बीजेपी से जूझ रहे नीतीश कुमार को विपक्ष भला क्यों मोहरा बनाना चाहता है?
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने की सूरत में ज्यादा फायदे में तो तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) ही लगते हैं - आखिर प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) किसके लिए काम कर रहे हैं?
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष का उम्मीदवार बनाये जाने का शिगूफा नवाब मलिक ने ही छोड़ा था. अगले ही दिन ED के अफसरों ने एनसीपी नेता को घर से उठा लिया - और गिरफ्तार भी कर लिया गया, लेकिन नवाब मलिक की फिक्र करने वाले सभी नेताओं ने गिरफ्तारी को यूपी चुनाव और मुस्लिम वोट को लेकर अमित शाह के बयान से जोड़ कर ही देखा था.
नवाब मलिक का कहना था कि राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष के उम्मीदवार का फैसला तमाम दलों के नेता सामूहिक रूप से लेंगे और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम पर भी विचार किया जा सकता है, लेकिन ऐसा मुमकिन होने से पहले कुछ शर्तें भी लागू हैं.
नीतीश कुमार को लेकर नवाब मलिक ने शर्तें भी बता दी थी, 'तब तक चर्चा नहीं हो सकती जब तक वो बीजेपी से नाता न तोड़ लें... पहले उन्हें बीजेपी से नाता तोड़ लेना चाहिये और उसके बाद ही विचार किया जा सकता है... सभी दलों के नेता फिर एक साथ बैठेंगे और सोचेंगे.'
नीतीश कुमार ने नवाब मलिक मलिक की बातों को वैसे ही खारिज कर दिया, जैसे कुछ दिन पहले जयंत चौधरी ने अमित शाह के बयान पर रिएक्ट किया था, 'इसका तो हमारे दिमाग में कोई आइडिया ही नहीं है, न हमारी कोई कल्पना है,' - लगता है नीतीश कुमार भी राजनीतिक के जयंत चौधरी वाले मोड़ पर ही खुद को पा रहे हैं, फर्क बस ये है कि कोई इस पार तो कोई उस पार है.
बहरहाल, अब ये तो समझ में आ ही गया कि पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के बाद लड़ाई का अगला मैदान राष्ट्रपति चुनाव होगा - जुलाई, 2022 में देश के अगले राष्ट्रपति के लिए चुनाव कराया जाना है.
ये बयान जरूर एनसीपी नेता के हवाले से आया है, लेकिन ऐसी कोशिशों के केंद्र में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव हैं और उनके साथ साथ प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) भी अपने हुनर और खासियत के मुताबिक एक्टिव हो गये हैं.
नीतीश कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने की बात केसीआर के मुंबई दौरे के बाद सामने आयी है, लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि उससे पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री सिर्फ प्रशांत किशोर ही नहीं, बिहार में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) से भी मिल चुके थे - और नीतीश कुमार के लिए फिक्र करने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यही है.
नीतीश को मोहरा बनाने की कवायद नहीं तो क्या है
महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार के मंत्री नवाब मलिक की गिरफ्तारी ने विपक्षी खेमे में सबको अपना अपना हित साधने का मौका दे दिया है. नवाब मलिक भी कानूनी पचड़े में अपने साथी नेता और पूर्व कैबिनेट सहयोगी अनिल देशमुख की ही तरफ बुरी तरह फंस चुके हैं.
क्या विपक्षी खेमे के लिए नीतीश कुमार की उपयोगिता भी नवाब मलिक जैसी ही रह गयी है?
नवाब मलिक की गिरफ्तारी का सीधा असर ये है कि एनसीपी नेता शरद पवार को बहुत बड़ा झटका लगा है - और शरद पवार के बचाव की मुद्रा में आ जाने से लगता है जैसे सोनिया गांधी के साथ साथ ममता बनर्जी भी मन ही मन खुश हो रही होंगी. हो सकता है राहुल गांधी कुछ और सोच रहे हों. असल में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी दोनों के ही मन में ये कॉमन ख्याल होगा कि शरद पवार कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व दोनों को ही अपने फायदे के लिए फंसाने की कोशिश करते आ रहे हैं.
