क्या लालू को तीन तलाक बोलकर बीजेपी से दोबारा निकाह करेंगे नीतीश कुमार?
लालू और नीतीश के बीच अभी यह खेल चलता रहेगा. चूंकि लालू के पास अपनी तरफ से गठबंधन तोड़ने का विकल्प न के बराबर है, इसलिए गठबंधन जब भी टूटेगा, नीतीश ही तोड़ेंगे.
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दो मजबूर नेता मिलकर कभी भी एक मजबूत गठबंधन नहीं बना सकते. इस बात को समझते तो नीतीश कुमार भी हैं और लालू यादव भी, लेकिन करें भी तो क्या करें? लालू यादव की मजबूरी यह है कि खुद चारा घोटाले से जुड़े अलग-अलग मामलों में बुरी तरह से घिरे हुए हैं और एक मामले में दोषी सिद्ध होने की वजह से चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी लगी हुई है. इतना ही नहीं, उनके 15 साल के शासन के बारे में जनता के मन में इतनी बुरी छवि है कि मुस्लिम और यादवों को छोड़कर राज्य में कोई भी उनके साथ नहीं. यानी अपने दम पर चुनाव जीतने की उनकी स्थिति अब नहीं रही.
नीतीश कुमार की मजबूरी यह है कि अपनी परिष्कृत भाषा और जबरदस्त मीडिया मैनेजमेंट के सहारे भले उन्होंने अपनी छवि ठीक-ठाक बना रखी है, लेकिन उनके पास अपना जनाधार नहीं है. लालू यादव से तो कम से कम बिहार की दो ताकतवर जातियां मुस्लिम और यादव आज भी जुड़ी हुई हैं, लेकिन नीतीश कुमार के पास एकमात्र कुर्मी जाति के वोटरों के अलावा और किसी का समर्थन नहीं है. अकेले चुनाव लड़ें, तो 10 प्रतिशत वोट हासिल करना भी मुश्किल हो जाए.
ऐसे में अगर राजनीति में हैं, तो अपनी-अपनी सीमाओं के बावजूद सत्ता लालूजी को भी चाहिए और नीतीश जी को भी. लालूजी की विवशता यह है कि पिछले दो दशकों से लगातार उन्होंने बीजेपी-विरोध का झंडा उठा रखा है. मुस्लिम भी उनपर भरोसा करते हैं, इसलिए बीजेपी के साथ तो वे किसी भी कीमत पर जा नहीं सकते और कांग्रेस का राज्य में कोई आधार रह नहीं गया है. ऐसे में सत्ता तक पहुंचने के लिए नीतीश कुमार से हाथ मिलाना उनके लिए अनिवार्य हो गया था.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार 17 साल बीजेपी की गोदी में बैठ लिए. 8 साल सुशासन बाबू भी कहला लिए. कुछ चिकनी सड़कों, साइकिल पर चलती छात्राओं और लालू-राज की तुलना में कानून-व्यवस्था की बेहतर तस्वीरों के चलते देश में अपना डंका भी बजवा लिया. ऐसे में प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा तो स्वाभाविक ही थी. बस बेचारे इसी में गच्चा खा गए. यूं तो गुजरात दंगे के बाद वे मोदी के भक्त हो गए थे और उनसे गुजरात से बाहर निकलकर पूरे देश को नेतृत्व देने की अपील कर रहे थे, लेकिन जब पीएम बनने का सपना आया, तो मोदी का गुजरात से बाहर निकलना उन्हें रास नहीं आया और उन्होंने जबरन बीजेपी से नाता तोड़ लिया. फिर लोकसभा चुनाव 2014 में उन्हें पता चल गया कि उनकी अपनी राजनीतिक ताकत बिहार की 40 में से महज दो सीटें जीतने भर की ही थी.
