एक ओर कुआं है, दूसरी तरफ खाई - मायावती को विपक्षी मदद की कीमत तो चुकानी होगी
मायावती के उपचुनाव लड़ने की संभावना से कुछ सवाल भी उठे हैं. मसलन, क्या मायावती के इस्तीफे की वजह भी यही रही और सब कुछ प्रायोजित था? या मायावती के इस्तीफे के बाद पैदा हुई स्थिति को लेकर विपक्ष की ये डैमेज कंट्रोल कवायद है?
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नियम बनाने के पीछे मकसद होते हैं. जब मकसद पूरे होने में बाधा बने तो तोड़ देना ही बेहतर होता है.
मायावती ने दो नियम बनाये थे. एक, बहुजन समाज पार्टी चुनाव से पहले कोई गठबंधन नहीं करेगी. दूसरा, बीएसपी कोई उपचुनाव नहीं लड़ेगी.
हालात ने मायावती को राजनीति के ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है कि उन्हें ये दोनों नियम तोड़ने पड़ सकते हैं - और वो भी एक ही साथ. खबर है मायावती को फूलपुर लोक सभा सीट से उपचुनाव लड़ाने की तैयारी चल रही है.
संकटमोचक बने लालू
एक तरफ लालू प्रसाद पटना रैली की तैयारी कर रहे हैं, साथ ही साथ, चारा घोटाले में पेशी की हर तारीख पर रांची के स्पेशल कोर्ट में हाजिरी भी लगा रहे हैं. लालू ने खुद को पॉलिटिकल आदमी बता पेशी से छूट मांगी थी, लेकिन अर्जी नामंजूर हो गयी. फिर भी लालू, एक ही साथ कई मोर्चों पर जूझ रहे हैं.
लालू इसके साथ ही मायावती के लिए सबसे बड़े संकटमोचक बन कर उभरे हैं. वैसे ये भी सच है कि इससे बीजेपी के खिलाफ उनका वार और धारदार होने की संभावना बढ़ गयी है. जैसे ही मायावती ने राज्य सभा से इस्तीफे की घोषणा की, लालू ने तपाक से उन्हें बिहार से राज्य सभा में भेजने का प्रस्ताव रखा. मायावती ने इसे न तो इंकार किया और न ही इकरार जैसी कोई बात सामने आई. इसी दौरान मायावती राज्य सभा के लिए दोबारा इस्तीफा लिखा और वो मंजूर भी हो गया.
हाथ मिलाने की कीमत तो होती ही है...
अब खबर आई है कि मायावती फूलपुर संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव लड़ सकती हैं. असल में फूलपुर सीट यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफा देने से खाली हुई है. हालांकि, यूपी में ऐसी दो और सीटें भी हैं - एक, गोरखपुर जहां से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सांसद हैं - और दूसरी, सिद्धार्थनाथ सिंह वाली जो योगी सरकार में मंत्री बन चुके हैं.
मायावती के उपचुनाव लड़ने की संभावना से कुछ सवाल भी उठे हैं. मसलन, क्या मायावती के इस्तीफे की वजह भी यही रही और सब कुछ प्रायोजित था? या मायावती के इस्तीफे के बाद पैदा हुई स्थिति को लेकर विपक्ष की ये डैमेज कंट्रोल कवायद है?
2014 में खिला कमल, आगे क्या?
फूलपुर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र रहा है. उनके निधन के बाद उनकी बहन और कांग्रेस नेता विजयलक्ष्मी पंडित यहां से सांसद रहीं. फूलपुर का प्रतिनिधित्व करने वालों में पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र से लेकर बाहुबली अतीक अहमद तक के नाम शामिल हैं. 2014 की मोदी लहर में पहली बार यहां कमल खिला और केशव मौर्या संसद पहुंचे जिन्हें चुनाव से पहले अमित शाह ने यूपी बीजेपी की कमान सौंप दी थी. मौर्या के खिलाफ कांग्रेस ने पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद कैफ को मैदान में उतारा था.
यूपी चुनाव के नतीजों के बाद लालू प्रसाद ने समाजवादी पार्टी और बीएसपी को मिले वोटों के आधार पर दलील दी थी कि अगर वे साथ चुनाव लड़े होते तो रिजल्ट बिलकुल अलग होता.
