बीजेपी को लेकर नीतीश कुमार के मन की बात उनके पाला बदलने का ही संकेत है
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने मरते दम तक बीजेपी (BJP) से दूर रहने का ऐलान किया है. ऐसा लगता है जैसे वो तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) से पीछा छुड़ाने का संकेत दे रहे हों - क्योंकि जेडीयू नेता का ट्रैक रिकॉर्ड तो यही कहता है, लेकिन ये करीब करीब नामुमकिन है.
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क्या नीतीश कुमार (Nitish Kumar) फिर से बीजेपी (BJP) के साथ जाना चाहते हैं? नीतीश कुमार के हाल के बयान से तो ऐसी ही संभावना लगती है. ऐसी बातें तो नीतीश कुमार तभी करते हैं जब वो किसी तरह के सरप्राइज देने की तैयारी में होते हैं - और फिर कुछ दिन बाद नीतीश कुमार के पाला बदल लेने की खबरें आने लगती हैं.
नीतीश कुमार ने ताउम्र कभी भी बीजेपी के साथ न जाने की बात करने लगे हैं. सिर्फ भाव ही नहीं, सीधे सीधे शब्दों में कहते भी हैं, मरते दम तक नहीं जाएंगे - आखिर नीतीश कुमार को ऐसी बात करने की जरूरत क्यों पड़ती है.
जब भी वो बीजेपी के साथ रहते हैं, लालू यादव के लिए भी ऐसी ही बातें करते हैं. अगर कोई किसी के साथ होता है, तो यूं भी मान कर चला जाता है कि वो विरोधी के साथ नहीं जाने वाला है. नीतीश कुमार के लिए ऐसी बातें भी कसमें-वादे-प्यार-वफा की तरह ही होती हैं. बातें हैं बातों का क्या?
ऐसी बातें तो कोई तभी करता है जब साथ वाले को उसके आगे भी साथ बने रहने को लेकर शक होने लगे. क्या नीतीश कुमार को लेकर आरजेडी नेताओं लालू यादव और तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) को शक होने लगा है? बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकीं, तेजस्वी यादव की मां राबड़ी देवी तो पहले ही नीतीश कुमार को सब गलती-सही के लिए माफ कर चुकी हैं.
तेजस्वी यादव के बर्थडे ही नहीं, ऐसे और भी मौकों पर जिस तरह से नीतीश कुमार ने उदारता दिखायी है, ये तो लगता ही है कि कहीं न कहीं मन में कोई खटक तो है ही. कोई कसर बाकी तो रह ही जाती है.
नीतीश कुमार की ऐसी ही कमजोरियों का फायदा उठाकर सुधाकर सिंह जैसे आरजेडी नेता उनके बारे में न जाने क्या क्या कह चुके हैं. नीतीश कुमार को भला बुरा कहने के लिए सुधाकर सिंह को नोटिस भी मिल चुका है और वो उसका जवाब भी दे चुके हैं. सुधाकर सिंह जिस लहर को आगे बढ़ा रहे हैं, वो आग तो उनके पिता और बिहार आरजेडी अध्यक्ष जगदानंद सिंह की ही लगायी हुई है.
सुधाकर सिंह के अब तक हथियार न डालने की वजह भी कोई छिपी हुई नहीं लगती. लगता तो यही है कि लालू यादव और तेजस्वी यादव की मर्जी से ही सब कुछ हो रहा है - और नीतीश कुमार गुस्से में अचानक कोई ऐसा कदम न उठालें जिससे नुकसान हो, तेजस्वी यादव जब भी पूछा जाता है अपनी तरफ से राजनीतिक बयान जारी कर देते हैं.
नीतीश कुमार ने बीजेपी को लेकर अभी जो बात कही है, वो काफी पुरानी बीमारी है. बीमारी के लक्षण पहली बार 90 के दशक में बिहार की एक रैली में ही देखी गयी. और वो कोई चुनावी रैली नहीं थी - खास बात तो ये रही कि नीतीश कुमार उस रैली में जाना तक नहीं चाहते थे.
