पांच साल बाद भी पूर्वांचल में मोदी को ही संकटमोचक क्यों बनना पड़ रहा है?
बीजेपी के लिए पूर्वांचल की चुनावी राजनीति का हाल पांच साल बाद भी बदला क्यों नहीं है? आखिर योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के गढ़ (East UP Election) में, नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को मोर्चा क्यों संभालना पड़ रहा है - और संघ को 2017 की ही तरह फिर से मोदी का का ही आसरा क्यों है?
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वाराणसी को यूपी विधानसभा चुनाव का एपिसेंटर मान कर देखें तो लगता है पांच साल में बहुत कुछ नहीं बदला है - कम से कम बीजेपी के हिसाब से तो ऐसा ही लग रहा है.
2017 कि विधानसभा चुनावों की ही तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को बनारस में डेरा डालना पड़ रहा है. ऐसा लगता है जैसे बीजेपी के वोटर से कहीं ज्यादा पार्टी कार्यकर्ताओं की काउंसिलिंग करनी पड़ रही है.
और ये हाल भी तब हो रहा है जब बीजेपी के पास अभी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के रूप में मुख्यमंत्री का एक चेहरा भी है. समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव तो 'बाबा' बोल कर कटाक्ष करते हैं, योगी आदित्यनाथ के समर्थक तो इसी नाम से उनके प्रभाव को भी महसूस करते हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह योगी आदित्यनाथ भी महाराज कहलाते हैं, लेकिन योगी के मामले में साथ में 'जी' लगा होता है. सिंधिया के संबोधन में अगर सिर्फ सम्मान है, तो योगी आदित्यनाथ के मामले में श्रद्धा भी होती है - और ऐसे कई मौके रहे हैं जब ये सब देखने को मिला है. पुलिस अफसरों के पैर छूने की तस्वीरों पर तो काफी बवाल हुआ है, लेकिन देखा तो ये भी गया है कि योगी आदित्यनाथ के चुनाव प्रचार के लिए छत्तीसगढ़ पहुंचने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने भी पैर छूए थे, जबकि योगी आदित्यनाथ बीजेपी में सबसे जूनियर मुख्यमंत्री रहे हैं.
2017 में जब विधानसभा के चुनाव हो रहे थे, योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से लोक सभा सांसद थे, लेकिन अभी तो वो पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद गोरखपुर सदर विधानसभा सीट से खुद भी चुनाव लड़ रहे हैं. और जब भी कोई पार्टी ऐसे फैसले लेती है एक ही मकसद होता है - आसपास की सीटों पर बड़े नेता की मौजूदगी और असर का पूरा फायदा उठाया जा सके.
लेकिन इतने सारे इंतजाम होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी को फिर से बनारस में डेरा डालना पड़े - और ऐसा लग रहा हो जैसे 2017 में यूपी और गुजरात की ही तरह मोर्चा संभाल रहे हों, तो बात थोड़ी गंभीर लगती है. आखिर माजरा क्या है? क्योंकि यूपी या गुजरात के चुनाव और पश्चिम बंगाल चुनाव में बुनियादी फर्क है, और वो है बीजेपी के सपोर्ट बेस का.
अब चूंकि प्रधानमंत्री मोदी बनारस में मौजूद रह कर चीजों को अपने स्तर पर देख रहे हैं, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले ही पहुंच कर चीजों को दुरूस्त करने की कोशिश कर चुके हैं. यूपी का प्रभारी होने के नाते केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान तो हफ्ता भर के लिए पूर्वांचल (East UP Election) पर ही समेट लिया है - क्योंकि अब आखिर के दो चरणों के चुनाव क्रमशः 3 और 7 मार्च को होने जा रहे हैं. बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और राजनाथ सिंह पर तो पहले से ही बूथ जीतने कि जिम्मेदारी है.
प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में 7 मार्च को वोटिंग होनी है, लेकिन वो 3 मार्च को ही पहुंच जाएंगे - जब आस पास के इलाकों में लोग वोट डाल रहे होंगे और चुनाव प्रचार के आखिरी वक्त तक वो बने रहेंगे. फिर 5 मार्च को दिल्ली लौट जाएंगे.
