मोदी की फोटो हटवाने के आगे की कार्रवाई चुनाव आयोग ने क्यों नहीं की!
कोविड 19 वैक्सीन सर्टिफिकेट (Covid 19 vaccination certificate) से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर (PM Narendra Modi Photo) हटाना ठीक है, लेकिन गुजरे जमाने के चुनाव आयोग (Election Commission) नियमों को आज के हिसाब से अपडेट किया जाना कहीं ज्यादा जरूरी लगता है.
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चुनाव आयोग (Election Commission) बैलट पेपर से EVM मोड में शिफ्ट हो तो गया है, लेकिन तमाम चीजें अंग्रेजों के जमाने जैसी ही लगती हैं. खासकर आचार संहिता लागू करने के मामलों में. नीति आयोग और योजना आयोग के कामकाज में कोई फर्क है या नहीं, ये अलग बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद से ऐसे कई बदलाव भी हुए हैं जिनका असर भी साफ साफ दिखता है - गुजरे जमाने के कई अप्रासंगिक कानूनों का रद्द कर दिया जाना भी एक ऐसा ही मामला है. ऐसा भी नहीं कि सिर्फ नोटबंदी और जीएसटी ही उल्लेखनीय हैं, उनके फायदे और नुकसान की समीक्षा भी अलग से की जा सकती है, लेकिन सिस्टम की कार्यप्रणाली में भी काफी तब्दीलियां की गयी हैं. सरकारी दफ्तरों में जो टेबल पर चश्मा रख कर हाजिरी दिखाये जाने की परंपरा पड़ चुकी थी, कर्मचारी और अधिकारी बॉयोमेट्रिक अटेंडेंस छूटने के डर से पिज्जा डिलावरी वालों की तरह भागे भागे पहुंचने लगे हैं.
निकम्मे और भ्रष्ट अफसरों को उनके रिटायरमेंट तक ढोने की बजाये पहले ही चलता किया जाने लगा है. अब कम ही लोगों को मौका मिलता है जो कोर्ट जाकर मामला लटकाने में कामयाब हो पाते हैं. ऐसी नौबत आने से पहले ही वीआरएस के पेपर तैयार मिलते हैं और एक दस्तखत के साथ ही सब कुछ हो जाता है.
प्रत्यक्ष तौर पर देखें और समझने की कोशिश करें तो पुलिस रिफॉर्म की ही तरह चुनाव आयोग के आदर्श आचार संहिता के नियमों में भी व्यापक सुधार और आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत लगती है - वरना, तेजी से आगे की तरफ रफ्तार भर रही तकनीक के आगे सारे फरमान बौने लगते हैं.
ये तो मुमकिन नहीं कि सब कुछ बदल जाये तो भी चुनाव आयोग के प्रति धारणा भी सीबीआई जैसी ही विश्वास और अविश्वास के बीच झूलती रहेगी - क्योंकि सत्ता पक्ष और विपक्ष का नजरिया नैसर्गिक रूप से ही अलहदा होता है - और होना भी चाहिये.
चुनाव आयोग की तरफ से ताजा फरमान कोविड 19 वैक्सीन सर्टिफिकेट (Covid 19 vaccination certificate) से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर (PM Narendra Modi Photo) हटाने को लेकर है, लेकिन उन राज्यों में ही जहां विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है. चुनाव आयोग ने ये आदेश तृणमूल कांग्रेस सांसद डेरेक ओ ब्रायन की शिकायत सही पाये जाने के बाद जारी किया है.
संवैधानिक नियमों के हिसाब से चुनाव आयोग का ये आदेश निहायत ही जरूरी है, लेकिन क्या कभी ऐसी चीजों के व्यावहारिक पहलुओं पर भी कभी विमर्श होगा या ये सब यूं ही 'चलता है' के हिसाब से चलता रहेगा?
ऐसा तो होता ही रहता है
कोविड 19 के वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर हटाने का चुनाव आयोग का आदेश करीब करीब वैसा ही है जैसे चुनाव आयोग ने एक बार यूपी में हाथी की मूर्तियों को ढकने का आदेश दिया था. ये 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव के समय का वाकया है जब पार्कों में हाथियों की मूर्तियों को ढक दिया गया था. ये मूर्तियां तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने बनवायी थीं - और उस चुनाव में बीएसपी को जो हार मिली तब से चुनाव दर चुनाव मायावती भी राहुल गांधी की तरह सतत संघर्षरत हैं.
