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Updated: 30 नवम्बर, 2017 03:49 PM
राहुल लाल
राहुल लाल
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उत्तर कोरिया के महाद्वीपीय मिसाइल टेस्ट और हाइड्रोजन बम टेस्ट ने पूरी दुनिया में दशहत का माहौल बना दिया है. एक तरह से उत्तर कोरिया जहां मिसाइल एवं परमाणु परीक्षणों के साथ अपनी क्षमता बढ़ा रहा है, वहीं उसका यह पैटर्न 1960 के दशक वाला ही है. इस पैटर्न के अंतर्गत उत्तर कोरिया युद्ध उन्माद भड़काता भी रहा है और शक्ति संतुलन की ओर भी अग्रसर हो रहा है.

उत्तर कोरिया का दावा है कि अब उसके मिसाइलों के दायरे में अमेरिका भी है. माना जा रहा है कि उत्तर कोरिया की जद में अमेरिका का अलास्का आ गया है. अलास्का का आना प्रतीकात्मक और व्यवाहरिक दोनों कसौटियों पर गेमचेंजर है. पहली बार जुलाई 2017 में अमरीकी राष्ट्रपति ने भी इसे स्वीकार करते हुए कहा कि "उत्तर कोरिया संकट वास्तविक और वर्तमान खतरा है. यह खतरा न केवल उत्तर पूर्वी एशिया और अमेरिकी मित्रों के लिए है. बल्कि खुद अमेरिका के लिए भी खतरा है." इस संपूर्ण मामले में ट्रंप केवल चेतावनी देते नजर आए.

यूएसए द्वारा विन्सन कार्ल बैटल की तैनाती भी उत्तर कोरिया को डरा नहीं पाया-

ट्रंप ने उत्तर कोरिया से निपटने के लिए कोरियाई प्रायद्वीप में शुरुआती कदम के तहत जहाजी बेड़े की तैनाती की. इसके अंतर्गत ट्रंप ने यूएसएस विंसन कार्ल ग्रुप को तैनात किया. इसकी तैनाती का कोई गौरवशाली इतिहास भी नहीं रहा है. यही कारण रहा कि इसके तैनाती से ट्रंप उत्तर कोरिया को डराने में पूर्णतः विफल रहा. वास्तव में अमेरिका दुनिया सबसे शक्तिशाली देश है, जबकि उत्तर कोरिया बिल्कुल छोटा- सा देश है. फिर भी उत्तर कोरिया में अमेरिका का कोई भय नहीं दिखना ही ट्रंप की सबसे बड़ी समस्या है.

North korea, USAहम किसी से कम नहीं

अमेरिका के लिए युद्ध के विकल्प का चयन करना आसान नहीं-

असलियत यह है कि अमेरिका के पास उत्तर कोरिया के खिलाफ तत्काल कदम उठाने के सीमित विकल्प हैं. उत्तर कोरिया के खिलाफ सैन्य कार्यवाई भी आसान नहीं है. वह अब परमाणु शक्ति संपन्न देश बन चुका है. रिपब्लिकन सीनेटर्स जॉन मैक्केन और लिंडसे ग्राहम की युद्धकारी सिफारिशों के बावजूद अमेरिका के लिए युद्ध का जोखिम उठाना आसान नहीं है. सबसे पहले तो उत्तर कोरिया पर सैन्य कार्यवाई का विकल्प चुनना ही मुश्किल है. इसके साथ ही सैनिक कार्यवाई के फैसले के बाद कोरियाई प्रायद्वीप में युद्ध के समय की स्थितियां अमेरिका के नियंत्रण में रहें, यह भी काफी मुश्किल है.

कोरिया संकट में अमेरिका के लिए कूटनीतिक विकल्प भी सीमित हैं-

3 सितंबर के हाइड्रोजन बम परीक्षण के बाद 13 सितंबर को उत्तर कोरिया पर लगा आर्थिक प्रतिबंध भी बेअसर रहा. उत्तर कोरिया अब तक संयुक्त राष्ट्र के कई प्रतिबंधों के बीच भी मिसाइल और आणविक तकनीक में प्रगति करता रहा है. ये प्रतिबंध उत्तर कोरिया को अभी भी रोकने में सक्षम नहीं हैं. खासकर तबतक जबतक चीन और रूस का उसे समर्थन मिला हुआ है.