लेकिन जैसे ही रैली में पहुंचे खेल समझ गये. और खेल कर भी दिये. तभी से लगातार खेल करते आ रहे हैं. अब तो हाल ये है कि एक तरफ नीतीश हैं, और दूसरी तरफ ऐसा लगता है जैसे आरजेडी और बीजेपी मिल कर खेल खेल रहे हों - लेकिन कोई भी नीतीश कुमार का बाल भी बांका न कर पाने की स्थिति में खुद को पा रहा है. शायद इसीलिए हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा है.
बीजेपी को पतवार चलाने के लिए नया मांझी भी मिल गया है, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ कोई भी एक्शन न लेकर नीतीश कुमार सारे विरोधियों की चालें नाकाम करते जा रहे हैं - क्या नीतीश कुमार अब भी इतने सक्षम हैं कि आगे भी बिहार की राजनीति के रिंग मास्टर बने रह सकते हैं?
मरते दम तक
आरसीपी सिंह के बाद नीतीश कुमार की नयी कमजोरी, उपेंद्र कुशवाहा करीब करीब बीजेपी के हाथ लग चुके हैं. उपेंद्र कुशवाहा कमजोर कड़ी तो हैं, लेकिन वो दोनों ही तरफ से मोहरा भी बने हुए हैं. घोषित तौर पर बीजेपी और अघोषित रूप से नीतीश कुमार दोनों ही उपेंद्र कुशवाहा के कंधे का इस्तेमाल कर रहे हैं - और खेल खेला जा रहा है.
नीतीश कुमार राजनीतिक लुकाछिपी की आखिरी पारी खेल रहे हैं
बीजेपी के साथ रिश्ते को लेकर मरते दम तक का जो वादा नीतीश कुमार कर रहे हैं, ये सब वो पहले से करते आये हैं. जिसके भी साथ रहें, नीतीश कुमार का ये वाला डायलॉग नहीं बदलता. जब बीजेपी के साथ हुआ करते थे, यही सुनने को मिलता रहा कि वो लालू यादव के साथ कभी नहीं जाएंगे. हां, हर बार वो मरते दम तक वाला वादा नहीं करते.
नीतीश कुमार जब भी बीजेपी को लेकर ऐसी वैसी बातें करते हैं, यही समझ में आता है कि उनको दिक्कत बीजेपी से नहीं है. रिश्तों में चुभ रहा कांटा सिर्फ मोदी-शाह की वजह से है. नीतीश कुमार को एक महारत और भी हासिल हो गयी है - लेकिन ये 2015 के बाद की बात है.
2013 से पहले तक नीतीश कुमार और बीजेपी दोनों ही एक दूसरे के पूरक बने रहे. एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर. बीजेपी को बस इतना ही फायदा होता कि वो लालू परिवार को सत्ता से बाहर रख पाने की खुशी मनाती रही, लेकिन बीजेपी अब तक एक भी ऐसा नेता नहीं खड़ा कर सकी जो नीतीश कुमार की बराबरी में खड़ा नजर आ सके.
ये कहना ज्यादा सही होगा कि नीतीश कुमार ने बीजेपी खेमे में ऐसे किसी भी नेता को उभरने ही नहीं दिया जो उनके लिए चैलेंज बन सके. एक दौर में बीजेपी के सबसे सक्षम नेता रहे सुशील कुमार मोदी तो जैसे न्योछावर ही कर दिये थे - जैसे वो मरते दम तक खुद को नीतीश कुमार का डिप्टी सीएम मान चुके हों.
2005 और उसके बाद के चुनाव तो नीतीश कुमार बीजेपी की मदद से जीत लेते रहे, लेकिन जब 2013 में बीजेपी का साथ छूटा तो मुकाबला मुश्किल लगने लगा. और फिर जरूरत के हिसाब से नीतीश कुमार ने बरसों पुरानी दुश्मनी छोड़ लालू यादव से हाथ मिला लिया. फिर 2017 आते आते लालू यादव का साथ छोड़ कर फिर से बीजेपी के साथ हो गये.
क्या आपने गौर किया? नीतीश कुमार अपने तिकड़मों में उलझा कर बीजेपी और लालू यादव की मदद से बारी बारी चुनाव जीतते आ रहे हैं - और चुनाव जीतने के कुछ दिन बाद पाला बदल लेते हैं.
