मुरली मनोहर जोशी के 'निडर नेतृत्व' वाले बयान से बीजेपी और कांग्रेस में सस्पेंस
बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी चाहते हैं कि देश में एक निडर नेतृत्व ऐसा हो जो प्रधानमंत्री से बेखौफ होकर और नाराजगी की परवाह किये बगैर सवाल पूछ सके - लेकिन अभी तक खुद जोशी ने ऐसा क्यों नहीं किया?
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बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी को देश में एक निडर नेतृत्व की सख्त जरूरत महसूस हुई है. जोशी का ये बयान कांग्रेस नेता एस. जयपाल रेड्डी के निधन उपरांत हुई श्रद्धांजलि सभा से आया है, जिसमें उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी पहुंचे थे.
मुरली मनोहर जोशी ने ऐसे नेतृत्व से होने वाले फायदे भी बताये हैं - लेकिन ये साफ नहीं किया है कि ऐसा कोई नेतृत्व BJP में ही होना चाहिये या फिर बाहर यानी विपक्षी खेमे में?
मुरली मनोहर जोशी के निशाने पर कौन नेता हैं?
देखा जाये तो मुरली मनोहर जोशी और एस. जयपाल रेड्डी का वैचारिक तौर पर कभी कोई मेल नहीं रहा. कहां मुरली मनोहर जोशी खांटी संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले और कहां जयपाल रेड्डी समाजवादी से लेकर कांग्रेस तक घूमते रहने वाले, लेकिन दक्षिणपंथ के तो कट्टर विरोधी रहे. फिर भी जोशी ने रेड्डी की दिल खोल कर तारीफ की है. जोशी ने 90 के दशक को याद करते हुए कहा कि केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी वो अक्सर सरकार के रूख से अलग राय ही रखा करते रहे. तब वो बौद्धिक संपदा अधिकारों पर चर्चा के लिए बने एक फोरम के सदस्य थे और हमेशा वो अलग मोड़ पर खड़े नजर आते थे. जोशी ने कहा, 'वो आखिर तक अलग अलग मुद्दों पर... हर स्तर पर अपने विचार रखते थे... चाहे फिर वो फोरम के सदस्य के तौर पर हो, जनता पार्टी के सदस्य के तौर पर हो या फिर कांग्रेस पार्टी के सदस्य के तौर पर - मुद्दों पर कभी समझौता नहीं किया'. जयपाल रेड्डी के व्यक्तित्व की तारीफ से आगे बढ़ते हुए ही जोशी ने देश के लिए एक निडर नेतृत्व की जरूरत बतायी - जो सिद्धांतों पर डटा रहे और बगैर किसी बात की फिक्र किये अपने बात कहीं भी किसी भी मंच पर बैखौफ होकर रख सके.
मुरली मनोहर जोशी ने कहा, 'मैं ऐसा समझता हूं कि आजकल ऐसे नेतृत्व की बहुत आवश्यकता है... जो सिद्धांतों के साथ... बेबाकी के साथ और बिना कुछ इस बात की चिंता किये हुए कि प्रधानमंत्री नाराज होंगे या खुश होंगे.'
सवाल ये है कि जोशी के निशाने पर कौन है?
क्या जोशी को मोदी सरकार 2.0 के मंत्रियों से शिकायत है? या फिर बीजेपी के नेताओं से?
खुद जोशी ही प्रधानमंत्री मोदी से निडर होकर सवाल क्यों नहीं पूछते?
क्या यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा प्रधानमंत्री मोदी को टारगेट करते हुए किसी बात की परवाह किया करते रहे? शत्रुघ्न सिन्हा तो अब पूरी तरह यू-टर्न लेते हुए तारीफ में कसीदे ही पढ़ने लगे हैं. शत्रुघ्न सिन्हा के नये बयानों से तो यही लगता है कि वो घर वापसी को ही बेताब है क्योंकि कहीं भी दाल गल नहीं पायी. हो सकता है आम चुनाव से पहले शत्रुघ्न सिन्हा को लगता हो कि उनकी लोकप्रियता के आगे उनके इलाके में कोई टिक नहीं पाएगा. शत्रुघ्न सिन्हा शायद भूल गये कि चुनावी राजनीति और बाकी मौकों पर भीड़ जुटाने में फर्क होता है. लोगों की भीड़ हमेशा वोट नहीं होती. चुनावी राजनीति में सिनेमाई करिश्मा राजनीतिक लोकप्रियता पर भारी ही पड़े जरूरी नहीं है. कोई अमिताभ बच्चन किसी हेमवती नंदन बहुगुणा को बार बार नहीं हरा पाता.
शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ बीजेपी ने एक ऐसा नेता उतारा था जो जीवन में पहली बार कोई चुनाव लड़ रहा था. फिर भी लोगों में रविशंकर प्रसाद की छवि चारा घोटाले में उनकी दलीलों और बहस को लेकर बनी हुई थी. ऐसे लोग मानते हैं कि लालू प्रसाद अगर जेल में सजा काट रहे हैं तो उसकी मजबूत नींव रविशंकर प्रसाद ने ही तैयार की थी. रविशंकर प्रसाद के मैदान में होते हुए भी लोगों ने मोदी को वोट दिया क्योंकि वो जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 हटाने वाले थे और भ्रष्ट नेताओं को जेल भेजने का वादा कर रहे थे.
