2019 में विपक्ष के पास चुनाव प्रचार का कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम नहीं है
2019 में चुनाव प्रचार के हिसाब से देखें तो एक छोर पर बीजेपी का डिजिटल विंग सबसे एडवांस स्टेज में है, तो दूसरी छोर पर बीएसपी नजर आती है. ये बिखरे विपक्ष की त्रासदी ही है कि अब तक उसका कोई एजेंडा ऑफ पब्लिसिटी नहीं है.
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देश में विपक्ष भले ही बिखरा हुआ नजर आ रहा हो, केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी इसे हल्के में तो बिलकुल नहीं ले रही. बल्कि, विपक्ष के हमलावर कैंपेन से बीजेपी कुछ ज्यादा ही अलर्ट हो गयी है - और उसकी काट खोज रही है.
विपक्षी दल 2019 में चुनाव प्रचार के लिए कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम भी तैयार कर लेते, लेकिन मुमकिन तो तब हो पाता जब किसी मुद्दे पर एक राय बन पाती. सामूहिक प्रचार मुहिम की जब जरूरत होगी, देखी जाएगी - ये सोच कर सारी चीजें अपने हाल पर छूट जाती हैं. यही वजह है कि कई दलों ने अपनी तैयारी अलग अलग शुरू कर दी है.
विपक्षी खेमे में मायावती की क्या स्ट्रैटेजी है ये तो अभी नहीं मालूम, टीएमसी के डिजिटल विंग को मजबूत करने में ममता बनर्जी जरूर जुट गयी हैं. कांग्रेस में तो प्रवक्ताओं के अभी अभी इम्तिहान ही हुए हैं.
टीएमसी का डिजिटल बंगाल
प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी मजबूत करने लिए ममता बनर्जी युद्ध स्तर पर तैयारी तो कर ही रही हैं, पश्चिम बंगाल में दबदबा कायम रहे इसकी फिक्र सताने लगी है. जहां तक राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों की डिजिटल मौजूदगी की बात है, बीजेपी सभी से काफी आगे है.
डिजिटल बंगाल...
टीएमसी के डिजिटल बंगाल अभियान के लिए विशाल आईटी सेल बनाया गया है जिसमें 40 हजार सदस्य हैं. ये सभी लोक सभा सीटों पर ब्लॉक और बूथ लेवल पर काम कर रहे हैं.
सोशल मीडिया साइट्स के अलावा सबसे असरदार व्हाट्सऐप मैसेजिंग सिस्टम है - और टीएमसी की टीम ने इसके लिए 10 हजार ग्रुप बनाने की तैयारी की है. ये ग्रुप अलग अलग फील्ड के लोगों के हिसाब से काम करेंगे.
तृणमूल कांग्रेस के डिजिटल विंग का काम सांसद अभिषेक बनर्जी की देखरेख में चल रहा है. ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी टीएमसी की युवा विंग के प्रमुख भी हैं.
समझा जाता है कि डिजिटल विंग का इस्तेमाल टीएमसी ट्रोल्स को काउंटर करने, फेक न्यूज से निपटने के साथ साथ अपनी पॉलिसी और प्रोपगैंडा के प्रमोशन के लिए करने की कोशिश करेगी.
कांग्रेस में इम्तिहान
लखनऊ के पीसीसी दफ्तर में यूपी बोर्ड के इम्तिहान जैसा ही माहौल था. हालांकि, सख्ती वैसी नहीं दिखी जैसी योगी आदित्यनाथ ने इस पर की थी. सीसीटीवी और उड़ाका दल के औचक छापे.
इम्तिहान कोई भी हो, होता तो इम्तिहान ही है. ऐसे छात्र तो विरले ही होते हैं जिनके पेपर देख पसीने न छूट जाये. फिर भी एक नेता को कम्प्यूटर रूम में गूगल की मदद लेते देखे गये. एक सीनियर नेता साथियों से पूछ कर सवालों के जवाब लिखते देखे गये. एक तो ऐसे भी रहे जो नकल करते पकड़ लिये गये.
कांग्रेस प्रवक्ता बनने के लिए हुई लिखित परीक्षा के बाद इंटरव्यू की बारी थी और इसके लिए दिल्ली से पैनल पहले ही पहुंच चुका था. पैनल में कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी और राष्ट्रीय संयोजक रोहन गुप्ता ने बारी बारी सभी के इंटरव्यू भी लिये. परीक्षा में शामिल 70 कांग्रेस नेताओं से 14 सवाल पूछे गये और इसके लिए डेढ़ घंटे का तय वक्त मुकर्रर किया गया था.
कांग्रेस को कितने प्रतिशत वोट मिले थे?