सवाल ये है कि जब सारे इंतजाम पहले से ही बल्ले बल्ले समझे जा रहे थे तो अचानक पेंच कहां फंस गया जो संघ की तरफ से भी मोदी को संकेत दे दिया गया - अपने इलाके का पूरा बंदोबस्त संभालने के लिए.
क्या योगी का हाल भी नीतीश जैसा हो गया है?
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के इंटरनल सर्वे में नीतीश कुमार के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर पायी गयी थी - और उसे काउंटर करने के लिए ही प्रधानमंत्री मोदी फ्रंट पर आ गये थे. चुनावी रैली में जब मंच पर नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों होते, तो फर्क सिर्फ प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा महसूस किया जा रहा था. कई जगह तो ऐसा लगा जैसे नीतीश कुमार सीएम कैंडीडेट नहीं बल्कि महज नुमाइश की चीज हों.
रैलियों मे 'बुलडोजर बाबा' और योगी आदित्यनाथ के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नया 'वाराणसी मॉडल'
यूपी की स्थिति अलग है. बिहार जैसी तो बिलकुल नहीं है. योगी और मोदी-शाह के बीच तनातनी अपनी जगह है, लेकिन चुनाव में पार्टी की जीत सर्वोपरि है - क्योंकि दो साल बाद ही तो आम चुनाव के लिए भी उन्हीं इलाकों से जनादेश लेना होगा.
एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दर्जन भर सीटों पर बीजेपी को जीत का संदेह जरूर था. बताते हैं कि पार्टी के आंतरिक सर्वे में जो उम्मीदवार जिताऊ नहीं पाये गये, उनकी सीटें बीजेपी ने सहयोगी दलों को दे डाली है. बीजेपी इस बार अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल और निषाद पार्टी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया हुआ है.
देखा जाये तो योगी आदित्यनाथ और नीतीश कुमार की राजनीति में बुनियादी फर्क भी है. नीतीश कुमार के मुकाबले योगी आदित्यनाथ बड़े जनाधार वाले नेता हैं. सिर्फ यूपी ही नहीं देश के तमाम हिस्सों में उनके समर्थक हैं - और इसमें गोरक्षपीठ का बड़ा योगदान है जिसके वो महंत हैं. यूपी से बाहर भी योगी के स्टार कैंपेनर होने के पीछे यही वजह है.
योगी के चुनाव प्रचार में भी मोदी जैसे प्रयोग हो रहे हैं. जैसे राहुल गांधी के आम चुनाव में 'चौकीदार चोर है' की काट में मोदी ने नाम के पहले ही चौकीदार लगा लिया था, अखिलेश यादव के बुलडोजर बाबा कहने पर बीजेपी योगी की रैलियों में बुलडोजर ही खड़े कर दे रही है - और उस पर पोस्टर भी लगा दिया जाता है, जिस पर बुलडोजर बाबा लिखा हुआ होता है. अब तो चुनावी सभाओं में 'बुलडोजर बाबा' के नारे भी लग रहे हैं.
और घुमा फिर कर ऐसी ही बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा भी चुनावी रैलियों में जिक्र करते रहते हैं. योगी सरकार में चलाये गये माफिया तत्वों के खिलाफ बुलडोजर की चर्चा होती है. अमित शाह बार बार याद दिलाते हैं कि अगर अखिलेश यादव आ गये तो फिर आजम खान, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद जेल में रहेंगे या फिर बेल पर? पश्चिम यूपी में ऐसे ही बीजेपी नेता कैराना से पलायन और मुजफ्फरनगर के दंगों की याद दिलाया करते थे.
संदेह सिर्फ तब होता है जब अमित शाह यूपी विधानसभा चुनाव में भी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट मांगने लगते हैं. लोगों से अपील करते रहे हैं कि वे योगी आदित्यनाथ को इसलिए वोट दें ताकि 2024 में नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाया जा सके. पश्चिम यूपी में तो कहने लगे वोट देते वक्त वे बीजेपी के नेताओं, मंत्रियों या मुख्यमंत्री के भी चक्कर में न पड़ें - सीधे मोदी के नाम पर वोट करें.
