यूपी में गैर-कांग्रेस गठबंधन फाइनल स्टेज में - लेकिन राहुल से परहेज क्यों?
यूपी में मायावती और अखिलेश यादव के गठबंधन में अंतिम फैसला नहीं हुआ है. ये साफ है कि राहुल गांधी से दोनों नेता दूरी बनाये हुए हैं - और 15 जनवरी तक जो राय बनी है उस पर मुहर लग सकती है.
-
Total Shares
आम चुनाव की ओर मायावती आगे आगे और अखिलेश पीछे पीछे चलते नजर आ रहे हैं. हाल के विधानसभा चुनावों में भी कुछ कुछ ऐसा ही देखने को मिला था. फिलहाल ये खबर आ रही है कि दोनों ने अपनी अपनी सीटें भी बांट ली हैं - और सहयोगियों के लिए कुछ सीटें छोड़ भी रखी है.
ये भी मालूम हुआ है कि इस गठबंधन से कांग्रेस को दूर रखा गया है - सवाल है कि आखिर दोनों नेताओं को राहुल गांधी से इस कदर परहेज क्यों है?
क्या ये दोनों अपने हिस्से की सीटें शेयर नहीं करना चाहते या ऐसा कुछ लगता है कि कांग्रेस साथ आयी तो डुबा देगी? या फिर भविष्य के राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए इन्होंने कांग्रेस से दूरी बना रखी है?
यूपी का गैर-कांग्रेस गठबंधन का ताजा स्वरूप
जिस तरह बिहार एनडीए में बीजेपी और जेडीयू के बीच सीटों पर 50-50 का समझौता हुआ है, यूपी में भी उसी तर्ज पर बीएसपी और समाजवादी पार्टी में सहमति बनी है.
मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि यूपी की 80 लोक सभा सीटों में से 37-37 सीटें अखिलेश यादव और मायावती ने अपने हिस्से में रख रखा है. 6 सीटें छोड़ रखी है जिनमें अमेठी और रायबरेली में गठबंधन का कोई उम्मीदवार नहीं होगा. बाकी बची चार में से दो या तीन सीटें अजीत सिंह को मिल सकती हैं. कैराना तो फिलहाल आरएलडी के पास ही है, बागपत खानदानी है और मथुरा से जयंत चौधरी चुनाव लड़ते हैं. एक सीट ओम प्रकाश राजभर को मिल सकती है, बशर्ते वो योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री पद और एनडीए में बीजेपी का साथ छोड़ने का फैसला कर चुके हों. अगर किसी अन्य छोटी पार्टी को गठबंधन में शामिल नहीं किया गया तो सब अजीत सिंह के खाते में जा सकता है.
अमेठी रायबरेली में उम्मीदवार खड़ा न करने की परंपरा रही है. कन्नौज सीट से डिंपल यादव की निर्विरोध जीत इसी आपसी भाईचारे की वजह से मुमकिन हो पायी थी.
ये 5 कारण भी तो हो ही सकते हैं
विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने को लेकर मायावती मुख्य तौर पर दो बातें कही थी - एक, कांग्रेस की ओर से सम्मानजनक सीटें ऑफर न किया जाना, दूसरा कांग्रेस द्वारा छोटे दलों को खत्म करने की राजनीति. जाहिर है ये फैक्टर यूपी के मामले में कांग्रेस की जमीनी स्थिति को देखते हुए अप्रासंगिक हो जाते हैं. फिर भी मायावती और अखिलेश यादव द्वारा राहुल गांधी से राजनीतिक दूरी बनाये रखने के क्या कारण हो सकते हैं?
50-50 का समझौता...
1. केंद्र की राजनीति: क्या दोनों नेता कांग्रेस के साथ सीटें इसलिए शेयर नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें खुद के बूते बड़ी जीत हासिल करने का यकीन है? अगर ऐसा हुआ तो केंद्र में जिस किसी की भी सरकार बने दबदबा कायम रह सकता है. अगर कोई विशेष परिस्थिति हुई और मायावती के नाम पर विपक्षी दल तैयार हुए तो प्रधानमंत्री की कुर्सी भी हासिल हो सकती है. ऐसी स्थिति में यूपी का मैदान अखिलेश यादव के लिए खाली रहेगा.
