अदानी पर राहुल गांधी विपक्ष को एकजुट नहीं रख सके, और मोदी ने खेल कर दिया
अदानी ग्रुप (Adani Group Issue) पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद विपक्ष को बीजेपी को घेरने का बहुत बड़ा मौका मिला था और इस चैलेंज में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कुछ दूर चलते भी देखे गये, लेकिन विपक्ष फिर बिखर गया - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने बाजी मार ली.
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अदानी ग्रुप के कारोबार (Adani Group Issue) पर शुरू हुई बहस औंधे मुंह लुढ़क गयी है. अदानी ग्रुप पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद घिरी हुई महसूस कर रही बीजेपी को बहुत मेहनत भी नहीं करनी पड़ी है. बस वेट-एंड-वॉच टाइप का मामला लगता है. हो सकता है, अपेक्षा से थोड़ा ज्यादा इंतजार करना पड़ा हो.
और आखिर में वही हुआ जिसका विपक्षी खेमे को भी शुरू से ही अंदेशा रहा. कहीं बीजेपी विपक्षी खेमे की पूरी रणनीति ही फेल न कर दे. लेकिन विपक्ष की आशंका तो मन में उठी अफवाह से भी ज्यादा नहीं लगती. बीजेपी ने तो कुछ खास किया भी नहीं. देख कर तो ऐसा ही लगता है.
संसद में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के भाषण से बीजेपी नेता थोड़े मुश्किल में दिखे जरूर थे, लेकिन वो सब लंबा नहीं चला. राहुल गांधी ने तीखे सवाल जरूर पूछे थे, लेकिन कोई पहली बार थोड़े ही? ऐसे सवाल तो वो 2014 से ही पूछते रहे हैं.
देखा जाये तो अदानी के मुद्दे से ज्यादा सवाल तो राहुल गांधी गलवान घाटी संघर्ष के बाद चीन के प्रति मोदी सरकार के स्टैंड को लेकर पूछते रहे हैं. लेकिन जैसे ही राहुल गांधी का बनाया माहौल जोर पकड़ता है, विपक्षी खेमे से ही कुछ ऐसा हो जाता है कि सब ठंडा पड़ जाता है. चीन के मुद्दे पर तो कांग्रेस की साथी एनसीपी के नेता शरद पवार का एक बयान ही काफी रहा. पूर्व रक्षा मंत्री होने की वजह से शरद पवार की बातों को पूरी अहमियत दी गयी, और सारी मेहनत बेकार चली गयी. और ये सब प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी में सोनिया गांधी की आंखों के सामने हुआ था.
चीन के मुद्दे पर भी कई विशेषज्ञों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के बयान पर सवाल उठाये थे, लेकिन शरद पवार का बयान भारी पड़ा था, लेकिन अदानी ग्रुप को लेकर तो हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने एक तरीके से सुनामी ही लाने का इशारा कर दिया था - और ये रिपोर्ट ऐसे मौके पर आयी जब भारत जोड़ो यात्रा खत्म ही हुई थी और राहुल गांधी के पांव मन ही मन जमीन पर तो नहीं ही पड़ रहे होंगे.
भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी के रुख में वैसा ही बदलाव देखा गया जैसा 2018 के आखिर में तीन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत के बाद हुआ था - कांग्रेस की तरफ से विपक्ष के साथ करीब करीब वैसा ही व्यवहार हुआ जैसा 2019 के आम चुनाव में हुआ था.
अव्वल तो राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही ये तस्वीर भी साफ करते जा रहे थे कि विपक्षी नेताओं को सम्मान दिये जाने के उनके दावे और हकीकत में कितना फर्क है. जो रही सही कसर बाकी थी, भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह के बुलावे की सूची आते ही साफ भी हो गयी थी.
राहुल गांधी का वही तेवर अदानी के मुद्दे पर विपक्ष को एकजुट रख पाने में भी आड़े आया है. मल्लिकार्जुन खड़गे तो शीतकालीन सत्र की तरह ही बजट सत्र में भी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मीटिंग भी कर ली थी, लेकिन उसके बाद जो हुआ वो फिर से फेल हो गया है.