और ऐसी सूरत में कांग्रेस और तृणमूल में स्कोप खत्म होने के बाद प्रशांत किशोर को भी आपदा में अवसर ही समझ आ रहा होगा, तभी तो नीतीश कुमार से मुलाकात भी मैनेज हो गयी. साथ में बैठ कर खाने के लिए बुलाया तो नीतीश कुमार ने ही था, लेकिन उनके मन में ऐसा करने का ख्याल तो प्रशांत किशोर ने ही स्पॉन्सर किया होगा - भले ही वो कोई मैसेंजर की सलाहियत से संभव हुआ हो या फिर कोई सब्जबाग दिखाने की किसी माध्यय से कोशिश हुई हो.
और मुद्दे की बात ये है कि नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से साफ कर दिया है कि न तो किसी ने उनके सामने ऐसा प्रस्ताव रखा है, न ही ऐसी कोई अंदर से ही कभी इच्छा हुई है. जब ओम प्रकाश चौटाला से नीतीश कुमार मिले थे तब भी ऐसा ही बयान दिया था, लेकिन अचानक बीजेपी ने जेडीयू नेता के पीएम मैटीरियल बनने तक में सारा खेल गड़बड़ कर दिया था.
पीएम मैटीरियल या राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार: हैरानी की बात ये है कि अब तक नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल बताने वाले जेडीयू नेता ही देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से उनकी तुलना करने लगे हैं.
जेडीयू नेता केसी त्यागी भी पार्टी में आरसीपी सिंह, अध्यक्ष ललन सिंह और अब उपेंद्र कुशवाहा जैसी ही हैसियत रखते हैं. मोदी सरकार में मंत्री बन जाने के बाद से आरसीपी सिंह की निष्ठा पर नीतीश कुमार के दरबार में थोड़ा शक जरूर जताया जाने लगा है.
ताजा चर्चाओं के बीच केसी त्यागी का रिएक्शन था, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए आना पूरे बिहार सहित पार्टी के लिए गर्व की बात है - डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के बाद नीतीश कुमार अकेले बिहारी हैं जो देश के सर्वोच्च पद के लिए योग्य माने जा रहे हैं. हालांकि, केसी त्यागी ने नीतीश कुमार की प्रतिक्रिया की तरफ भी इशारा किया जिसमें वो ऐसी चर्चाओं को हंसते हंसते खारिज भी कर चुके हैं.
विपक्ष नजरिया भी बीजेपी जैसा ही है: अब तक की बिहार की राजनीति को समझने की कोशिश करें तो नीतीश कुमार सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ही नहीं, बीजेपी नेतृत्व के मन में वैसा ही भाव महसूस करते रहे होंगे - क्योंकि दोनों में से कोई भी नीतीश कुमार को बिहार में फूटी आंख नहीं देखना चाहता.
अगर बीजेपी के पास नीतीश कुमार का विकल्प होता तो 2020 के चुनाव नतीजे आने के बाद वो शायद ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाते. वैसे भी नीतीश कुमार तो यही कहते हैं कि वो बीजेपी नेताओं के कहने पर ही मुख्यमंत्री बनने को तैयार हुए थे.
बिहार चुनाव में तो बीजेपी ने नीतीश कुमार को कहीं का नहीं छोड़ा था. चिराग पासवान ने तो बीजेपी के लिए नीतीश कुमार की जड़ें ही खोद डाली - और जेडीयू बीजेपी मुकाबले काफी कम सीटों पर सिमट कर रह गयी. फिर भी जैसे 2015 में कम सीटों के बावजूद लालू यादव ने नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने में रोड़ा बनने की कोशिश नहीं की, बीजेपी ने भी वही रास्ता अख्तियार किया. कह सकते हैं आरजेडी और बीजेपी दोनों ही पांच साल के फासले के बावजूद एक ही स्थिति को प्राप्त हुए थे.
आरजेडी और बीजेपी की मंशा तो समझ में आती है, लेकिन पूरा विपक्ष नीतीश कुमार को मोहरा बनाने पर क्यों तुला हुआ है, जबकि साफ है कि राष्ट्रपति चुनाव हर तरीके से नीतीश कुमार के लिए घाटे का सौदा है.
