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Updated: 25 अक्टूबर, 2020 09:07 PM
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने बहुत पहले ही मान लिया था कि कोई भी देश का प्रधानमंत्री किस्मत से ही बनता है. हो सकता है लिखने वाले ने फिलहाल के लिए नीतीश कुमार की किस्मत में प्रधानमंत्री पद न लिखा हो, लेकिन खुद नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी को अपने नाम जरूर लिख डाला है.

2019 के आम चुनाव में सोशल मीडिया पर एक जुमला खूब वायरल हुआ था - कुछ भी कर लो 'आएगा तो मोदी ही'. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संगत में नीतीश कुमार के साथ भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है, लेकिन नीतीश कुमार के फिर से सत्ता संभालने में जरूरी नहीं कि मोदी भी साथ में हों ही, तेजस्वी यादव भी तो हैं मैदान में.

अगर वास्तव में ऐसा ही होता है तो नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर फिर से बैठने में दोनों में से कोई एक ही मददगार बन सकता है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) या फिर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav). फिर भी एक बात मान कर चलनी होगी, दोनों में से मददगार बनने का मौका किसे मिलता है - ये फैसला भी नीतीश कुमार ही करने वाले हैं.

सर्वे और ओपिनियन पोल तो यही बता रहे हैं कि बिहार में एनडीए की सत्ता में वापसी हो रही है और नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनने वाले हैं, लेकिन बीजेपी के एक विज्ञापन ने नये सिरे से शक की गुंजाइश बना डाली है. अखबारों में आये बीजेपी के विज्ञापन में नीतीश कुमार ही नदारद हैं - वो भी तब जबकि हर बीजेपी नेता हर मौके पर यही कहते सुना जा रहा है कि नतीजे जैसे भी आयें, मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार ही बनेंगे. बीजेपी नेताओं के ऐसा कहने का आशय बीजेपी और जेडीयू की सीटें कम-ज्यादा होने से है.

बीजेपी का चेहरा मोदी तो नीतीश क्या हुए?

राजनीति का मकसद सत्ता हासिल करना भले ही हो, लेकिन कोई भी कुर्सी मंजिल नहीं होती. अगर ऐसा होता है तो मकसद का सुखद पक्ष काफी पीछे छूट जाता है.

कोई भी चुनाव सत्ता हासिल करने के बने रास्ते में वैतरणी जैसा होता है - लेकिन जरूरी नहीं कि चुनावों के नतीजे ही तय करें कि कुर्सी पर कौन बैठेगा. महाराष्ट्र ताजातरीन मिसाल है. चुनाव के नतीजे बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में आये और फिर ऐसे राजनीतिक समीकरण बने कि एक नया गठबंधन सत्ता पर काबिज हो गया.

अब तो लगता है - संविधान और भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूरियां नहीं होतीं तो ऐसा कोई तरीका इजाद किया जा चुका होता जो चुनावी राजनीति से इतर हो - और उसका एंड प्रोडक्ट कुर्सी हासिल करना हो.

बीजेपी काफी पहले ही कह चुकी है कि एनडीए के मुख्यमंत्री पद का चेहरा नीतीश कुमार ही हैं - और अमित शाह से लेकर जेपी नड्डा तक यही दोहरा भी रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बिहार के लोगों को अलग अलग तरीके से यही समझा भी रहे हैं - और लोगों को समझाने के लिए नीतीश कुमार के 15 साल के शासन को साढ़े तीन साल में समेट कर पेश कर रहे हैं.

बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन बिहार चुनाव के पहले चरण के मतदान से पहले बीजेपी के पोस्टर में नीतीश कुमार की तस्वीर न होना शक को गहरा कर रहा है. पोस्टर में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर है, उसे तो होना ही है. जब नीतीश कुमार चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ मंच शेयर करते हैं तो पोस्टर में जगह देने से परहेज क्यों है?

ऐसा भी नहीं कि पोस्टर में बीजेपी के अलावा किसी और को जगह नहीं दी गयी है. सबसे ऊपर एक तरफ एनडीए के चारों दलों के नाम और चुनाव निशान भी दिये गये हैं. ये बात अलग है कि बाकी बातों की तुलना में उसके फॉन्ट उतने ही बड़े हैं जैसे किसी भी विज्ञापन में 'शर्तें लागू' लिखा रहता है. अगर नीतीश कुमार से कोई परहेज होता तो चुनाव निशान या पार्टी का नाम भी क्यों दिया गया होता - तो क्या बीजेपी को नीतीश कुमार के चेहरे से कोई दिक्कत है?

bjp bihar advertisementPM मोदी के साथ नीतीश कुमार मंच शेयर करते हैं और पोस्टर नहीं - क्यों?