अदानी ग्रुप के शेयरों में गिरावट आने और फिर गौतम अदानी के रईसों की टॉप 20 लिस्ट से बाहर हो जाने के बाद माहौल काफी बदला बदला था - और यही वजह रही कि राहुल गांधी के संसद के भाषण को हाथोंहाथ लिया भी गया.
लेकिन जिस मोर्चे पर राहुल गांधी को मेहनत करनी चाहिये थी, वो एक बार फिर चूक गये. विपक्ष चुपचाप बैठ गया, राहुल गांधी की कांग्रेस संसद में अकेले पड़ गयी - और मोदी को तो ऐसा ही मौका चाहिये, ताकि वो आसानी से मैदान लूट लें!
बात अभी की होती तो कोई बात नहीं होती. मुश्किल ये है कि 2024 के आम चुनाव की तैयारी कर रही कांग्रेस के लिए ये अपनेआप में एक राजनीतिक शिकस्त जैसा है - मुश्किल ये भी है कि राहुल गांधी को ये बात समझा पाना मल्लिकार्जुन खड़गे के वश की बात भी नहीं लगती है.
लड़ाई में कांग्रेस अकेले पड़ गयी
अभी ये तो नहीं कह सकते कि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की कमाई मिट्टी में मिला दी है, लेकिन ये तो मान कर चल ही सकते हैं कि बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ एक बहुत बड़ा मौका गवां दिया है.
और कभी कभी नरेंद्र मोदी और शरद पवार की बातें सच भी लगती हैं कि कांग्रेस नेतृत्व अहंकार से भरा हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से तो ये बात उनके ज्यादातर भाषण में सुन सकते हैं, एनसीपी नेता का वो बयान याद कर लीजिये जिसमें गांधी परिवार को लेकर वो एक पुराने जमींदार का किस्सा सुना रहे थे.
अदानी मुद्दा 2024 को लेकर राहुल गांधी के लिए आखिरी मौका तो नहीं, लेकिन अंतिम अलर्ट जरूर है
आप चाहें तो अदानी के कारोबार पर मचे बवाल और बहस के बीच विपक्ष के मिल कर भी बिछड़ जाने की कहानी को थोड़ा आगे बढ़ा कर भी देख सकते हैं - और ये कहानी अब अगले आम चुनाव की तरफ बढ़ती हुई लगती है. मतलब, आम चुनाव में विपक्ष की संभावित स्थिति अभी से आंखों के सामने नजर आने लगी है.
अदानी ग्रुप के कारोबार के मुद्दे पर जो कुछ हो रहा है, या हुआ है, उसमें आप 2019 और 2024 के आम चुनावों के संभावित राजनीतिक समीकरणों की झलक खुद देख सकते हैं. मतलब, दो आम चुनावों के बीच विपक्षी खेमे में कुछ भी बदला नहीं है - अब अगर पांच साल का वक्त भी विपक्ष को नहीं बदल सकता तो क्या ही उम्मीद की जाये?
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोक सभा में धन्यवाद प्रस्ताव जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस पहले भी मौके गंवाती रही, और अब भी गंवा रही है. मोदी के कहने का मतलब ये रहा कि पहले सरकार में रहते कांग्रेस को देश के लिए कुछ करने का मौका था, लेकिन कांग्रेस ने मौका गंवा दिया. अब जो मौका मिला है उसमें विपक्ष की राजनीति की बात है, ये तो मोदी को भी कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस ये भी मौका गवां रही है.
2014 के पहले वाले कांग्रेस शासन की याद दिलाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, 'जो कभी यहां बैठते थे... वो वहां जाने के बाद भी फेल हुए, लेकिन देश पास होता जा रहा है.'
मोदी का ये बयान राजनीतिक भले हो, लेकिन कांग्रेस के मौजूदा व्यवहार को देखते हुए ये काफी हद तक सूट भी करता है - कांग्रेस के अड़ियल रवैये के बावजूद अदानी ग्रुप के मुद्दे पर विपक्ष की तरफ से सहयोग की ही भावना नजर आयी, लेकिन बात एक मोड़ पर पहुंच कर वैसे ही अटक गयी जैसे अब तक होती आयी है.