लोकतंत्र में वही नेता सबसे ज्यादा ताकतवर होता है जिसका बड़ा जनाधार होता है. जो लोगों के बीच इतना लोकप्रिय होता है कि अपने बूते चुनाव जिताने का पूरा माद्दा रखता है. नरेंद्र मोदी ने दोबारा सत्ता में लौट कर खुद को साबित कर दिया है.
1984 में राजीव गांधी को लोक सभा की ज्यादा सीटें जरूर मिली थीं, लेकिन इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ही इतने ताकतवर प्रधानमंत्री बने हैं जिसका हर तरफ पूरा होल्ड है.
क्या जोशी को मोदी से डर लगता है?
2015 का वो वक्त याद कीजिये जब बीजेपी को बिहार विधानसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त मिली थी. ये बीजेपी की लगातार दूसरी हार थी - दिल्ली के बाद. 2014 के आम चुनाव और दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में चुनाव जीतकर सरकार बनाने के अलावा जम्मू-कश्मीर में बनी सरकार में भी आधी हिस्सेदार रही.
बिहार चुनाव के बाद बीजेपी नेतृत्व पर जोर शोर से सवाल उठाये गये थे. सवाल हार की जिम्मेदारी लेने को लेकर रहे. कुछ बीजेपी नेताओं ने बिहार की हार को सामूहिक जिम्मेदारी के तौर पर समझाने की कोशिश की थी और उसी के खिलाफ पहली बार मार्गदर्शक मंडल से मुखर आवाज सुनायी थी थी. 2014 में केंद्र की सत्ता पर कब्जे के बाद बीजेपी नेतृत्व मोदी-शाह ने एक मार्गदर्शक मंडल बना दिया - ये सीनियर नेताओं को हाशिये पर डालने का एक तकनीकी इंतजाम रहा. हाशिये पर तो वाजपेयी युग के तमाम बड़े नेता और आडवाणी के शुभेच्छु माने जाने वाले हाशिये पर भेज दिये गये थे - लेकिन मार्गदर्शक मंडल के प्रमुख चेहरे लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और शांता कुमार ही नजर आ रहे थे.
बिहार चुनाव में हार को लेकर आडवाणी, जोशी और शांता कुमार की अगुवाई में मीटिंग हुई और फिर शांता कुमार ने मीडिया में आकर समझाया कि हार हार होती है और वो सिर्फ नेतृत्व की जिम्मेदारी होती है - कोई सामूहिक नेतृत्व नहीं होता.
वैसे ऐसे सवाल तो अकेले नितिन गडकरी की ओर से 2018 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद भी उठाये गये थे. गडकरी ने भी साफ साफ कह दिया था कि हार की जिम्मेदारी सिर्फ नेतृत्व की होती है. गडकरी ने कई कटाक्ष किये थे, जैसे - 'असफलता का कोई पिता नहीं होता.' और ये सब तो गडकरी ने मोदी कैबिनेट में मंत्री रहते हुए ही कहा था - और अब भी मोदी कैबिनेट 2.0 में भी बने हुए हैं.
लेकिन मुरली मनोहर जोशी को तो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की आलोचना करते हुए नहीं सुना गया - गुमनाम हमलों की बातें और हैं.
मोदी-शाह ने आडवाणी की ही तरह जोशी का भी लोक सभा टिकट काट दिया था और इस बारे में जोशी ने ये जरूर कहा कि चुनाव लड़ने से खुद उन्होंने मना नहीं किया था. साथ ही, जोशी ने सुषमा स्वराज और सुमित्रा महाजन की तरह मीडिया में आकर भी ये नहीं कहा कि वो चुनाव नहीं लड़ना चाहते. लेकिन इससे इतर कभी कुछ बोला भी तो नहीं.
जोशी कह रहे हैं कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर पार्टी लाइन से ऊपर उठकर चर्चा करने की परंपरा लगभग खत्म हो चुकी है. जोशी चाहते हैं कि ये दोबारा शुरू हो. अच्छी बात है.
वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने भी हाल ही में ऐसी ही बात कही थी. केरल में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि विचारधारा भले ही अलग हो लेकिन संवाद होते रहना चाहिये. फिर दिक्कत कहां है?
जोशी के इस बयान से भी तो ऐसा ही लग रहा है जैसे हर कोई भगत सिंह को पसंद करता है, लेकिन चाहता है कि वो पड़ोसी घर में पैदा हो. क्या जोशी को भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने वाले किसी जांबाज की जरूरत महसूस हो रही है?
आखिर जोशी खुद क्यों नहीं कभी बोलते? आखिर जोशी को किस बात की परवाह है? क्या जोशी को भी प्रधानमंत्री के खुश या नाखुश होने से कोई फर्क पड़ता है?
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