नीतीश ने जो लंच बाण चलाया है उसके निशाने पर सिर्फ लालू नहीं - और भी हैं
कांग्रेस नेता नीतीश के इस बयान से खुश हुए हो सकते हैं कि चलो महागठबंधन की स्थिति में भी राहुल गांधी के लिए रास्ता साफ है - लेकिन लालू प्रसाद और उनके साथियों की मुश्किल ये हो गई कि नीतीश को घेरने का अब कोई मुद्दा ही नहीं बचा.
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15 मई को नीतीश ने साफ तौर पर कह दिया था कि 2019 के लिए प्रधानमंत्री पद की रेस में वो नहीं हैं. नीतीश का ये बयान उन सभी के लिए अलग अलग अहमियत रखता है जिन्हें इस बात से फर्क पड़ता है.
कांग्रेस नेता नीतीश के इस बयान से खुश हुए हो सकते हैं कि चलो महागठबंधन की स्थिति में भी राहुल गांधी के लिए रास्ता साफ है - लेकिन लालू प्रसाद और उनके साथियों की मुश्किल ये हो गई कि नीतीश को घेरने का अब कोई मुद्दा ही नहीं बचा.
अब तो नीतीश कुमार ने देश की सियासत को दो लंचों के फेर में फंसा दिया है - विपक्षी एकता का प्रतीक महागठबंधन तो खड़ा होने से पहले ही चरमराने लगा है.
करुणानिधि का बर्थडे
3 जून को डीएमके चीफ एम करुणानिधि का जन्मदिन है - और इस जश्न में पूरे विपक्ष को न्योता मिला है. न्योता मिलने के साथ ही ज्यादातर नेताओं ने मौके पर पहुंचने की हामी भी भर दी है.
डीएमके नेता और करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन के अनुसार राहुल गांधी और नीतीश कुमार के अलावा समारोह में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, नेशनल कांफ्रेंस चीफ फारूक अब्दुल्ला, आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव, एनसीपी नेता शरद पवार, सीपीआई नेता डी राजा भी शामिल होंगे. ममता बनर्जी की जगह तृणमूल कांग्रेस की ओर से डेरेक ओ ब्रायन के हिस्सा लेने की संभावना है.
लंच बाण का चौतरफा असर...
राजनीतिक हिसाब से देखें तो ये भी वैसा ही जमावड़ा होगा जैसा सोनिया गांधी के लंच में हुआ था. जिस तरह सोनिया ने केजरीवाल को न्योता नहीं भेजा था उसी तरह स्टालिन ने बीजेपी को इस समारोह से दूर रखने का फैसला किया है. हालांकि, तमिलनाडु बीजेपी की अध्यक्ष तमिलिसाई सौन्दर्यराजन ने कहा था कि बुलाने पर वो जाएंगी.
करुणानिधि के जन्मदिन के जश्न में भी खास इवेंट एक ही नजर आ रहा है - शो स्टॉपर नीतीश कुमार हिस्सा लेंगे या नहीं. अभी तक तो यही मान कर चला जा रहा है कि लालू और नीतीश दोनों पहुंच रहे हैं.
लालू की रैली
करुणानिधि के बर्थडे समारोह के बाद नीतीश को लेकर सस्पेंस भी खत्म हो जाएगा. 27 अगस्त को लालू प्रसाद ने पटना के गांधी मैदान में बीजेपी विरोधी रैली का एलान किया है. ये रैली भी विपक्षी दमखम दिखाने का ही मंच होने जा रहा है. जिस तरह बिहार चुनाव में नीतीश के डीएनए पर सवाल उठने पर बीजेपी को चैलेंज करने के लिए स्वाभिमान रैली हुई थी, लालू की इस रैली का मकसद भी कुछ कुछ वैसा ही है. इस रैली की भी दशा और दिशा इस बात पर निर्भर करेगी कि नीतीश का रुख कैसा होता है.