ये तो नीतीश के खिलाफ नयी साजिश लगती है
अभी की स्थिति ये है कि नीतीश कुमार काफी हद तक बीजेपी के खिलाफ हदबंदी करने में सफल नजर आ रहे हैं - क्योंकि नीतीश कुमार को मालूम है कि बीजेपी नेतृत्व ने जैसे यूपी चुनाव के चलते योगी आदित्यनाथ के नखरे बर्दाश्त करता रहा, अगले आम चुनाव तक अपनी तरफ से मोदी-शाह उनको भी नहीं छेड़ पाएंगे. तब तक जातीय जनगणना जैसे वे मुद्दों की बदौलत, जो विपक्ष के बीच नीतीश कुमार की पैठ मजबूत कर सकें, वो राजनीति करते रहेंगे.
एक्शन के रिएक्शन में बीजेपी के नीतीश की घेरेबंदी का मकसद तो समझ में आता है, लेकिन विपक्ष ऐसा क्यों करने लगा - ये समझना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है.
1. मुलाकातें अनेक, मकसद एक: 2017 में जब मीरा कुमार को विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया था तब वो एनडीए का हिस्सा नहीं बने थे. एनडीए की तरफ से दलित उम्मीदवार की वजह से ही कांग्रेस नेता मीरा कुमार सबकी पसंद बनी थीं, लेकिन नीतीश कुमार ने ऐन मौके पर सभी साथियों को गच्चा दे दिया था.
तब मीरा कुमार की जगह राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी का सपोर्ट करते हुए नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से विपक्ष को एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी. नीतीश कुमार का कहना रहा कि मीरा कुमार को चुनाव लड़ाने के बजाय विपक्ष को एकजुट होकर भविष्य में चुनाव के जरिये दलित की बेटी को राष्ट्रपति भवन भेजना सुनिश्चित करना चाहिये.
नवाब मलिक की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र में शुरू हुई राजनीतिक हलचल से ठीक पहले दो बड़ी मुलाकातों ने हर किसी का ध्यान खींचा था. एक मुलाकात रही टीआरएस नेता केसीआर की शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे और एनसीपी नेता शरद पवार से मुंबई में - और दूसरी नीतीश कुमार की चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर से दिल्ली में.
दोनों मुलाकातों का अहम पहलू ये भी रहा कि केसीआर के साथ एनसीपी और शिवसेना नेताओं की मुलाकात वैसे ही माहौल में हुई जैसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ. हालांकि, उद्धव ठाकरे की सेहत सही नहीं होने की वजह से ममता बनर्जी उनसे नहीं मिल पायी थीं. प्रशांत किशोर भी जेडीयू से निकाले जाने के बाद नीतीश कुमार से मिले हैं. सूत्रों के हवाले से ये भी खबर आयी है कि दिल्ली से पहले नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर के बीच एक गुपचुक मुलाकात पटना में भी हो चुकी थी.
जैसे कहने को शिष्टाचार मुलाकात प्रशांत किशोर ने दिल्ली में डिनर पर नीतीश कुमार से की, बिलकुल वैसे ही महीने भर के भीतर ही वो हैदराबाद जाकर केसीआर से भी मिल चुके हैं.
लेकिन ये तो कुछ भी नहीं, मुलाकातों का ये दौर शुरू शुरू होने से पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव हैदराबाद में ही आरजेडी नेता तेजस्वी यादव से भी मिल चुके हैं - और तमाम मुलाकातों में ये कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण राजनीतिक कड़ी लगती है.
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, प्रशांत किशोर और केसीआर की मीटिंग में ही राष्ट्रपति चुनाव पर चर्चा हुई, ताकि विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को चैलेंज करने की नये सिरे से कोशिश की जा सके.
कहते हैं केसीआर और पीके की मुलाकात के दौरान ही तय हुआ कि राष्ट्रपति चुनाव में सभी विपक्षी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश होनी चाहिये. फिर सवाल उठा कि कोई एक सर्वमान्य चेहरा भी पेश किया जाये जो सभी को स्वीकार भी हो.
रिपोर्ट के मुताबिक, मीटिंग के दौरान ही प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का आइडिया दिया और केसीआर फौरन ही तैयार भी हो गये.
