दलवीर की जीत को थरूर कैसे देख रहे होंगे...
अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में दलवीर भंडारी की जीत के लिए भारत सरकार को मिली कामयाबी का दूसरा पहलू देखें तो पाकिस्तान के खिलाफ एक और सर्जिकल स्ट्राइक भी है. क्या टीम मोदी जैसा कैंपेन मनमोहन सरकार ने चलाया होता तो थरूर भी महासचिव बन सकते थे?
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शशि थरूर ने अंग्रेजों से जो लगान वापस मांगा था, भारत ने दलवीर भंडारी की जीत के साथ वसूल ली है. 28 मई 2015 को लंदन के ऑक्सफोर्ड यूनियन सोसाइटी में थरूर ने अपने भाषण में कहा था कि ब्रिटिश शासन में भारत को हुए नुकसान की भरपाई होनी चाहिये. थरूर का ये भाषण न सिर्फ वायरल हुआ बल्कि खूब तारीफ भी हुई.
इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में दलवीर भंडारी का चुना जाना भारत की बड़ी कामयाबी है, खास कर ब्रिटेन को पछाड़कर. जस्टिस भंडारी का मौजूदा कार्यकाल 15 फरवरी 2018 तक है - और अब अगले 9 साल तक वो अपने पद पर बने रहेंगे.
नौ साल का नया कार्यकाल...
दलवीर भंडारी की जीत के रूप में भारत को ये कामयाबी यूं ही नहीं मिली है, इसके पीछे करीब डेढ़ दर्जन भारतीय राजनयिकों की कड़ी मशक्कत है. अब सवाल ये है कि जिस तरह मोदी सरकार ने दुनिया भर मुहिम चलायी, अगर 2006 में मनमोहन सरकार ने भी ऐसा किया होता तो क्या नतीजे ऐसे हो सकते थे? तब थरूर, दक्षिण कोरिया के बॉन की मून से रेस में पिछड़ गये थे जिसके चलते उम्मीदवारी वापस लेनी पड़ी थी.
दलवीर की जीत
छह महीने पहले जब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने कुलभूषण जाधव की सजा पर रोक लगायी तो दो नाम खास तौर पर चर्चा में आये. एक सीनियर वकील हरीश साल्वे और दूसरे, जस्टिस दलवीर भंडारी. साल्वे की दलीलों के साथ साथ दलवीर भंडारी की हेग के अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में मौजूदगी भी बेहद अहम रही. इसी की साथ नींव पड़ी मोदी सरकार की उस मुहिम की जिसे पूरी टीम ने मिल कर खूबसूरत अंजाम तक पहुंचाया.
भंडारी की जीत पाक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक है...
कुलभूषण केस की फांसी पर रोक के साथ ही पाकिस्तान को मिली शिकस्त भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण रही. ऐसे में पाकिस्तान पर दबाव बनाये रखने के लिए जरूरी था जस्टिस भंडारी का कोर्ट में बने रहना. पाकिस्तान के खिलाफ भारत का ये कदम उसके लिए डबल हार जैसी हो सकती है. खास बात ये है कि थक हार कर पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव की पत्नी को मुलाकात करने की अपील को मंजूरी दे दी है. दोनों मुल्कों के बीच इस बारे में औपचारिक कार्यवाही जारी है.
दलवीर भंडारी की जीत पक्की करने के मकसद से भारत ने वृहद स्तर पर दुनिया भर में लॉबिंग की. इसी साल जुलाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन के वक्त चीन के राष्ट्रपति को राजी करने के साथ साथ सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों से बात की. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने 60 देशों के विदेश मंत्री से निजी तौर पर बात की. संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को चिट्ठी लिख कर सपोर्ट की अपील की गयी. विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर
प्रधानमंत्री मोदी का पत्र लेकर खुद कई देशों का दौरा किये - और विदेश सचिव एस जयशंकर और संयुक्त राष्ट्र में भारतीय राजदूत सैयद अकबरुद्दीन दिन रात मिशन में जुटे रहे.
थरूर की हार
2006 में अगर शशि थरूर चुनाव जीत गये होते तो संयुक्त राष्ट्र में सबसे कम उम्र में महासचिव बनने का रिकॉर्ड भी उनके पास होता. 1978 में बतौर स्टाफ मेंबर संयुक्त राष्ट्र पहुंचे थरूर ने ढाई दशक तक काम किया. 2006 में वो अंडर सेक्रेटरी जनरल थे जब महासचिव के चुनाव में हिस्सा लिया. भारत ने थरूर को अपना आधिकारिक प्रत्याशी बनाया था. बरसों से भारत संयुक्त राष्ट्र की स्थाई सदस्यता के लिए अपनी दावेदारी पेश करता रहा है. ऐसी परंपरा देखी जाती है कि सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देश महासचिव पद के लिए चुनाव मैदान में नहीं उतरते. कुछ ऐसा ही सवाल तब विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से पूछा गया तो उन्होंने साफ किया कि अपना उम्मीदवार करने का मतलब ये कतई नहीं कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए अपनी दावेदारी छोड़ दी है.
महासचिव पद के चुनाव में पहले स्ट्रॉ पोल होते हैं. इसके जरिये ऐसे उम्मीदवारों सूची तैयार की जाती है जो महासचिव बनने के लायक होते हैं. जिन उम्मीदवारों को लगता है कि उनकी जीत की उम्मीद कम है वो अपना नाम वापस ले लेते हैं.
आधा हवा, आधा पानी...
तब थरूर को समर्थन के 10 वोट मिले थे और तीन सदस्यों ने उनका विरोध किया था जिनमें एक स्थाई सदस्य भी शामिल था. तब माना गया था कि चीन ने ही थरूर की उम्मीदवारी का विरोध किया होगा. हालांकि, दस साल बाद थरूर ने एक लेख लिख कर बताया कि चीन के विरोध की बात सच नहीं थी. थरूर ने अपने लेख में तत्कालीन चीनी विदेश मंत्री से अपनी निजी हैसियत से मुलाकात के बारे में विस्तार से बताया. थरूर के मुताबिक चीन ने आश्वस्त किया था कि वो भारत को कह दें कि उनका देश उनके रास्ते में आड़े नहीं आएगा.
उस चुनाव में दक्षिण कोरियाई उम्मीदवार बॉन की मून को स्ट्रॉ पोल में कुल 14 वोट मिले लेकिन किसी स्थाई सदस्य ने उनका विरोध नहीं किया था. हालांकि, मीडिया रिपोर्ट में उन पर आरोपों का जिक्र रहा कि उसने वोट डालने वाले देशों को अपने पक्ष में करने के लिए उनके साथ ऐसे करार किये जिससे उन्हें फायदा पहुंचे.
अब अगर दलवीर भंडारी की चुनावी मुहिम को शशि थरूर की संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद की उम्मीदवारी से तुलना करें तो क्या लगता है? क्या भारत ने 2006 में ऐसी ही कोशिश की होती तो थरूर जीत सकते थे? मुश्किल जरूर था, लेकिन नामुमकिन तो नहीं?
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