मल्लिकार्जुन खड़गे की पहल पर 16 राजनीतिक दलों के नेता कांग्रेस की तरफ से बुलायी गयी विपक्ष की मीटिंग में शामिल हुए थे - और सबसे ज्यादा हैरानी की बात रही मीटिंग में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति का शामिल होना. वो भी तब जबकि राहुल गांधी की भारत यात्रा के समापन समारोह में बुलाये गये नेताओं की सूची से दोनों ही दलों को बाहर रखा गया था.
लेकिन कांग्रेस की एक जिद के चलते पहले ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पीछे हटी और फिर धीरे धीरे बाकी विपक्षी पार्टियां - और नतीजा ये हुआ कि राहुल गांधी और कांग्रेस एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दे पर अकेले पड़ गये.
...और लड़ाई में कांग्रेस अकेले पड़ गयी!
अदानी ग्रुप के कारोबार को लेकर जांच की कांग्रेस की मांग से तो सारे विपक्षी दल सहमत रहे, लेकिन एक बात पर आम राय नहीं बन सकी कि जांच का तरीका क्या हो - तब तक ये खबर आयी थी कि विपक्ष पूरे मामले की जेपीसी या सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के जरिये जांच की मांग कर रहा है.
मांग जेपीसी से जांच कराने की हो या सुप्रीम कोर्ट की कमेटी से कांग्रेस विपक्ष के नेताओं को ये बात नहीं समझा सकी. कांग्रेस का कहना था कि अदानी के मामले में जेपीसी जांच की मांग करनी चाहिये.
तृणमूल कांग्रेस और लेफ्ट चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच कराये जाने की मांग रखी जाये. तृणमूल कांग्रेस इसी बात को लेकर पीछे हट गयी. कुछ राजनीतिक दल दोनों तरह की जांच के पक्षधर रहे.
अदानी मुद्दे को लेकर भी कांग्रेस के रुख में वही ऐंठन दिखी जो क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लेकर राहुल गांधी कई बार जाहिर कर चुके हैं. ऐसे भी समझ सकते हैं कि कांग्रेस चाहती थी कि सब कुछ वैसे ही हो जो वो स्टैंड ले रही है.
कांग्रेस थोड़ा नरम रुख अपनाती और मान लेती कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग की जाये, विपक्ष एकजुट रहता. हो सकता है, कांग्रेस को जेपीसी की जांच ज्यादा प्रभावी लगती हो. जेपीसी की जांच होने की सूरत में बीजेपी पर ज्यादा दबाव बनाया जा सकता था, कांग्रेस को ऐसा लगा होगा - लेकिन ये तो तभी संभव होता जब पूरा विपक्ष एक साथ सरकार पर दबाव बनाता.
सरकार की तरफ से से तो शुरू से ही अदानी मुद्दे से दूरी बनाये जाने की कोशिश जारी थी. जेपीसी जांच के मुद्दे पर राज्य सभा के नेता पीयूष गोयल ने मल्लिकार्जुन खड़गे के गमछे के बहाने खारिज कर दी थी. पीयूष गोयल का कहना रहा कि मल्लिकार्जुन खड़गे ने जो लुई वित्तां का गमछा लिया है, क्या उसकी जेपीसी जांच करायी जा सकती है कि वो उनको कहां से मिला, किसने दिया और कितने का है?
एक मीडिया रिपोर्ट में इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस और विपक्ष के कई नेताओं से बात की गयी है. नेताओं के नाम तो नहीं बताये गये हैं, लेकिन बातें काफी दमदार लगती हैं. विपक्षी दलों के नेताओं का कहना रहा कि कांग्रेस खुद एकमत नहीं थी कि करना क्या है. कांग्रेस नेताओं का एक गुट संसद में बहस चाहता था, जबकि दूसरा हंगामे से ही खुश हो रहा था.
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