इसके बाद जब जेडीयू में बगावत हो गई, तो इसे थामने के लिए उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया, शायद यह सोचकर कि दलित हैं, दबकर रहेंगे. लेकिन कुछ महीने तक अपमान सहने के बाद मुख्यमंत्री मांझी का स्वाभिमान जाग गया और उन्होंने भी बगावत कर डाली. पार्टी टूट गई. हालात ऐसे बने कि स्वयं नीतीश कुमार को छोड़कर राज्य का कोई भी ढंग का नेता जेडीयू में नहीं बचा. इस डेवलपमेंट के बाद महज दो लोकसभा सीटें जीतने वाले नीतीश जी की राजनीतिक ताकत बिहार में 10 विधानसभा सीटें जीतने की भी नहीं बची. मरते क्या न करते, जिन्हें 20 साल तक पानी पी-पीकर कोसा, जंगलराज चलाने वाला कहा, उन्हीं लालू यादव से हाथ मिला लिया.
इस तरह, यह स्पष्ट है कि लालूजी नीतीश के पास आए, यह उनकी मजबूरी थी. नीतीश जी लालू के पास आए, यह उनकी मजबूरी थी. बीच में न कोई उसूल था, न कोई धर्मनिरपेक्षता थी. मोदी से मुसलमानों की नफरत को भुनाना था और यादव, कुर्मी व अन्य पिछड़े मतदाताओं को उनके साथ लाकर सत्ता की सीढ़ी चढ़नी थी, जिसमें वे कामयाब भी हो गए और सरकार भी बन गई. लेकिन नई सरकार में सीएम होने के बावजूद नीतीश जी जूनियर पार्टनर थे, जबकि बीजेपी के साथ सीनियर पार्टनर बनकर सरकार चलाने की उन्हें लत लगी हुई थी.
यानी वैचारिक तालमेल के अभाव में सिर्फ सत्ता के लिए बने इस गठजोड़ में दिक्कतें पहले दिन से शुरू हो गईं. लालू जी दबंग नेता हैं. बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप के माध्यम से सरकार पर वे अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं, लेकिन वर्चस्व की इस लड़ाई में कौन किससे कमज़ोर पड़ना चाहेगा? इसीलिए कभी नीतीश जी डाल-डाल चलते हैं, तो कभी लालूजी पात-पात चलते हैं. दोनों एक-दूसरे को गठबंधन टूटने का डर दिखाते हैं, जिससे गठबंधन बना रहता है, क्योंकि न तो नीतीश जी सीएम की कुर्सी खोना चाहते हैं, न ही लालूजी अपने बेटों को बिहार की सत्ता के केंद्र में लाकर पैदल करना चाहते हैं.
ऐसे में, पिछले छह महीनों से नीतीश जी जो पैंतरे अपना रहे हैं, उनका मुख्य मकसद लालूजी और उनके बेटों पर दबाव बनाए रखना ही है, लेकिन निस्संदेह इसका दूसरा मकसद यह भी है कि अगर किसी वजह से लालूजी से उनका तीन तलाक हो गया, तो बीजेपी उनसे बिना शर्त निकाह कर ले. इसीलिए उन्होंने पहले नोटबंदी का समर्थन किया, जबकि लालूजी इसके विरोध में मोर्चा बांधे हुए थे. फिर लालूजी और उनकी संतानों पर लगते तरह-तरह के आरोपों पर चुप्पी साधे रखी. जब मुंह खोला, तो बीजेपी को नसीहत दी कि उसके लगाए आरोपों की जांच केंद्र के दायरे में आती है, इसलिए अगर उसके पास सबूत हैं, तो वह स्वयं कार्रवाई करे.
अब इसे संयोग कहें या कुछ और. नीतीश कुमार के इस स्पष्ट बयान के एक ही दिन बाद लालूजी के विभिन्न ठिकानों पर आयकर विभाग के छापे पड़ गए. सुशील मोदी कुछ दिन पहले यह कह ही चुके थे कि अगर नीतीश लालू का साथ छोड़ दें तो बीजेपी उनकी सरकार को समर्थन दे सकती है. इधर, 2013 से 2017 तक नीतीश जी को भी यह समझ में आ गया है कि 2019 में पीएम पद की उम्मीदवारी के बारे में सोचना बेवकूफ़ी है. मोदी के बारे में भी वे अब खुलकर कह रहे हैं कि जनता ने उनमें क्षमता देखी, इसीलिए पीएम बनाया.