2. बिहार में बीजेपी को ठिकाने लगाने की कोशिश: बिहार से नीतीश कुमार को बाहर कर दिया जाये तो लगे हाथ बीजेपी भी पैदल हो जाएगी - और महागठबंधन की भी महाराष्ट्र के महाविकास आघाड़ी जैसी हैसियत बन जाएगी.
विपक्ष का ये इरादा तो साफ लगता है कि बिहार में बीजेपी का महाराष्ट्र जैसा हाल करने की तैयारी है, लेकिन ये सब नीतीश कुमार की कुर्बानी देकर क्यों?
कुर्बानी जैसा इसलिए भी लगता है क्योंकि विपक्ष अगर नीतीश कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाता है तो भी वो चुनाव तो जीतने से रहे - क्योंकि अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति बनाने के लिए बीजेपी को एनडीए के साथियों की भी कोई जरूरत नहीं पड़ने वाली है.
2024 के लिए अगर नीतीश कुमार को विपक्ष राहुल गांधी या ममता बनर्जी की जगह प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये ये तो समझ में आता है, लेकिन ये ऑफर तो उनसे बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा मांगने जैसा ही लगता है.
ये ठीक है कि नीतीश कुमार के अलग हो जाने के बाद बिहार में बीजेपी की हालत अपनेआप पतली हो जाएगी, लेकिन नीतीश कुमार तो कहीं के नहीं रह जाएंगे!
3. तेजस्वी यादव के लिए रेड कार्पेट तैयारी लगती है: सबसे बड़ा सवाल ये है कि प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार की जगह शरद पवार के नाम प्रस्ताव केसीआर के सामने क्यों नहीं रखा?
क्योंकि शरद पवार को लेकर तो पहले से ही माना जाता रहा है कि वो प्रधानमंत्री पद की दौड़ से बाहर हैं, हां - राष्ट्रपति भवन जाने की बात चले तो वो खुशी खुशी तैयार हो जाएंगे. फिर भी प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार का नाम आगे किया है.
क्या ये प्रशांत किशोर के नीतीश कुमार से हिसाब किताब करने का कोई नया तरीका है - क्योंकि ये तो तेजस्वी यादव के लिए बिहार में रेड कार्पेट स्वागत की तैयारी जैसा ही लगता है.
2020 के बिहार चुनाव में आरजेडी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव के कैंपेन में ऐसी कई चीजें देखने को मिली थीं जो ये समझने के लिए काफी लगीं कि प्रशांत किशोर परदे के पीछे से उनकी मदद कर रहे हैं - मसलन, नीतीश कुमार के लालू परिवार पर नौ नौ बच्चे पैदा करने जैसे आरोपों के बावजूद जो संयम तेजस्वी यादव के रिएक्शन में देखने को मिला था वो प्रशांत किशोर की सिग्नेचर स्टाइल ही लगती है. कैबिनेट की पहली मीटिंग में पहली दस्तखत से 10 लाख नौकरियां का आदेश जारी करने का चुनावी वादा भी ऐसा ही लगा था.
और अब जबकि केसीआर से तेजस्वी यादव की मुलाकात होती है, फिर प्रशांत किशोर मिलते हैं और मिलते ही राष्ट्रपति पद के लिए नीतीश कुमार का नाम सुझाते हैं - क्या ये सब नीतीश कुमार के खिलाफ चल रही साजिशों की तरफ इशारा नहीं करता है.
मुख्यमंत्री की नयी पारी शुरू करने के बाद जिस तरीके से नीतीश कुमार को बीजेपी नेतृत्व से पूछ पूछ कर काम करना पड़ रहा था, उनके बयानों से भी ये महसूस हो रहा था - लेकिन धीरे धीरे नीतीश कुमार रंग दिखाने लगे. जातीय जनगणना के नाम पर दिल्ली जाकर तेजस्वी यादव के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात से तो ऐसा ही लगा था.
अगर पहले वाली बात होती तो ऐसा जरूर लगता कि नीतीश कुमार पचड़े से निकलने का कोई रास्ता तलाश रहे हैं, लेकिन ऐसे वक्त जब तेजस्वी यादव किसी भी सूरत में नीतीश कुमार के सपोर्ट के बदल मुख्यमंत्री पद से कम पर राजी न हो रहे हों - नीतीश कुमार के साथ विपक्ष के तो बीजेपी से भी बुरे सलूक की मंशा लगती है.
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