती की कितनी जरूरत है और बदले में वो क्या देने वाली है?
BJP-BSP में ऐसी दरियादिली क्यों
बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जिस तरह की दरियादिली दिखायी है, वो पार्टी की राजनीतक मंशा के हिसाब से काफी दुर्लभ स्टैंड लगता है. बदले में बीएसपी की दरियादिली काफी दिनों से मिल रहे संकेतों की ही पुष्टि लगती है - मायावती आगे से खुल कर बीजेपी के सपोर्ट में खड़ी नजर आ सकती हैं. अब तक जो कुछ परदे के पीछे चल रहा था वो सार्वजनिक तौर पर भी देखने को मिल सकता है.
राज्य सभा को लेकर बीते चुनावों की बात करें तो मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान और गुजरात तक बीजेपी उन सीटों पर भी उम्मीदवार उतार देती देखी गयी है जिस जीत की जरा भी संभावना न हो. कभी कभी फायदा भी हो जाता है. यूपी के मामले में बीजेपी का स्टैंड बिलकुल अलग देखने को मिला है.
बीजेपी को यूपी में अपने नौवें उम्मीदवार की जीत पक्की करने के लिए महज 13 वोटों का इंतजाम करना पड़ता लेकिन बीजेपी ने यूं ही छोड़ दिया. माना गया कि बीजेपी ने वो सीट बीएसपी के लिए छोड़ दी जिसके पास महज 18 वोट ही हैं और वो राज्य सभा की एक भी सीट जीतने में सक्षम नहीं है. बीएसपी के पास जो विधायक हैं उनमें भी कई बागी हो चुके हैं - और मुख्तार अंसारी पंजाब की जेल में ही हैं.
मायावती को बीजेपी का सपोर्ट करने के बावजूद नीतीश कुमार जितना भी नहीं मिलने वाला है
राज्य सभा की एक सीट के लिए यूपी के 37 विधायकों के वोटों की दरकार होती है, बीजेपी के पास 16 समर्थकों सहित कुल 320 वोट हैं - और इनमें से 296 वोट आठ उम्मीदवारों को जिताने के लिए काफी हैं. बचे हुए 24 वोटों के बूते बीजेपी एक उम्मीदवार तो खड़ा कर ही सकती थी, लेकिन अगर ऐसा नहीं किया तो निश्चित तौर पर ये बीएसपी की मदद के लिए ही किया गया इंतजाम है.
सूत्रों के हवाले से आयी कुछ मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि ये मध्य प्रदेश उपचुनाव में बीएसपी की मदद के एवज में यूपी में एक्सचेंज ऑफर भी हो सकता है. वोटों के बंटवारे में अगर बीएसपी मध्य प्रदेश में बीजेपी की मदद कर देती है तो 28 सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव में पार्टी की राह काफी आसान हो सकती है.
डील जो भी हुई हो, ऐसे लक्षण तो काफी दिनों से देखने को मिल ही रहे हैं. खास कर लॉकडाउन के बाद से. लॉकडाउन के ठीक पहले ही तो मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो गया था - और कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ के इस्तीफे के बाद बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान कुर्सी पर बैठ गये थे.
कांग्रेस के खिलाफ तो मायावती आम चुनाव के पहले भी हमलावर रहीं, लेकिन बाद में अखिलेश यादव के साथ हुआ गठबंधन तोड़ लेने के बाद तो ऐसा लग रहा था जैसे बीएसपी नेता को कांग्रेस के खिलाफ बस मौके की तलाश हो. CAA विरोध प्रदर्शनकारियों के घर प्रियंका गांधी वाड्रा का जाना रहा हो, या प्रवासी मजदूरों के लिए कांग्रेस की तरफ बसें भेजने का, यहां तक कि मायावती को प्रवासी मजदूरों से दिल्ली के फ्लाईओवर पर जाकर मुलाकात करना भी गंवारा नहीं था. राजस्थान की राजनीतिक उठापटक के दौरान भी बीएसपी काफी एक्टिव रही. उसमें तो स्वाभाविक भी था क्योंकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बीएसपी के सभी विधायकों को कांग्रेस ज्वाइन करा दिया था.
एक बार तो मायावती के एक स्टैंड पर प्रियंका गांधी वाड्रा ने बीएसपी नेता को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता ही बता डाला - और अब तो मायावती ने खुद ही बयान देकर कांग्रेस को बोलने का मौका दे दिया है.
इसके बाद भी कुछ बाकी है? pic.twitter.com/WGNxMWq9gh
— Priyanka Gandhi Vadra (@priyankagandhi) October 29, 2020
बीजेपी को मायावती की कितनी जरूरत है
मायावती ने बीजेपी को लेकर जो बयान दिया है, वो अचानक हुआ हो ऐसा भी नहीं है. जो बात अभी तक संकेतों में नजर आती थी, बस तस्वीर साफ हो गयी है. मायावती ने अब जो नयी लाइन दिखायी है वो कहां तक टिकाउ रहने वाली है ये एक बड़ा सवाल ही होगा.