उत्तर कोरिया की पूरी कोशिश होगी की वह जल्दी से जल्दी परमाणु शक्ति संपन्न देश के दर्जे के बाद अमेरिका से बातचीत के टेबल पर जाए. दरअसल इन प्रतिबंधों के बाद उत्तर कोरिया अपने परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रमों को और गति प्रदान करेगा. अमेरिका ने खुद रूस पर कई प्रतिबंध लगाए हैं. ऐसे में रूस क्या इस अमरीकी इच्छा वाले प्रतिबंध को जमीनी स्तर पर लागू करेगा? इसके साथ ही इस प्रतिबंध में उत्तर कोरिया का 90% निर्यात को रोकने का प्रावधान है. उत्तर कोरिया 2006 से संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. इससे स्पष्ट है कि आर्थिक प्रतिबंध जैसे कूटनीतिक विकल्प भी अमेरिका के पास नहीं रहे.

इसके अलावे कूटनीतिक वार्ता का विकल्प भी काफी सीमित है. यहां बातचीत भी पूरी तरह से एकतरफा होती है. अभी हालात भी उत्तर कोरिया के पक्ष में हैं. ऐसे में वह अमेरिका के साथ बात क्यों करेगा? उत्तर कोरिया अपनी शक्तियों में वृद्धि करके ही वार्ता के लिए तैयार होगा. यही कारण है कि उत्तर कोरिया लगातार अपने सैन्य आधुनिकीकरण में जुटा हुआ है.

North korea, USAसिर्फ बातों का समर्थन अमेरिका के काम नहीं आ रहा

लगातार मिसाइल परीक्षणों तथा परमाणु परीक्षणों से आत्मविश्वास में उत्तर कोरिया-

लगातार किए जा रहे परमाणु एवं मिसाइल परीक्षणों से तानाशाह किम जोंग उन का हौसला और भी बुलंद हुआ है. उत्तर कोरिया को जोखिम उठाने का साहस मिला है. ऐसे में सैन्य अस्थिरता बढ़ेगी. इससे अमेरिका को बेहद अरूचिकर दशाओं का सामना करना पड़ सकता है. साथ ही अमेरिका को भी बार-बार यह लग रहा है कि उत्तर कोरिया बातचीत की सभी संभावनाओं को खुद ही खत्म कर रहा है. अगर ऐसे में ट्रंप इस मामले को अभी टालने या नजरअंदाज करने का प्रयास करते हैं तो संभव है कि तत्काल अमेरिका इस संकट से बाहर चला जाए. लेकिन लंबे समय में इससे समस्या और भी गंभीर बन जाएगी.

क्या अमेरिकी कूटनीतिक प्रयासों पर चीन और रूस का जमीनी समर्थन मिलेगा?

चीन और रूस ही उत्तर कोरिया के सबसे बड़े व्यापारिक साझीदार हैं. उत्तर कोरिया का 89% व्यापार चीन के साथ है. जबकि रूस द्वितीय सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. दोनों ही देश उत्तर कोरिया में तेल सप्लाई करते हैं और इन दोनों के पास संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो की शक्ति शामिल है. रूस के राष्ट्रपति पुतिन का कहना है कि उनका देश उत्तर कोरिया को 40 हजार टन तक ही तेल की सप्लाई करता है. ये बहुत ही कम मात्रा है. उन्होंने कहा कि उत्तर कोरिया पर और अधिक प्रतिबंध लगाना कोई उपाय नहीं है. उन्होंने कहा था, "उत्तर कोरिया घास खाकर गुजारा कर लेगा, लेकिन अपना परमाणु कार्यक्रम नहीं छोड़ेगा." पुतिन ने उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण की आलोचना करते हुए भी उसका बचाव किया और कहा कि- "उत्तर कोरिया के लोग इराक में सद्दाम हुसैन के कथित हथियार बढ़ाने के कार्यक्रम को लेकर उस पर हुए अमरीकी हमलों को नहीं भूले हैं. इसलिए उन लोगों को लगता है कि अपनी सुरक्षा के लिए उसे परमाणु हथियारों का जखीरा बढ़ाना होगा."

यही कारण है कि चीन और रूस दोनों ने ही सुरक्षा परिषद में इसे पूर्ण समर्थन दिया था. लेकिन जमीनी स्तर पर समर्थन नहीं दिया. 11 सितंबर के कठोर आर्थिक प्रतिबंधों के असफल होने का कारण यही रहा. आंतरिक तौर पर उत्तर कोरिया को रूस और चीन का समर्थन प्राप्त रहता है. यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों एवं वैश्विक गोलबंदी के बावजूद उत्तर कोरिया अनियंत्रित ही है. वास्तव में जब तक महाशक्तियां अपने स्वार्थों से अलग होकर निशस्त्रीकरण जैसे मामलों पर गंभीर नहीं होंगी, तब तक कोरियाई संकट का समाधान संभव नहीं है.

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लेखक

राहुल लाल राहुल लाल @rahul.lal.3110

लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं

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