बाकी सब तो अपनी जगह ठीक ठाक ही रहा, हैरानी वाली बात ये रही कि राजीव गांधी के साथ काम कर चुके वीरेंद्र मदान सरीखे कांग्रेस नेता भी इम्तिहान में शामिल हुए ताकि आगे चल कर मीडिया पैनलिस्ट बन सकें.
मध्य प्रदेश में भी युवाओं को कांग्रेस के मीडिया विंग में काम करने के लिए इंटरव्यू लिया गया था. तब तो कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रभारी दिव्या स्पंदना ने टॉपर युवाओं को राहुल गांधी के साथ कॉफी पीने का ऑफर दिया हुआ था.
राहुल गांधी का मानना है कि यूपीए की दूसरी पारी में काम अच्छे हुए थे, लेकिन उनका प्रचार प्रसार तरीके से नहीं हो पाया और नतीजतन हार का मुंह देखना पड़ा. साथ ही, राहुल गांधी ये भी मान चुके हैं कि युवाओं को रोजगार देने के मामले में मनमोहन सरकार से गलतियां हुईं. मोदी सरकार द्वारा रोजगार न देने को लेकर राहुल ऐसी टिप्पणी कर चुके हैं.
कांग्रेस ने बिहार में महागठबंधन की कामयाबी के बाद यूपी में प्रशांत किशोर को आजमाया था, लेकिन बहुत सारे किन्तु-परन्तु होते रहे और सारी मेहनत बेकार चली गयी. पंजाब के लिए अमरिंदर सिंह ने अपने बूते प्रशांत किशोर के साथ पहले ही करार कर लिया था - और नतीजे के तौर पर कामयाबी भी मिली. कांग्रेस के वॉर-रूम में अभी किसी ऐसे काम की जानकारी नहीं मिली है जिसे रूटीन से अलग कहा जा सके.
एक छोर पर बीजेपी का डिजिटल विंग सबसे एडवांस स्टेज में काम करता है, तो दूसरी छोर पर बीएसपी का नजर आता है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती ने थोड़ी दिलचस्पी दिखायी जरूर थी, लेकिन बीएसपी की सोशल मीडिया टीम बेदम नजर आती है. तब समाजवादी पार्टी ने भी एक अमेरिकी विशेषज्ञ की सेवाएं ली थी, लेकिन पार्टी की अंदरूनी बीमारी पहले ही इतना विकराल रूप धारण कर चुकी थी कि दुनिया कोई वैद्य फेल हो जाता. अब तो अखिलेश यादव 2019 की तैयारियों में लगे हैं और कन्नौज से खुद भी मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं. प्रचार प्रसार की स्ट्रैटेजी पुरानी ही रहेगी या कोई तरीका अपनाया जाएगा, अपडेट का इंतजार है. वैसे अखिलेश यादव और मायावती ये मान कर चल रहे होंगे कि सीटों पर सहमति बन जाये तो फिर किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की उन्हें जरूरत नहीं रहेगी. दोनों दलों के कार्यकार्ता मन बनाकर निकले तो हल्ला बोल कर घरों से वोट निकाल लाएंगे.
'मेरे पास सामना है...'
सोशल मीडिया की पैदाइश से बहुत पहले 'सामना' का प्रादुर्भाव हो चुका था. आज भी राजनीतिक पब्लिसिटी के मामले में सामना का किसी भी सोशल मीडिया या मेनस्ट्रीम मीडिया से कोई मुकाबला नहीं है. कोई भी पार्टी जितनी पब्लिसिटी लाखों खर्च करके नहीं पा सकती, शिवसेना अपने एक एडिटोरियल पीस से हासिल कर लेती है. सामना में एक बार कोई धमाकेदार बात छपने की देर होती है, पूरा मीडिया उछल उछल कर उसकी पब्लिसिटी में जी जान से कूद पड़ता है.
सामना है तो क्या गम है...
बीजेपी और शिवसेना एक दूसरे के एनडीए में सहयोगी हैं. 2019 तक साथ रहेंगे या अलग अलग रास्ते अख्तियार कर लेंगे कहना मुश्किल है. अभी तो बीजेपी शिवसेना से बड़े प्यार से पेश आ रही है. संपर्क फॉर समर्थन के तहत अमित शाह ने मातोश्री पहुंचकर उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे से मुलाकात भी की थी.
बाकी ताकत के अलावा अगर बीजेपी ने कभी शिवसेना को अपनी सोशल मीडिया टीम का रौब दिखाने की कोशिश की तो उसे शिवसेना से दीवार स्टाइल में जवाब मिल सकता है.
फर्ज कीजिए बीजेपी कभी बोल पड़े - "मेरी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है, बूथ लेवल पर सबसे ज्यादा कार्यकर्ता हैं, फेसबुक और ट्वीटर पर करोड़ों फॉलोवर हैं..."
शिवसेना को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं होगी. सिर्फ इतना ही काफी होगा - "मेरे पास सामना है."
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