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Updated: 03 फरवरी, 2021 08:55 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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किसानों के आंदोलन को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Modi Sarkar) एक चीज तो साफ कर ही चुके हैं - सरकार और किसानों के बीच बातचीत महज एक फोन कॉल दूर है. दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से ये कोई नया प्रस्ताव नहीं है, बल्कि, 22 जनवरी को किसानों के साथ हुई बातचीत के दौरान आखिरी कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का ये आखिरी बयान रहा.

प्रधानमंत्री मोदी के सर्वदलीय बैठक में दिये बयान से ये तो स्पष्ट है ही कि किसानों और सरकार के साथ हुई बातचीत में 26 जनवरी का दिल्ली में हुआ उपद्रव कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. कानून अपनी जगह अपना काम करता रहेगा और बातचीत के जरिये बीचा का रास्ता निकालने की कोशिशें भी जारी रहेंगी. लेकिन किसानों को भी मान कर चलना होगा कि अब पुलिस के एक्शन पर भी सरकार का वो रुख नहीं दिखेगा जैसा NIA के नोटिसों पर नरेंद्र सिंह तोमर का कहना रहा कि अगर किसी को परेशान किया जा रहा है तो बताइये, सरकार जरूर देखेगी.

सरकार के साथ बातचीत को लेकर भी किसान नेताओं की तरफ से तरह तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं. भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नंबर ही मांग रहे हैं तो संयुक्त किसान मोर्चा के नेता धर्मेंद्र मलिक चाहते हैं कि जेडीयू नेता केसी त्यागी सरकार के साथ बातचीत में मध्यस्थता करें.

ये भी अजीब ही लगता है कि संयुक्त किसान मोर्चा नेताओं को किसान आंदोलन से दूर रखने का नियम भी बनाता है और मध्यस्थता के लिए भी एक नेता की ही मदद लेने की बात करता है. ये मोर्चा ही है जो राकेश टिकैत के पास पहुंचने की होड़ लगाने वाले नेताओं से परेशान है - और अब उसी जेडीयू के नेता की मदद चाहता है, जिसके सबसे बड़े नेता नीतीश कुमार कृषि कानूनों के मामले में मोदी सरकार के स्टैंड के साथ खड़े हैं.

अगर किसान नेता ये सोचते हैं कि केसी त्यागी उनके हितों की भी वकालत करेंगे तो वे हद से ज्यादा उम्मीद कर रहे हैं. कृषि कानूनों पर भी नीतीश कुमार का मोदी सरकार के साथ खड़े होना उनकी राजनैतिक मजबूरी है - और केसी त्यागी को किसान नेताओं की अपेक्षाओं के हिसाब से नीतीश कुमार को स्टैंड बदलने के लिए मनाना पड़ेगा - और नीतीश कुमार के लिए ये फिलहाल ये संभावना नहीं के बराबर है - क्योंकि 'मोदी है तो मुमकिन नहीं है!'

संयुक्त मोर्चे का प्रस्ताव और नीतीश का स्टैंड

जेडीयू के प्रवक्ता केसी त्यागी पर को कुछ दिनों से बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ थोड़े सख्त लहजे में बयान देते देखा गया है. इसकी दो वजह रही है, एक तो बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान की मुहिम को लेकर बीजेपी नेतृत्व में स्पष्ट नीति का अभाव और दूसरा, अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के छह सांसदों को बीजेपी ज्वाइन कराया जाना. बीजेपी को लेकर कुछ दिन पहले ही जेडीयू अध्यक्ष बनाये आरसीपी सिंह की बयानबाजी का लहजा भी तकरीबन वैसा ही रहता है. असल में ये सब नीतीश कुमार की ही रणनीतियों का हिस्सा है, लेकिन इसकी भी एक तय सीमा है और उस लक्ष्मण रेखा को जब तक नीतीश कुमार लांघने में दिलचस्पी नहीं दिखाते, केसी त्यागी चाहकर भी न कुछ कह सकते हैं, न सोच सकते हैं.