जैसे 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार ने लालू यादव की मदद से जीता था, ठीक वैसे ही 2020 का वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और अमित शाह के इंतजामों के आधार पर जीते थे - और ध्यान देने वाली बात तो ये भी है कि चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वो एक ही तरीके से पाला बदल लेते हैं.
कहने को तो अब भी यही कह रहे हैं, ' हम लोग अटलजी को मानने वाले लोग हैं.' ऐसी ही बातें ममता बनर्जी के मुंह से भी सुनने को मिला करती हैं. ये फिर से जुड़ने के लिए एक सुरक्षित रास्ता बनाये रखने की कोशिश लगती है. जैसे ममता बनर्जी पहले आरएसएस और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ कर रही थीं, नीतीश कुमार भी तो करीब करीब वैसे ही पूर्व प्रधानमंत्री और बीजेपी के दिग्गज नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी का नाम ले रहे हैं.
मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को लेकर नीतीश कुमार कहते हैं, 'हमने बीजेपी को छोड़ दिया था, लेकिन वे जबरदस्ती पीछे पड़ कर साथ आये... 2020 में हम तो मुख्यमंत्री बनना नहीं चाहते थे... हम लोगों ने इन्हें कितनी इज्जत दी.'
लगे हाथ नीतीश कुमार ऐसा दावा करते हैं जिसके निशाने पर सीधे मोदी-शाह होते हैं, 'चुनाव तो होने दीजिये... इस बार, सबको पता चल जाएगा... कितनी किसकी सीटें आती हैं?'
और फिर सार्वजनिक घोषणा करते हैं, 'मरते दम तक बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे... मुझे मर जाना कबूल है, लेकिन बीजेपी के साथ जाना नहीं...'
नीतीश कुमार भले न जाने की बात कर रहे हों, लेकिन उनके साथी नेता उपेंद्र कुशवाहा बिहार की राजनीति में सीक्रेट डील की बात करने लगे हैं. उपेंद्र कुशवाहा दिल्ली के एम्स में भर्ती हुए थे तभी कुछ बीजेपी नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें सामने आयीं. पहले भी उपेंद्र कुशवाहा और बीजेपी के कुछ नेताओं की मुलाकात की खबर आयी थी. बीच में उपेंद्र कुशवाहा को डिप्टी सीएम बनाये जाने तक की चर्चा होने लगी थी. चर्चा तभी थमी जब नीतीश कुमार ने ऐसी चर्चाओं को सिरे से खारिज कर दिया - और फिर उपेंद्र कुशवाहा नये मिशन पर लग गये.
कहने को तो उपेंद्र कुशवाहा यही कह रहे हैं कि वो जेडीयू यानी नीतीश कुमार को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाले, लेकिन कयास तो यही लगाये जा रहे हैं कि वो बीजेपी ज्वाइन कर सकते हैं. ये सब जानने के बावजूद उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ नीतीश कुमार की तरफ से वैसी कोई कार्रवाई नहीं हो रही है जैसी आरसीपी सिंह, प्रशांत किशोर और कई नेताओं के खिलाफ हो चुकी है.
उपेंद्र कुशवाहा की ताजा गतिविधियों पर गौर करें तो वो जीतनराम मांझी की तरह ही नजर आते हैं. ये नीतीश कुमार ही हैं जो जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाये थे, लेकिन जब वो कुर्सी वापस लेने की कोशिश में लगे तो मांझी मुसीबत बनने लगे - अभी तो ऐसा ही लगता है जैसे उपेंद्र कुशवाहा में बीजेपी मांझी का नया अवतार देखने लगी है, जो नीतीश कुमार को बाकी नेताओं के मुकाबले ज्यादा डैमेज कर सकता है.
किधर जा रही है, बिहार की राजनीति?
नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं कि बीजेपी और तेजस्वी यादव से भी बड़ा खतरा उनके लिए उपेंद्र कुशवाहा ही हैं - क्योंकि जिस लव-कुश फॉर्मूले पर वो राजनीति करते आये हैं, उपेंद्र कुशवाहा भी उसी वोट बैंक के चहेते हैं. किसे क्या हासिल हुआ या नहीं हो पाया, अलग बात है.
बिहार की जातीय राजनीति में नीतीश कुमार नहीं पड़ना चाहते थे. वो शुरू से ही चाहते थे कि हर तबके के समाजवादी नेता बने रहें, लेकिन करीब तीस साल पहले की एक रैली में ऐसा कुछ हुआ कि नीतीश कुमार को भी बिहार की जातीय राजनीति में मजा आने लगा - और धीरे धीरे वो अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में जुट गये. काफी हद तक सफल भी रहे, लेकिन एक हद से बाहर भी नहीं जा पाये.
12 फरवरी, 1994 को पटना के गांधी मैदान में कुर्मी चेतना महारैली आयोजित की गयी थी. रैली की मेजबानी से भी नीतीश कुमार का कोई नाता नहीं रहा. तब विधायक रह चुके सतीश कुमार सिंह ने ये रैली बुलायी थी और चाहते थे कि हर वो नेता शामिल हो जिससे उनकी रैली कामयाब हो सके.
नीतीश कुमार रैली में शामिल होने को कतई तैयार नहीं थे. नीतीश कुमार को डर था कि रैली में शामिल होने के बाद उनके ऊपर जाति विशेष का नेता होने का ठप्पा लग जाएगा. फिर कुछ लोगों के समझाने बुझाने पर रैली में शामिल हुए - और सामने भीड़ देख कर हौसला बढ़ गया.
ये वही रैली रही जिसने नीतीश कुमार और लालू यादव के रिश्ते में फूट डाली थी. नीतीश कुमार को लगा कि वो अपनी अलग राजनीतिक जमीन भी तैयार कर सकते हैं - धीरे धीरे लालू यादव को घेरने का बहाना ढूंढने लगे और फिर दोनों के रास्ते अलग हो गये.
बीस साल बाद नीतीश कुमार और लालू यादव के रास्ते एक हुए भी लेकिन दो साल भी साथ साथ नहीं चल सके. एक बार फिर नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़ कर लालू यादव के साथ हो चुके हैं और मैसेज ये दे रहे हैं कि तेजस्वी यादव ही भविष्य के बिहार के नेता हैं.
नीतीश कुमार की मुश्किल ये है कि अलग अलग तरीके से बार बार मैसेज देने के बावजूद उन पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहा है, क्योंकि उनकी राजनीति कब कौन करवट ले बैठे ये तो उनकी परछाई को भी शायद ही कभी भनक लग पाती हो - नीतीश कुमार की यही कमजोरी उनकी सबसे बड़ी ताकत भी है.
जोर आजमाइश जारी है: बीजेपी की तरफ से भी और आरजेडी की तरफ से भी - नीतीश कुमार दोनों ही के निशाने पर हैं. दरअसल, दोनों को ही भविष्य की राजनीति करनी है, और दोनों में ही बराबरी का टक्कर भी होना है.
दोनों को ही नीतीश कुमार से पीछा छुड़ाना है, ताकि वे अपनी रणनीति में सफल हो सकें. बीजेपी को मौका मिले तो नीतीश कुमार को किनारे लगाने के लिए तेजस्वी यादव को भी मुख्यमंत्री बना दे, लेकिन आरजेडी का जनाधार इतना मजबूत है कि ऐसी गलती से उबर पाने में बीजेपी के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे.
एक बार तेजस्वी यादव को मौका मिल गया तो आरजेडी को सत्ता से बेदकल करना काफी मुश्किल होगा. तेजस्वी यादव को भी बीजेपी से ही लड़ना है, देखा जाये तो अभी तो नीतीश कुमार तेजस्वी यादव के लिए फायदेमंद ही हैं. दोनों की आपसी कमजोरियों की वजह से ही नीतीश कुमार लगातार प्रासंगिक बने हुए हैं. और सबको एक तरीके से उंगलियों पर नचाते नजर आते हैं - लेकिन कब तक, सबसे बड़ा सवाल यही है!
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