2. मुलायम की सलाह: मुलायम सिंह यादव शुरू से कांग्रेस के साथ गठबंधन के पक्षधर नहीं रहे हैं. अखिलेश यादव अनभव का फायदा उठाने की बात करते रहे हैं. वैसे ये बात वो मायावती के लिए ही कहते हैं. इस मामले में वो मुलायम सिंह के अनुभवों की मदद तो नहीं ले रहे हैं?
3. खट्टे अनुभव के चलते: 2017 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था - और अमेठी की सीटों को लेकर काफी किचकिच भी हुई. नतीजे आये तो मालूम हुआ गठबंधन का कोई फायदा नहीं हुआ. कुछ दिन बात अखिलेश यादव ने कह भी दिया कि आगे से ऐसा कोई गठबंधन नहीं होगा. तो क्या राहुल गांधी को साथ न रखने के पीछे ये खट्टे अनुभव हो सकते हैं?
अनुभव खट्टे जो हैं!
4. उपचुनाव में साथ न देना: गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के तो संयुक्त उम्मीदवार रहे, लेकिन कांग्रेस ने भी अपने प्रत्याशी उतार दिये थे. चुनावों बाद अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही नेताओं की ओर से इस बात पर नाराजगी भी जतायी गयी थी. क्या ये भी कोई वजह हो सकती है?
5. विधायकों को मंत्री न बनाया जाना: हाल ही में अखिलेश यादव ने समर्थन के बावजूद कमलनाथ कैबिनेट में जगह न दिये जाने को लेकर ऐतराज जताया था, तो क्या ये भी एक कारण हो सकता है कांग्रेस को अलग रखने का?
सीबीआई का भी कोई रोल है क्या?
मुलायम सिंह और मायावती जैसे नेता अरसे से केंद्र में सत्ताधारी पार्टी द्वारा ब्लैकमेल होते रहे हैं. चाहे वो यूपीए का शासन रहा हो या फिर मौजूदा एनडीए का. बिहार में महागठबंधन बनने के बाद मुलायम सिंह यादव का हट जाना और संसद में ज्यादातर विपक्षी दलों बहिष्कार के बावजूद परिवार सहित उनका बैठे रहना इसी से जोड़ कर देखा गया. एनआरएचएम घोटाले को लेकर सीबीआई ने मायावती से भी तो अक्टूबर, 2015 में दो घंटे तक पूछताछ की ही थी.
अब ऐसी ही पूछताछ की खबर अखिलेश यादव को लेकर भी आ रही है. शाम को अखिलेश यादव और मायावती की मुलाकात होती है और अगले ही दिन दिल्ली और यूपी में कई जगह सीबीआई के छापे पड़ते हैं. ये छापे अखिलेश शासन में हुए खनन घोटाले से जुड़े हैं जिसमें आइएएस अफसर बी. चंद्रकला और मुलायम सिंह यादव के करीबी नेता गायत्री प्रजापति भी फंसे हैं.
सीबीआई जांच तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर हो रही है, लेकिन टाइमिंग गौर करने वाली है. 2016 के आदेश पर अमल तब हो रहा है जब आम चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है.
राम गोपाल यादव ने ऐसा क्यों कहा?
समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बीच हो रहे गठबंधन में कांग्रेस के शामिल होने को लेकर जब राम गोपाल यादव से सवाल पूछा गया तो वो भड़क गये.
गुस्से में तमतमाये राम गोपाल यादव का जवाब था, 'तुम कल्पना क्यों कर रहे हो? काल्पनिक बातें क्यों कह रहे हो? ऐसा है, गठबंधन का मतलब आप समझिए और अपने आप समझ लीजिए बातों को.'
ये राम गोपाल यादव ही हैं जो समाजवादी झगड़े के वक्त अखिलेश यादव के पीछे डटे रहे. माना जाता रहा कि अखिलेश यादव की सभी रणनीतियां रामगोपाल यादव ही तैयार कर रहे हैं. लेकिन वो कह रहे हैं कि गठबंधन के बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं, 'यदि कोई बातचीत हुई भी है तो मुझे उसके बारे में जानकारी नहीं है. यदि कोई घोषणा होगी तो उसे बहन मायावती और अखिलेश यादव के द्वारा किया जाएगा.'
इन्हें भी पढ़ें :
कांग्रेस से मध्य प्रदेश का हिसाब उत्तर प्रदेश में चुकता करेंगे सपा, बसपा
2019 चुनाव: सत्ता के सफर का सबसे मुश्किल पड़ाव बनता जा रहा है यूपी
आपकी राय