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बागपत रैली में चुनाव आयोग को कोई भी आपत्तिजनक बात नहीं लगी. ये 2018 की बात है जब कुछ ही महीने पहले यूपी में बीजेपी दो संसदीय उपचुनाव हार गयी थी और उसमें से एक सीट तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वाली गोरखपुर सीट ही रही. कैराना में गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों का हाल न हो, इसलिए बीजेपी ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव से खाली होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी की बागपत में रैली करायी. ये रैली चुनाव प्रचार खत्म हो जाने के बाद, लेकिन मतदान के ठीक एक दिन पहले आयोजित की गयी थी.
चुनाव आयोग को मोदी के फोटो पर फरमान के साथ ही थोड़ा आगे की सोचने की भी जरूरत है
यूपी से ही एक और उदाहरण लेते हैं - 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हुआ था - 'यूपी को ये साथ पसंद है' स्लोगन के साथ. 'यूपी के लड़के' कह कर प्रचारित किया जा रहा था - और प्रियंका गांधी वाड्रा भी यही बोल कर गठबंधन के लिए वोट मांग रही थीं.
ये उसी चुनाव की बात है जिसे लेकर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पर हार का दाग लगा हुआ है. हालांकि, वो ये कह कर स्थिति साफ करने की कोशिश करते हैं कि उस चुनाव में उनको काम करने ही नहीं दिया गया था. दलील भी गलत इसलिए नहीं लगती क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार भला कैसे बन पाती. बहरहाल, एक बार फिर वो कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए काम करने जा रहे हैं - और एक रुपये की तनख्वाह पर सलाहकार भी बना दिये गये हैं.
2017 के यूपी चुनाव में एक खास रणनीति के तहत राहुल गांधी और अखिलेश यादव उस दिन जरूर साथ-साथ चुनाव प्रचार करते थे देखे जाते रहे, जिस दिन किसी अन्य इलाके में वोटिंग हो रही होती - निश्चित तौर पर इसके पीछे प्रशांत किशोर का ही दिमाग होगा, लेकिन चुनाव आयोग को कभी कोई आपत्ति नहीं हुई. नतीजे क्या रहे ये अलग बात है, मुद्दे की बात तो ये है कि मतदाता प्रभावित हुआ या नहीं?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या इससे आचार संहिता वाकई पूरी तरह बेअसर रहती होगी?
किलोमीटर के हिसाब से नाप कर चुनाव आयोग भले कह दे कि नियमों के अनुसार ये सारी चीजें वोटर को प्रभावित कर पाने के दायरे के बाहर है, लेकिन क्या आज के जमाने में इसे व्यावहारिक माना जा सकता है
मजे की बात ये है कि ऐसा ही तर्क चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बागपत रैली को लेकर भी दिया था!
क्या ये भी मुमकिन नहीं है
अगर हम भक्ति भावना से अभिभूत हों तो गोस्वामी तुलसीदास एक लाइन तो दे ही गये हैं, जिसे अक्सर लोग आम बोलचाल की भाषा में नसीहत और सलाहियात देते वक्त कुछ ऐसे दोहराते हैं - 'मूंदहूं आंख कतहु कुछ नाहीं.'
ये ठीक है कि चुनाव आयोग में तृणमूल कांग्रेस की तरफ से कोविट 19 वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर को लेकर शिकायत की गयी और ये भी अच्छी बात है कि चुनाव आयोग ने एक्शन भी लिया है.
लेकिन पल पल वायरल होती चीजों और सोशल मीडिया इस विस्फोटक दौर में क्या चुनाव आयोग को भी कुछ कारगर उपाय नहीं करने चाहिये जो आचार संहिता लागू करने में व्यावहारिक रूप में भी मददगार हों - न कि सिर्फ कागजों पर दर्ज करने भर के लिए ही हों.
1. कुछ सख्त नियमों की जरूरत है: मतदान के दो दिन पहले चुनाव प्रचार पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाती है. ऐसे में कोई पब्लिक मीटिंग, रोड शो या चुनावी रैली नहीं होने दी जाती है, लेकिन क्या इतने भर से वास्तव में वो मकसद पूरा हो पाता है जिसके लिए कभी ये नियम बनाये गये होंगे. तब के हिसाब से ये भले ही प्रभावी रहे हों, लेकिन मौजूदा दौर में सीधे सीधे तो ये बातें गले के नीचे नहीं ही उतर पातीं.
क्या ऐसा कोई इंतजाम नहीं किया जा सकता कि आखिरी वक्त में मतदाता को प्रभावित करने की किसी भी उम्मीदवार की कोई भी कोशिश काम न आये?