मायावती ने अखिलेश यादव के साथ चुनाव गठबंधन किया था तो उसमें दोनों के फायदे साफ साफ नजर आ रहे थे. हालांकि, चुनाव नतीजे आये तो मालूम हुआ कि मायावती को ही गठबंधन का ज्यादा फायदा मिला और अखिलेश यादव के लिए तो सबसे बड़ा नुकसान ये रहा कि उनकी पत्नी डिंपल यादव भी चुनाव हार गयीं. फिर भी अखिलेश यादव ने कुछ नहीं बोला, बल्कि मायावती ने ही एकतरफा गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर डाली.
अब मायावती कह रही हैं कि वो अखिलेश यादव को छोड़ने वाली नहीं हैं. मायावती अब 1995 के गेस्ट हाउस कांड केस को वापस लेने को भी अपनी बड़ी भूल बता रही हैं. आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के बाद, मायावती बता रही हैं कि ऐसा अखिलेश यादव के बार बार कहने के दबाव में करना पड़ा था.
मायावती ने तब बीजेपी को रोकने के लिए अपने जान की दुश्मन समझने वाली समाजवादी पार्टी से चुनावी गठबंधन किया था - और मैनपुरी पहुंच कर गेस्ट हाउस कांड जैसा दर्द देने वाले मुलायम सिंह यादव के लिए वोट भी मांगा था, लेकिन अब वही मायावती सब कुछ उलट पलट देना चाहती हैं. मायावती ने नयी परिस्थितियों में दुश्मन बदल लिया है और जो जगह समाजवादी पार्टी को दी थी वही अब बीजेपी को देने जा रही हैं. कह भी रही हैं कि 2003 में मुलायम सिंह यादव ने बीएसपी तोड़ी तो उनकी बुरी गति हो गयी - और अब अखिलेश यादव का उससे भी बुरा हाल होने वाला है. तब मुलायम सिंह यादव ने बीएसपी के 13 विधायकों को तोड़ कर बीजेपी के सपोर्ट से सरकार बना ली थी, मायावती उसी वाकये की याद दिला रही हैं. हालांकि, बाद में मामला अदालत पहुंचा और विधायकों की सदस्यता रद्द हो गयी, लेकिन इतनी देर हो चुकी थी कि उसका कोई मतलब नहीं रह गया था.
सवाल ये है कि मायावती अगर बीजेपी से हाथ मिलाती हैं तो किस तरीके के खांचे में फिट होना चाहती हैं?
2019 का आम चुनाव पूर्ण बहुमत से जीतने के बाद बीजेपी के लिए एनडीए के साथियों की अहमियत कम हो गयी. टकराव की शुरुआत तो कैबिनेट के गठन के साथ ही हो गयी थी जब नीतीश कुमार ने बाहर रहने का फैसला कर लिया. बाद में महाराष्ट्र के बदले राजनीतिक हालात में शिवसेना और अभी अभी किसानों के मुद्दे पर शिरोमणि अकाली दल ने भी एनडीए छोड़ दिया है.
मोदी कैबिनेट में अब बीजेपी से बाहर सिर्फ आरपीआई वाले रामदास आठवले बचे हैं जो बीजेपी से बाहर के मंत्री हैं. महाराष्ट्र से जुड़े कई मामलों में रामदास आठवले को खासा एक्टिव भी देखा गया है, खासकर कंगना रनौत के मामले में. कंगना रनौत के स्वागत के लिए एयरपोर्ट पर आरपीआई कार्यकर्ताओं को भेजने और कंगना के घर जाकर मुलाकात करने से लेकर राज्यपाल से मिल कर शिकायत दर्ज कराने तक.
क्या मायावती भी अब बीजेपी के साथ रामदास आठवले जैसे खांचे में भी फिट होना चाहती हैं - क्योंकि बीजेपी मायावती के लिए बहुत ज्याता शेयर तो करने वाली है नहीं.
बीजेपी ने अपने बूते यूपी में सरकार बनायी है और विपक्ष की जो हालत है, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बीच 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के सामने कोई खतरा भी नजर नहीं आ रहा है. ऐसे में बीजेपी मायावती को वो ज्यादा से ज्यादा वो स्थान दे सकती है जो ओम प्रकाश राजभर को दिया था या फिर अनुप्रिया पटेल भी अलग हो गयीं तो दोनों के हिस्से वाला.
अगर कोई बड़ी मजबूरी न हो तो मायावती बीजेपी के साथ अपने फायदे के हिसाब से कोई गठबंधन कर पाएंगी ऐसा तो नहीं लगता. अगर बीएसपी और बीजेपी में कोई गठबंधन या समझौता होता है तो भी फायदे का पलड़ा बीजेपी की तरफ ही झुका दिखेगा, ऐसा पहले से ही साफ है.
बीजेपी को यूपी में सत्ता की राजनीति के लिए किसी भी दल के साथ गठबंधन की फिलहाल जरूरत नहीं है - और काफी हद तक अगली बार के लिए भी ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आ रही है, लेकिन एक जरूरत जरूर है - विपक्ष को खत्म करने की. अगर मायावती अखिलेश यादव और कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दें तो बीजेपी को मायावती की मदद लेने में कोई गुरेज नहीं होनी चाहिये.
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