पीएम नहीं, सीएम की लड़ाई लड़ रहे नीतीश
नीतीश कुमार ने राजनीतिक हलचल तेज़ कर दी है और साथ ही साथ भाजपा को संदेश भी पहुंचा दिया है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय सीएम की कुर्सी बचाए रखने के लिए वो कुछ भी करेंगे.
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बात 30 मई की है. जब नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ले रहे थे. तब एनडीए के एक प्रमुख सहयोगी जेडीयू अध्यक्ष और बिहार के मुखिया NItisj Kumar दुखी थे! अगले ही दिन नीतीश कुमार ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि वे सांकेतिक भागीदारी के पक्ष में नहीं हैं. इसलिए तय किया गया कि JDU एनडीए का हिस्सा रहेगा लेकिन सरकार में शामिल नहीं होगी. बात यहीं नहीं थमी. तुरंत बाद नीतीश कुमार ने बिहार में मंत्रिमंडल विस्तार का निर्णय लिया. इसमें जेडीयू के आठ मंत्रियों को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई. वैसे, यह जेडीयू कोटे का मंत्री पद था. बीजेपी कोटे का एक पद खाली था. पर बीजेपी ने किसी का नाम नहीं दिया. ताज्जुब की बात है, उसी दिन आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी की अलग-अलग दावत-ए-इफ्तार का आयोजन था. पर जेडीयू और बीजेपी एक दूसरे से अलग दिखीं. कई लीडर एक दूसरे के इफ्तार में शामिल नहीं हुए. बीजेपी लीडर और डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी ने यह कहकर पाटने की भरसक कोशिश की कि यह धार्मिक आयोजन था.
दूसरी तरफ, महागठबंधन के घटक दल हम सेक्यूलर के प्रमुख जीतन राम मांझी द्वारा आयोजित इफ्तार में नीतीश कुमार शामिल हुए. दोनों नेता एक दूसरे का जोरदार तरीके से स्वागत किया. यही नहीं, एनडीए के घटक दल एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान द्वारा आयोजित इफतार में भी नीतीश शामिल हुए. इसमें बीजेपी लीडर और डिप्टी सीएम सुशील मोदी भी थे.
वैसे, यह सामान्य घटनाक्रम कहा जा सकता है, लेकिन समय और स्वरूप एनडीए दलों के अंतरविरोध को जाहिर कर दिया. कहने को तो केंद्र में मंत्री के सांकेतिक प्रतिनिधित्व को लेकर गतिरोध पैदा हुआ. दरअसल, यह गतिरोध मंत्री पद के लिए बिल्कुल नहीं है. बीजेपी के प्रचंड बहुमत आने के बाद जेडीयू के अस्तित्व और उसके प्रमुख नीतीश कुमार की सीएम की कुर्सी को लेकर है.
नीतीश कुमार के लिए इस समय करो या मरो वाली स्थिति सामने आ गई है.
वैसे जेडीयू वालों का तर्क है कि पुराने सहयोगी के नाते दो-तीन मंत्री मिलना चाहिए था. जबकि बीजेपी वालों का तर्क है जब जीती हुई 5 सीटें जेडीयू को दी जा सकती हैं, तब एक-दो मंत्रालय से क्या फर्क पड़ने वाला था. एक सहयोगी को खुश करने पर दूसरे सहयोगी के नाराज होने का खतरा है. जेडीयू जब इतनी पुरानी सहयोगी है तब ऐसी परिस्थिति भी समझती होगी. लेकिन यह सब सतही चर्चा है. दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव में भले ही बीजेपी ने अपनी जीती 5 सीटें जेडीयू को दे दी थीं. इस बात को लेकर बीजेपी-जेडीयू के कार्यकर्ता चकित थे. वह इसलिए कि 2014 में दो सीटों वाली जेडीयू और बीजेपी बराबर-बराबर 17 सीटों पर चुनाव लड़ीं थीं.