दरअसल, यह दोहरी राजनीति नीतीश जी की पुरानी खासियत है. जब भी वे एक गठबंधन में रहते हुए असहज महसूस करने लगते हैं, तो दूसरे गठबंधन से नजदीकी बढ़ाने की जुगत में जुट जाते हैं. याद कीजिए, कि जब 2012 में बीजेपी से उनके रिश्ते बिगड़ने लगे थे, तो बीच-बीच में वे तत्कालीन यूपीए सरकार और उसके नेताओं की तारीफ़ें भी कर दिया करते थे. अब जबकि कांग्रेस और लालू जी के साथ उन्हें अपना वर्तमान कष्टकर और भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा है, तब बीजेपी के साथ संबंध सुधारने की कोशिशें भी उन्होंने शुरू कर दी हैं.
अब कहने को वे महागठबंधन में हैं, लेकिन बीच-बीच में लालू के लिए मुश्किलें भी खड़ी करते रहेंगे और मुद्दों के आधार पर मोदी सरकार की तारीफ़ें भी करते रहेंगे, जैसा कि उन्होंने नोटबंदी मामले में किया था. इतना ही नहीं, अगर राष्ट्रपति चुनाव में भी बीजेपी ठीक से प्रयास करे, तो वह उसके उम्मीदवार को सपोर्ट कर सकते हैं. जैसे, अगर बीजेपी आडवाणी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए, तो लालू यादव की लाइन के खिलाफ जाकर नीतीश कुमार निश्चित रूप से उनका समर्थन कर सकते हैं.
अनाड़ी तो लालू यादव भी नहीं हैं. इसलिए उन्हें पता है कि नीतीश क्या-क्या कर सकते हैं. इसीलिए उन्होंने भी ट्वीट करके बीजेपी को नए गठबंधन सहयोगी की मुबारकबाद दी है. ऐसा करके उन्होंने भी दांव खेला है. नीतीश को डर दिखाया है कि अगर बीजेपी के साथ जाना चाहते हो तो जाओ. ऐसा करके सरकार तो बचा लोगे, लेकिन डगरा पर के बैंगन बन जाओगे, जो कभी इधर लुढ़कता है, कभी उधर लुढ़कता है.
लालू और नीतीश के बीच अभी यह खेल चलता रहेगा. चूंकि लालू के पास अपनी तरफ से गठबंधन तोड़ने का विकल्प न के बराबर है, इसलिए गठबंधन जब भी टूटेगा, नीतीश ही तोड़ेंगे. नीतीश इन परिस्थितियों में गठबंधन तोड़ सकते हैं-
1. जब उनके लिए लालू यादव और उनके बेटों के साथ तालमेल बनाना बेहद मुश्किल हो जाए.
2. जब महा-गठबंधन सरकार की बदनामी हद से ज़्यादा बढ़ जाए, तो इसका ठीकरा लालू यादव के सिर फोड़कर वे अलग हो जाएंगे.
3. जब लालू यादव और उनके बेटे-बेटियां पर कानून का शिकंजा बुरी तरह से कस जाए और नीतीश के लिए उनका बचाव करना बेहद मुश्किल हो जाए.
4. जब नीतीश जी का मन पूरी तरह से मान जाए कि अब वे विपक्ष की तरफ़ से पीएम पद के साझा उम्मीदवार नहीं बन सकते.
5. जब नीतीश जी को लगे कि महागठबंधन से जनता का मोहभंग हो गया है और इसमें रहते हुए आगे वे सीएम भी नहीं बन सकते.
उपरोक्त पांच स्थितियों में महागठबंधन तोड़ने का फैसला करना नीतीश कुमार के लिए अधिक मुश्किल नहीं होगा, क्योंकि बीजेपी को आज भी उन्हें समर्थन देने में अधिक दिक्कत नहीं है. यानी, महागठबंधन टूटने पर लालू सड़क पर आ जाएंगे, लेकिन नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने रहेंगे.
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