तब की बात और थी, जब ये नियम बनाये गये होंगे - तब तो पब्लिक मीटिंग, रैलियों या प्रचार वाहन के जरिये लाउडस्पीकर की मदद से उम्मीदवार लोगों से अपने लिए वोट डालने की अपील किया करते रहे. उसके अलावा बगैर मौके पर पहुंचे किसी से बात मुलाकात भी संभव नहीं होती रही.
अब जमाना बदल चुका है. व्हाट्सऐप के जरिये पोलिंग बूथ तक संपर्क साधना जरा मुश्किल काम नहीं. जरूरी नहीं कि उम्मीदवार या उसका कोई आदमी ही ऐसे मैसेज भेजे की जहमत उठाये और फंस जाये. पहले से ही ऐसे इंतजाम किये गये रहते हैं कि गुमनाम मैसेज मंजिल तक पहुंच जाये और काम भी हो आसानी से अपनेआप हो जाये.
जैसे OTT प्लेटफॉर्म, न्यूज साइट्स और सोशल मीडिया के लिए नियम बनाने की तैयारी चल रही है - क्या वैसे ही आदर्श आचार संहिता लागू करने के लिए उपाय नहीं किये जा सकते?
2. थोड़ा एक्शन मोड में आना होगा: जब चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए सख्त नियम और कड़ी निगरानी के इंतजाम हो सकते हैं, तो क्या आचार संहिता के हित में वोटर को प्रभावित होने से रोकने के लिए उपाय भी तो किये ही जा सकते हैं.
जब एक आदेश पर कोई भी वीडियो, सोशल मीडिया अकाउंट या सोशल मीडिया पेज बंद या कुछ देर के लिए सस्पेंड किया जा सकता है - तो क्या चुनाव प्रचार को लेकर ऐसे इंतजाम नहीं किये जा सकते?
ये सब जरा भी मुश्किल नहीं है, बस शिद्दत से एक ठोस पहल की जरूरत भर है.
3. निगरानी और जांच से सब कुछ संभव है: बेशक तकनीक के मौजूदा फॉर्म में बहुत सारी चीजों पर रोक लगाना मुश्किल और कहीं कहीं नामुमकिन जैसी स्थिति है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे पॉर्न कंटेंट पर पाबंदी के बावजूद इंटरनेट पर ही उसकी काट में उपाय भी गूगल फौरन ही उपलब्ध करा देता है - हो सकता है शुरू में आयोग की मनाही के बावजूद कानूनी लूपहोल की तरह तकनीक के इस्तेमाल से नये रास्ते खोज लिये जायें - लेकिन आयोग उस पर निगरानी रखे और शक होने या शिकायत मिलने पर जांच करे तो दूध का दूध और पानी का पानी तो हो ही जाएगा.
ज्यादा से ज्यादा ऐसा होने में थोड़ा वक्त लगेगा - क्या कोर्ट में चैलेंज किये जाने के बाद जन प्रतिनिधियों का चुनाव रद्द नहीं हो जाता है?
आचार संहिता के मामले में भी चुनाव आयोग ऐसे कारगर उपाय खोज सकता है जैसे उसे EVM को हैक न किये जाने का फुलप्रूफ इंतजाम किया है - मतदान प्रभावित न हो इसके उपाय भी तलाश किये जा सकते हैं.
ऐसा सबसे कारगर उपाय तो यही हो सकता है कि चुनाव प्रचार बंद होने के बाद जिस इलाके विशेष में मतदान होना है, आयोग सुनिश्चित करे कि कहीं से भी होने वाला कोई भी लाइव प्रोग्राम वहां तक न पहुंच पाये. अगर सीधे सीधे मुमकिन न हो तो इलाके में इंटरनेट और केबल कनेक्शन पर भी पाबंदी लगायी जा सकती है, जैसे कानून व्यवस्था की चुनौती होने पर आजकल स्थानीय प्रशासन की तरफ से किया जाने लगा है.
निश्चित तौर पर लोगों को तकलीफ होगी, लेकिन वो तो कश्मीर में भी हुआ है और किसान आंदोलन के वक्त दिल्ली बॉर्डर के कुछ इलाकों में भी.
अगर ये इंतजाम हो जायें तो महज रस्मअदायगी ही नहीं वास्तव में आचार संहिता को अच्छी तरह लागू किया जा सकेगा - और वो कोविड 19 वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर हटाने के मुकाबले - स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने में कहीं बड़ा काम होगा.
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