सवाल ये उठता है कि ऐसा बीजेपी क्या नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर की आशंका से कर रही है?

चिराग पासवान ने भी मौका देख कर सवाल जड़ दिया है. ट्विटर पर लिखते हैं - "आदरणीय नीतीश कुमार जी को प्रमाण पत्र की आवश्यकता खत्म होती नहीं दिख रही है. बीजेपी के साथियों का नीतीश कुमार जी को पूरे पन्ने का विज्ञापन और प्रमाणपत्र देने के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए - और जिस तरीके से भाजपा गठबंधन के लिए ईमानदार है, वैसे ही नीतीश जी को भी होना चाहिये."

नीतीश कौन सी चाल चलेंगे?

ये तो पक्का है कि बिहार में फिर एनडीए की सरकार बनी तो नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे - और ये भी उतना ही पक्का लग रहा है कि महागठबंधन की मदद से भी सरकार बनी तो भी नीतीश कुमार ही सीएम की कुर्सी पर बैठेंगे!

ओपिनियन पोल अगर कोई संकेत हैं तो बिहार चुनाव में सम्मानजनक सीटें हासिल करने की होड़ से कांग्रेस पहले से ही बाहर हुई लगती है - और चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी का भी करीब करीब वैसा ही हाल होता नजर आ रहा है. ऐसी हालत में जाहिर है मुख्य तौर पर सीटों का बंटवारा तो जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी में ही होना तय लगता है - और फिर तो मान कर चलना होगा कि आगे की राजनीति उसी पर निर्भर करेगी.

नीतीश कुमार की किस्मत में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी हो सकती है, लेकिन अपने बूते सरकार बनाना तो नाममुकिन ही रहा है. नीतीश कुमार जब भी कुर्सी पर बैठेंगे गठबंधन का ही सहारा होगा. गठबंधन का नाम कुछ भी हो फर्क भी नहीं पड़ता.

बीजेपी की हर हाल में कोशिश यही रहेगी कि वो ऐसी सरकार न बनने दे जिसमें वो खुद साझीदार न हो. अगर सीटों की संख्या कम हो गयी तब भी. ठीक वैसे ही तेजस्वी की कोशिश होगी कि किसी भी कीमत पर बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने का जुगाड़ बन जाये, उस हाल में भी जब आरजेडी बहुमत के आंकड़े से दूर रह जाये. ऐसा भी तो हो संभव है बिहार को बीजेपी से बचाने के नाम पर नीतीश कुमार को तेजस्वी यादव सपोर्ट कर दें.

ये सही है कि तेजस्वी यादव बिहार चुनाव में महागठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, लेकिन ये होना भी कम बड़ी बात तो है नहीं. लालू यादव ने राजनीतिक विरासत तो सौंप दी थी, तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम भी रह चुके हैं. मगर बात इतने भर से तो बनती नहीं. डिप्टी सीएम इसलिए बने क्योंकि लालू प्रसाद जेल से बाहर आकर पार्टी को चुनाव लड़ा रहे थे और तेजस्वी यादव उनके बेटे हैं. वैसे तो तेज प्रताप भी मंत्री बने ही थे, जबकि पार्टी में उनकी मर्जी से किसी को पांच टिकट तक नहीं दिये जाते हैं.

तेजस्वी यादव के लिए ये भी कम नहीं होगा कि वो नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने के लिए सपोर्ट कर दें - और खुद फिर से डिप्टी सीएम बन जायें. इस बार सीएम न सही डिप्टी सीएम तो बन ही जाएंगे - और अगली बार के लिए सीएम की तैयारी कर सकते हैं.

दोनों हाथों में लड्डू होने की सूरत में, हो सकता है नीतीश कुमार पहले सारे जोड़ घटाने कर लें - और फिर बीजेपी या आरजेडी में से किसी एक के साथ जाने का फैसला करें. ऐसा भी तो हो सकता है, नीतीश कुमार कोई ऐसा रास्ता निकाल लें कि बारी बारी ढाई साल दोनों के साथ सरकार बना ली जाये. हां, पहले किसके साथ जाना ठीक रहेगा कि आगे मुश्किलें बढ़ने पर पाला बदलने का स्कोप बचा रहे - यही वो मुश्किल फैसला होगा जो नीतीश कुमार को करना होगा!

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