ताज्जुब इसलिए भी होता है कि जब योगी आदित्यनाथ ने इतना बढ़िया शासन दिया, फिर दिक्कत क्या है? कोरोना वायरस की दूसरी लहर में मोदी-शाह दोनों के मुताबिक, योगी सरकार ने बेहतरीन काम किया. योगी आदित्यनाथ के शासन में यूपी कई मामलों में देश में बेस्ट है, शुरुआती दौर से ही ऐसे दावे किये जा रहे हैं.
कानून और व्यवस्था से लेकर विकास के मामले में भी योगी आदित्यनाथ को ही यूपी के लिए UPYOGI बताया जा रहा हो, लेकिन हैरानी तो तब होती है जब बीजेपी को बनारस में राष्ट्रवाद के नाम पर वोट मांगना पड़ रहा है?
मोदी किसके लिए कैंप कर रहे हैं?
कृषि कानूनों की वजह से किसान आंदोलन के चलते बीजेपी के लिए पश्चिम यूपी के चुनावी मैदान को ज्यादा मुश्किल माना जा रहा था, लेकिन अब तो ऐसा लग रहा है कि बीजेपी के लिए पूरे यूपी में आलम एक जैसा ही है. क्या पूरब और क्या पश्चिम जैसे जैसे जो जो सामने आ रहा है स्वाभाविक तौर पर पहले से बड़ा चैलेंज लग रहा है.
पूर्वांचल का ये इलाका ऐसा है जो सीधे सीधे प्रधानमंत्री मोदी और योगी आदित्यनाथ के साथ साथ अखिलेश यादव से भी जुड़ा हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी से सांसद हैं, योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से सांसद रहे और इस बार विधानसभा उम्मीदवार हैं - और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फिलहाल लोक सभा में आजमगढ़ का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. तीनों ही इलाकों में आखिर के दो चरणों में वोटिंग होने वाली है.
पूरे पूर्वांचल की कौन कहे, खबर है कि एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बीजेपी को वाराणसी की भी कई सीटों पर ध्यान देने की सलाह दी है. ऐसी ही सलाह संघ की तरफ से बीजेपी को 2017 में भी दी गयी थी.
बताते हैं कि जिन सीटों पर बीजेपी को फोकस करने को कहा गया है उनमें तीन प्रमुख सीटें वारणसी की ही हैं - शहर दक्षिणी, शहर उत्तरी और रोहनिया. अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अनुप्रिया पटेल को भी संदेश भिजवाया गया है कि वो रोहनिया क्षेत्र में खुद चुनाव प्रचार के लिए उतरें. रोहनिया सीट पिछली बार बीजेपी ने जीती थी, लेकिन इस बार उसमें अपने सहयोगी अपना दल को दे दिया है.
अपना दल ने रोहनिया से अपने प्रदेश उपाध्यक्ष सुनील पटेल को उम्मीदवार बनाया है, लेकिन बीएसपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी गठबंधन की तरफ से भी पटेल उम्मीदवार ही मैदान में हैं, लिहाजा कड़ी टक्कर की संभावना जतायी जा रही है.
शहर उत्तरी से बीजेपी ने रवींद्र जायसवाल को ही एक बार फिर उम्मीदवार बनाया है. वो योगी सरकार में मंत्री हैं. रवींद्र जायसवाल को लेकर भी माना जा रहा है कि वो भी सत्ता विरोधी लहर के निशाने पर हैं.
हैरानी तो इसलिए हो रही है क्योंकि शहर दक्षिणी सीट पर एक बार फिर से बवाल मचा हुआ है. ये सीट 2017 के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चित रही क्योंकि तब सात बार विधायक रहे श्यामदेव रॉय चौधरी का टिकट काट कर नीलकंठ तिवारी को दे दिया गया था. नीलकंठ तिवारी भी योगी सरकार में मंत्री रहे हैं और एक बार फिर मैदान में हैं.