मौजूदा राजनीतिक माहौल में अगर किसान नेता केसी त्यागी से पुराने रिश्तो की दुहाई देकर कोई फेवर सोच रखे हैं तो निराशा के सिवा उनको कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है. किसान नेताओं को ये तो याद है कि केसी त्यागी और अपने जमाने के मशहूर किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का क्या रिश्ता रहा है - और ये भी कि केसी त्यागी अब भी राकेश टिकैत और नरेश टिकैत के प्रति क्या भाव रखते हैं. जेडीयू का होकर रह जाने से पहले 1989 में केसी त्यागी जनता दल के टिकट पर हापुड़-गाजियाबाद से चुनाव लड़ चुके हैं और जीते भी हैं. जाहिर है केसी त्यागी की जीत में महेंद्र सिंह टिकैत की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी. वैसे भी सुनते हैं कि केसी त्यागी खुद को महेंद्र सिंह टिकैत का अनुयायी या शिष्य तक मानते रहे हैं.

rakesh tikait, narendra modi, nitish kumar, kc tyagiकहीं ऐसा तो नहीं कि राकेश टिकैत खुद किसानों के मामले को अभी नौ महीने और उलझाये रखना चाहते हैं?

हालांकि, अब तो हालत ये है कि केसी त्यागी के लिए भी ये गुजरे जमाने की बातें हो चुकी हैं. आज की स्थिति में केसी त्यागी अगर मन में राकेश टिकैत के प्रति कोई खास भावना रखते हैं तो वो मन में तो रख सकते हैं लेकिन जाहिर करना उनके लिए मुसीबत खड़ी कर सकता है. केसी त्यागी की मजबूरी है कि वो नीतीश कुमार की मर्जी के बगैर कुछ नहीं कर सकते और ठीक वैसे ही नीतीश कुमार की स्थिति बीजेपी नेता अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे है. जैसे ही किसानों का दिल्ली की सीमाओं पर जमावड़ा शुरू हुआ, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना रहा कि कृषि कानूनों के विरोध की वजह गलतफहमी है. नीतीश कुमार ने तभी ये भी कहा था कि केंद्र सरकार भी कह रही है कि वो किसानों से बातचीत को तैयार है - और ये दो महीने से भी ज्यादा पुरानी बात है.

नीतीश कुमार ने न्यूज एजेंसी ANI से कहा था, 'केंद्र सरकार फसलों की खरीद को लेकर किसानों में बने डर को बातचीत कर दूर करना चाहती है तो मुझे लगता है कि बातचीत होनी चाहिए - ये विरोध-प्रदर्शन गलतफहमी की वजह से हो रहे हैं.'

नीतीश कुमार ये भी दोहराते रहे हैं कि बिहार में किसान आंदोलन का कोई असर नहीं है क्योंकि बिहार सरकार पहले से ही कृषि सुधार पर काम करती आ रही है. वैसे नीतीश कुमार के बयानों से लगता है जैसे वो किसान आंदोलन से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन मुसीबत देखिये कि घुम फिर कर उसी ने घेर भी लिया है.

जेडीयू नेता केसी त्यागी का कहना है अगर वो किसानों की मध्यस्थता करते हैं तो ये उनके लिए सम्मान की बात होगी. कहते भी हैं कि वो किसान नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के अनुयायी रहे हैं और उनके बेटे राकेश टिकैत के प्रति उनकी सहानुभूति भी है - और सबसे बड़ी बात, कहते हैं, 'किसानों की मांगों के प्रति संवेदनशील हूं.' फिर लगे हाथ अपनी मजबूरी भी जता देते हैं, ऐसा कुछ होने से पहले वो नीतीश कुमार से विचार विमर्श करना चाहेंगे.

मध्यस्थता को लेकर चली इस चर्चा से कुछ आशंकाएं भी जुड़ी लगती हैं. समझने वाली बात ये है कि केसी त्यागी का रिश्ता टिकैत बंधुओं से है और प्रस्ताव आया है किसान मोर्चे के नेता धर्मेंद्र मलिक की तरफ से. राकेश टिकैत या नरेश टिकैत की तरफ से इस सिलसिले में कोई रिएक्शन नहीं आया है.

हाल फिलहाल ये भी देखने को मिला है कि संयुक्त किसान मोर्चा को राकेश टिकैत की राजनीतिक सक्रियता कुछ खास रास नहीं आ रही है और राकेश टिकैत भी ये जरूर निभा रहे हैं कि बातचीत होगी तो संयुक्त मोर्चे की कमेटी से ही जिसमें 40 लोग हैं. ये वही 40 लोग हैं जो अब 11 दौर बेनतीजा बातचीत केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के साथ कर चुके हैं.

केसी त्यागी की आने वाले दिनों क्या भूमिका होती है, ये नीतीश कुमार के स्टैंड पर ही निर्भर करेगा कि अपनी सरकार के भविष्य और एनडीए में बीजेपी के साथ रिश्ते को देखते हुए वो क्या फैसला लेते हैं. अभी अभी एनडीए की मीटिंग में नीतीश कुमार के दबाव में बीजेपी ने एलजेपी नेता चिराग पासवान को बुला कर भी बना कर दिया, लेकिन एक्सचेंज ऑफर में कुछ तो पहले से तय हो ही रखा होगा.