अब अगर मायावती विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरती हैं तो उसके कई मैसेज होंगे. पहला तो मोदी सरकार के राष्ट्रपति चुनाव से शुरू किये गये दलित कार्ड को मीरा कुमार के बादू दूसरा मजबूत चैलेंज होगा. संसद में नहीं बोलने देने का इल्जाम लगाकर इस्तीफा देने वाली मायावती के लिए सड़क की लड़ाई अपेक्षाकृत मजबूत हो पाएगी. विपक्षी एकता के हिसाब से देखें तो 2019 के लिए ये एक अच्छा रिहर्सल होगा.
वोटों के हिसाब से भी ये सीट मायावती की उम्मीदवारी को काफी हद तक सूट करती है. खासकर, मौजूदा माहौल और बदले राजनीतिक समीकरणों के बीच. ये तो तय हो चुका है कि लालू की पटना रैली में मायावती के साथ अखिलेश यादव भी मंच शेयर करेंगे. उसके बाद मायावती और अखिलेश के यूपी में भी जगह जगह रैलियां करने की चर्चा है. फूलपुर सीट पर वे सारे वोट बैंक मिलते हैं जिनकी विपक्ष को जरूरत है. वहां दलित वोट हैं जो मायावती के अपने हैं. मुस्लिम वोट हैं जो यूपी चुनाव में मायावती को नहीं मिले लेकिन मॉब लिंचिंग को उपजे आक्रोश का विपक्ष बीजेपी के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है. इस सीट पर अति पिछड़े वर्ग के भी वोट हैं जो बीजेपी की ओर हो चुके हैं और विपक्ष खास कर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी वापस लेने की कोशिश कर रहे हैं.
ऐसे में अगर मायावती फूलपुर से जीत जाती हैं तो विपक्षी एकता को काफी मजबूती मिलेगी और आगे बीजेपी को कड़ी टक्कर की संभावना बढ़ जाएगी. मगर, मायावती की मुश्किलें भी इसके साथ ही बढ़ेंगी ये भी तय है.
बाकी छोड़िये, नेता कौन होगा?
मायावती ने अभी तक दलित वोटों के बूते एकछत्र राज किया है. जब मन किया गठबंधन किया और जब मर्जी हुई सपोर्ट वापस लेकर सरकार गिरा दी. इस बार भी चुनाव से पहले गठबंधन न करने के पीछे मायावती की सोच यही रही कि खुद के बूते बहुमत हासिल होने पर किसी की मदद न लेनी पड़े. अगर किसी का साथ नहीं मिलता फिर तो उनके राज्य सभा में दोबारा पहुंचने के भी लाले पड़ते.
मायावती अगर चुनाव लड़ कर जीत जाती हैं तो फायदा बस इतना ही होगा कि उनकी राजनीति खत्म होने से बच जाएगी. चूंकि ये सब दूसरों की मदद से हासिल होगा इसलिए मायावती को इसकी कीमत भी चुकानी होगी तय है.
आगे चलने पर नेता चुने जाने की बात आएगी. एक सूरत तो ये हो सकती है कि गठबंधन के तहत सीट शेयर हो और सभी अपनी अपनी पार्टी को चुनाव में उतारें. बाद में जिसकी ज्यादा सीटें हों वो बिहार जैसे संभावित महागठबंधन का नेता और यूपी का सीएम बने.
अगर ऐसा न हो पाये और बिहार की तरह ही चुनाव से पहले ही नेता चु्ने जाने की बात हो. ऐसे में बिहार की ही तरह दो दावेदार होंगे - मायावती और अखिलेश यादव. याद कीजिए बिहार के मामले में पता चला था कि कांग्रेस ने हस्तक्षेप कर नीतीश को नेता बनवाया था.
यूपी में महागठबंधन का नेता चुनने की नौबत आई तो क्या होगा? जिस तरह से कांग्रेस बिहार का महागठबंधन बचाने में लगी है और यूपी के मामले में भी उसका महत्व और दबदबा बरकरार रहता है तो वो किसे नेता के रूप में देखना चाहेगी? जाहिर है मायावती कांग्रेस की पहली पसंद तो नहीं ही होंगी - क्योंकि कांग्रेस को तो यूपी के लड़कों का ही साथ पसंद है.
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