वैसे लालू की इस प्रस्तावित रैली को लेकर एक खास बात जरूर जुड़ गयी है. 22 साल के लंबे अंतराल के बाद समाजवादी पार्टी और बीएसपी पटना में मंच शेयर करते देखे जा सकते हैं. 1993 में समाजवादी पार्टी और बीएसपी में चुनावी गठबंधन हुआ था. दो साल बाद जब मायावती ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो गेस्टहाउस कांड हुआ - और उसके बाद से दोनों के बीच दूरी कभी कम नहीं हो पायी. यूपी चुनाव की हार के बाद दोनों एक दूसरे के करीब आ रहे हैं. सोनिया के लंच में अखिलेश यादव और मायावती का एक दूसरे के प्रति बदला रुख देखा गया. इसके अलावा, एक चर्चा और है कि लालू की अगस्त की रैली के बाद अखिलेश और मायावती यूपी में भी साथ रैली कर सकते हैं - और आगे भी ये सिलसिला जारी रह सकता है.
नीतीश का लंच बाण
ये समझना बहुत जल्दबाजी होगी कि नीतीश बीजेपी के साथ हाथ मिला कर कोई राजनीतिक समीकरण खड़ा करने जा रहे हैं. नीतीश राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं और हर चाल सोच समझ कर ही चलते हैं.
अगर इतने दिनों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जानते हैं तो उन्हें भी ये पता होगा कि उनके लिए राजनीति में भी दोस्ती और दुश्मनी कितना मायने रखती है. विचारधारा के विपरीत मोदी आगे बढ़ कर पीडीपी से भले हाथ मिला लें लेकिन कोई दुश्मनी वो यूं ही भुला दें सोचना कहीं से भी समझदारी नहीं होगी. ये सच है कि बीजेपी को बिहार में सत्ता पर कब्जा जमाने या फिर उसमें हिस्सेदार बनने की महती जरूरत है. बीजेपी को ये भी पता है कि नीतीश से बातचीत पक्की हो जाये तो पलक झपकते सत्ता का खेल बदल सकता है. लेकिन क्या नीतीश इस बात के लिए तैयार होंगे? क्या उन्हें नहीं मालूम कि बीजेपी में मोदी की मुखालफत करने वालों का क्या हाल है? क्या नीतीश को महाराष्ट्र की स्थिति नहीं दिख रही होगी कि किस तरह बीजेपी ने शिवसेना को मुख्यधारा से हाशिये पर पहुंचा दिया.
फिर सोनिया का लंच छोड़ कर नीतीश के मोदी के साथ लंच करने के कुछ तो मतलब होंगे? बिलकुल हैं.
प्रधानमंत्री पद की रेस से बाहर होने की बात कर नीतीश ने लालू एंड कंपनी के हमले की धार कुंद कर दी है. लालू ही नहीं कांग्रेस को भी इस बात का पूरा मौका दे दिया है कि वो आजमा ले कि राहुल गांधी के नाम पर कितने विपक्षी दल तैयार होते हैं?
कांग्रेस चाहती है कि पूरा विपक्ष बीजेपी के खिलाफ मोर्चेबंदी में उसका सशर्त साथ दे. शर्त ये है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तो राहुल गांधी ही होंगे. अरविंद केजरीवाल को छोड़ भी दें तो क्या ममता गांधी को राहुल का नेतृत्व मंजूर होगा? बाकियों को छोड़ भी दें तो खुद लालू को भी अगर कोई बड़ी मजबूरी नहीं रही तो राहुल के नाम पर शायद ही कोई ऐतराज न हो.
अभी यही लगता है कि राष्ट्रपति चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की कमर हिला कर रख दी है - जाहिर है इसका फायदा प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी को मिलेगा. यूपी चुनाव छोड़ कर अचानक नीतीश कुमार पटना में बैठ गये थे. क्या इन दोनों बातों में कुछ कॉमन नहीं है?
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