जेडीयू को इस सीट का गणित तब समझ में आया जब महागठबंधन में पीएम के सर्वमान्य लीडर को लेकर सिर फुटौव्वल होने लगा. विपक्षी के पास कोई सर्वमान्य लीडर नहीं था. माना जाता है कि बीजेपी की यह दूर की कौड़ी थी. लेकिन जेडीयू के पास कोई चारा नहीं था. 2019 के परिणाम में बीजेपी की कमजोर स्थिति नीतीश के महत्व को बढ़ा सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जाहिर तौर पर बीजेपी अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए कश्मीर में धारा 370 और 35ए को हटाने और राम मंदिर का निर्माण किए जाने जैसे मुददे को आगे बढ़ाएगी. ऐसे मसले पर नीतीश की चुप्पी बड़ी मुसीबत बन जाती. सीएम की कुर्सी भी खतरे में पड़ जाती. लिहाजा, वोट बैंक बिखरने का डर सताने लगा. क्योंकि बिहार में आरजेडी, आरएलएसपी और हम सेक्यूलर का सुपड़ा साफ हो गया. ऐसे में जेडीयू को बीजेपी से विचारधारा के स्तर पर अलग दिखना मजबूरी बन गई. मोदी कैबिनेट से नाराजगी के बाद नीतीश की प्रतिक्रिया भी उसी वोट बैंक को ध्यान में रखकर सामने आई. नीतीश ने कहा कि बिहार में जो मंत्री बनाए गए, उसमें उन लोगों का ख्याल नहीं रखा गया, जो धूप में खड़े रहकर वोटिंग करते हैं. मुखर लोगों को मंत्रिमंडल में ज्यादा तरजीह दी गई. यही नहीं, नीतीश ने बदले में जो मंत्रिमंडल का गठन किया उसमें सवर्ण, दलित, पिछड़ा, अतिपिछड़ा को शामिल किया गया. देखें तो, तनातनी के दौर में दलित नेताओं द्वारा आयोजित इफ्तार में शामिल होना भी उसी वोट बैंक का सहानुभूति साधने की कड़ी रही.
अब जब 2020 में विधानसभा चुनाव हैं. अल्पसंख्यक वोट आरजेडी और कांग्रेस में शिफ्ट हैं. जेडीयू की जिस एक सीट पर हार हुई है वह मुस्लिम बाहुल्य किशनगंज सीट रही है. नीतीश कुमार को अहसास हो गया कि केंद्र में बीजेपी को बहुमत आने के बाद उनकी भूमिका कम रह गई है. पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को भी पता है कि उनका आधार वोट बैंक जिस फैसले से मजबूत होगा, उसमें नीतीश पहले से ही विरोध जता रहे हैं. लिहाजा, नीतीश की टिप्पणी के बाद भी बीजेपी गंभीरता नहीं दिखाई.
देखें तो बीजेपी और जेडीयू विश्वासी सहयोगी रही हैं. लेकिन पीएम नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद से नीतीश कुमार का गतिरोध उभरता रहा है. लिहाजा, 2013 में जेडीयू ने बीजेपी नेताओं को पटना में निमंत्रण दिया था, लेकिन आखिरी समय में नरेंद्र मोदी के नाम को आधार बताते हुए भोज रद्द कर दिया गया. यही नहीं, बाढ़ पीड़ितों के लिए जब नरेंद्र मोदी ने राशि दी थी तब उसे भी लौटा दिया गया था. इसके राजनीतिक मायने अल्पसंख्यक वोट को अपने पक्ष में बनाए रखना था. बाद में दोनों दल अलग हो गए. फिर 2015 में आरजेडी के साथ मिलकर जेडीयू की सरकार बनी. 2017 में आरजेडी और जेडीयू के बीच ऐसी परिस्थिति बनी कि जेडीयू फिर बीजेपी के साथ आ गई. तब से नीतीश कुमार के सामने अल्पसंख्यक को अपने पक्ष में लाने की चुनौती रही. नरेंद्र मोदी की प्रचंड जीत के बाद से अतिपिछड़ा वोट न हाथ से निकल जाए इसलिए जेडीयू ने बीजेपी से दूरी दिखने का अच्छा अवसर समझा.
बिहार का राजनीतिक घटनाक्रम बढ़ गया. एक दूसरे को आमंत्रित करने लगे. लोक जनतांत्रिक पार्टी के प्रमुख राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने विपक्षी दलों को नीतीश कुमार को 2024 का पीएम कैंडिडेंट घोषित करने की मांग कर डाली. हालांकि, बीजेपी ने संयम दिखाया है. केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने जब इफ्तार की तस्वीरों के साथ टिप्पणी की तब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने ऐसी टिप्पणी से बचने की नसीहत दे डाली. दूसरी तरफ, शनिवार को नीतीश कुमार ने कहा है कि 2020 का चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ेंगे. संभव हो गतिरोध को आगे बढ़ाने का फिलहाल सही समय नहीं हो. बहरहाल, नीतीश कुमार को जो संदेश देना था वह दे चुके. बीजेपी को भी जो समझना था वह समझ ली. लेकिन इतने के बाद भी चुप रह जाए ये नई बीजेपी की नीति नहीं है.
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