बड़ा सवाल ये है कि जब तक नीतीश कुमार का स्टैंड केंद्र की मोदी सरकार के पक्ष में होगा तो तब तक केसी त्यागी भी किसानों के लिए मध्यस्थता भला कितनी इमानदारी से कर सकेंगे?

समझौते में सियासत का पेंच

26 जनवरी से पहले जो किसान आंदोलन की असली ताकत नजर आ रही थी, अब वही आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुका है - राजनीति. गणतंत्र दिवस की हिंसा से पहले किसान आंदोलन कम से कम ऊपर से तो गैर राजनीतिक लगता ही था, लेकिन अब तो वो बात रही नहीं.

संयुक्त किसान मोर्चा ने एक तरीके से नेताओं से दूरी बनाने की बात की है, लेकिन ऐसा हो कहां रहा है. राकेश टिकैत बारी बारी सभी नेताओं के साथ फोटो सेशन करा रहे हैं - और खुद ही उनके सपोर्ट की बातें भी अपने ट्विटर टाइमलाइन पर शेयर भी बड़े गर्व से कर रहे हैं.

क्या राकेश टिकैत ये सब करके के भी किसान आंदोलन के गैर राजनीतिक होने का दावा कर सकते हैं?

जब वो प्रियंका गांधी वाड्रा, अखिलेश यादव और तमाम नेताओं से फोन पर बात होने का दावा करते हैं. जब शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत के साथ उनकी तस्वीरें आती हैं.

जब आम आदमी पार्टी नेता संजय सिंह किसानों की महापंचायत में पहुंचते हैं और वादा करते हैं कि ससंद में भी मामला उठाएंगे - और राकेश टिकैत से वादे के मुताबिक संजय सिंह अपने दो और राज्य सभा साथियों के साथ हंगामा करते हैं. हंगामा ऐसा कि सभापति और उप राष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू चेतावनी देते देते थक जाने के बाद सस्पेंड कर देते हैं और मार्शल मार्शल के जरिये AAP के तीनों सांसदों को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं.

राकेश टिकैत की अपनी दलील है, 'अगर हमारे समर्थन में विपक्ष आ रहा है तो कोई समस्या नहीं, लेकिन उसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिये.'

अजीब हाल है, राकेश टिकैत को पूरे विपक्ष को राजनीति का मौका देने के बाद भी ऐसी अपेक्षा क्यों है कि मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिये?

क्या राकेश टिकैत भी ऐसी मुलाकातों को शिष्टाचार वश होने वाली भेंट के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर ऐसा है तो संयुक्त किसान मोर्चा ने ये दिशानिर्देश क्यों जारी किया है कि नेताओं को मंच के सामने बैठने भले दिया जाये लेकिन मंच पर जगह नहीं मिलनी चाहिये - ऐसे में मंच से उतर कर राकेश टिकैत नेताओं के साथ सेल्फी पोज दे रहे हैं तो इसके राजनीतिक न होने जैसा बता कर किसे गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं.

एक सीनियर पत्रकार के साथ उसके यूट्यूब चैनल के लिए बात करते समय राकेश टिकैत ने ये मामला अक्टूबर तक सुलझने की उम्मीद जतायी और अपनी दलील के पीछे एक देसी कहावत भी सुनायी जिसका आशय भी समझाया - '...कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें साल भर लगते ही हैं.'

किसान आंदोलन दिल्ली में नवंबर के आखिर से चल रहा है - आखिर राकेश टिकैत को ऐसा क्यों लगता है कि अक्टूबर से पहले ये मामला नहीं सुलझ सकता?

क्या राकेश टिकैत का इशारा उत्तर प्रदेश में होने वाले किन्हीं चुनावों की तरफ है - विधानसभाओं के चुनाव या यूपी में होने जा रहे पंचायत चुनाव?

अब तो कहते फिर रहे हैं, 'हमने सरकार को बता दिया है कि ये आंदोलन अक्टूबर तक चलेगा. अक्टूबर के बाद आगे की तारीख देंगे.'

राकेश टिकैत सरकार को चेतावनी भी देते हैं, 'हमने सरकार को अक्टूबर तक का समय दिया है. अगर सरकार हमे नहीं सुनती है तो हम 40 लाख ट्रैक्टरों के सात देशव्यापी ट्रैक्टर रैली करेंगे.'

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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