आपको याद होगा पिछले चुनाव के दौरान जब प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी में दर्शन के लिए काशी विश्वनाथ मंदिर जा रहे थे तो रास्ते में एक किनारे श्यामदेव रॉय चौधरी खड़े थे. जैसे ही मोदी की नजर चौधरी पर पड़ी वो हाथ पकड़ कर उनको अपने साथ मंदिर के अंदर लेते गये - इसे चौधरी की नाराजगी दूर करने की मोदी की कोशिश के तौर पर देखा गया था.
वो सात बार विधायक रहे, लेकिन नीलकंठ तिवारी के खिलाफ एक बार में ही सत्ताविरोधी लहर पैदा हो गयी है - और मुश्किल ये है कि स्थानीय बीजेपी कार्यकर्ताओं का ही एक बड़ा तबका नीलकंठ तिवारी से नाराज बताया जा रहा है. अजीब तो ये लगता है कि नीलकंठ तिवारी से नाराज कार्यकर्ताओं में ज्यादातर ब्राह्मण हैं.
ये कार्यकर्ता नीलकंठ तिवारी को दोबारा टिकट दिये जाने का विरोध कर रहे थे. नीलकंठ तिवारी के कई विरोधी भी टिकट के दावेदार रहे, लेकिन बीजेपी के लिए उस विधायक का टिकट काटना भी बेहद मुश्किल था जिसे पूरे पांच साल तक मंत्री बनाये रखा.
संघ के एक नेता इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहते हैं, 'वो इलाका प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है. अगर उम्मीदवार बदला जाता तो विपक्ष को मौका मिल जाता और वो डबल इंजिन की सरकार को निशाना बनाना शुरू कर देता.'
ऐसे में बीजेपी ने लोगों से वोट मांगने का नया तरीका निकाल लिया है, ताकि कार्यकर्ताओं की नाराजगी चुनावों तक अलग रखी जा सके. संघ के नेता के मुताबिक, बीजेपी कार्यकर्ता लोगों के बीच जाकर राष्ट्र निर्माण के नाम पर वोट मांग रहे हैं - मतलब, वही समझें नीलकंठ तिवारी नहीं, योगी आदित्यनाथ भी नहीं बल्कि सीधे लोग मोदी के नाम पर ही वोट दें.
शहर दक्षिणी तो एक सैंपल जैसा है. बहुत सारे इलाके हैं जहां ऐसे ही किस्से सुनने को मिल रहे हैं. अभी वाराणसी में ही प्रधानमंत्री मोदी ने बूथ विजय सम्मेलन को संबोधित किया था - और वहां से भी कार्यकर्ताओं की नाराजगी की खबरें आयी हैं.
अगर बीजेपी का बूथ लेवल कार्यकर्ता ही नाराज हो गया, फिर तो जंग जीतना मुश्किल हो जाएगा. प्रधानमंत्री मोदी हमेशा ही कहते रहे हैं कि बूथ जीत गये तो समझो चुनाव जीत गये, लेकिन ये तो अलग ही बवाल मचा हुआ है.
आखिर कार्यकर्ताओं की नाराजगी की वजह क्या हो सकती है? एक बार फिर से वही शिकायतें सुनने को मिल रही हैं जो कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान सुनने को मिलती रहीं. जिसके खिलाफ सांसद और मंत्री तक चिट्ठी लिख लिख कर अपनी पीड़ा शेयर कर चुके हैं. पत्रों में तो यही लिखा जाता रहा कि अफसर उनकी एक भी बात नहीं सुन रहे हैं, लेकिन असलियत तो ये थी कि वे आम लोगों की कौन कहे, पार्टी कार्यकर्ताओं की ही मदद नहीं कर पा रहे थे - और बात कोरोना संकट के पहले और बाद में भी महसूस की गयी. बात भी सही है अगर विधायक और मंत्री अपने लोगों का कोई काम ही नहीं करा पाएंगे तो किस बिनाह पर राजनीति करेंगे?
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