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Updated: 19 जुलाई, 2016 02:44 PM
बालकृष्ण
बालकृष्ण
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लखनऊ का दिल कहे जाने वाले हजरतगंज से कुछ ही दूर एक सड़क है जिसका नाम है पार्क रोड. और इसी पार्क रोड पर एक छोटी सी, मगर पुरानी और शानदार कॉलोनी है - पार्क लेन.

पार्क लेन के बिल्कुल शुरू में ही बने, पहली मंजिल के B4/3 नंबर फ्लैट में फिलहाल कोई नहीं रहता. लेकिन फिर भी तीन कमरों का यह घर आजकल सुर्खियों में है. इधर से गुजरने वाले तमाम लोग इस घर को रूक कर देखते हैं और कुछ लोग तो उसकी फोटो भी खींचते दिखते हैं. पार्क लेन के गेट पर अगर आप रुक भर जाएं, तो बिना कुछ पूछे ही वहां मुस्तैद गार्ड उसी घर की ओर इशारा कर देता है. सबको पता है कि ये घर अचानक खास हो गया है. घर के भीतर रंग-रोगन और सफाई हो रही है.

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 लखनऊ में पार्क लेन स्थित शीला दीक्षित का घर

एक जमाने में इसी पार्क रोड पर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता रहा करते थे. जब उनके मुख्यमंत्री बनने की घोषणा हुई थी तो पार्क रोड अचानक वीवीआईपी इलाका हो गया था. इस इलाके के लोगों को लगता है कि एक बार फिर से पार्क रोड की चमक लौटने वाली है. क्योंकि बहुत जल्दी इस घर में खुद को 'यूपी की बहू' कहने वाली शीला दीक्षित रहने आ रही हैं. वही शीला दीक्षित जिसने पंद्रह साल तक दिल्ली पर राज किया और अब कांग्रेस पार्टी ने जिन्हें यूपी का मुख्यमंत्री बनाने की ठानी है. कांग्रेस पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री का चेहरा बनने के बाद, शीला दीक्षित रात दिन इसी कोशिश में लगीं हैं कि लोग उन्हें 'उत्तर प्रदेश की बहू' के रूप में स्वीकार कर लें. और इस कोशिश में कामयाब होने के लिए शीला दीक्षित के पास पार्क लेन के इस घर से बेहतर कोई जगह हो ही नहीं हो सकती थी. बात बहुत पुरानी है, लगभल चालीस साल पुरानी. तब शीला दीक्षित इसी घर में दीक्षित परिवार के बहू के रूप में रहती थीं. तब यूपी के कद्दावर नेता उमा शंकर दीक्षित की बहू के तौर पर इस घर में आई थीं. वही उमा शंकर दीक्षित जिनकी उस वक्त कांग्रेस पार्टी में तूती बोलती थी. जो जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक के करीबी रहे. देश के गृहमंत्री से लेकर स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर काम किया और फिर बाद में कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी हुए.

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उमा शंकर दीक्षित उस वक्त देश की राजनीति में व्यस्त रहे होंगे जब दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ने वाले उनके इकलौते बेटे विनोद की मुलाकात मिरांडा हाउस में पढ़ने वाली शीला से हुई. शीला का जन्म तो पंजाब के कपूरथला में हुआ. लेकिन उनके पिता फौज में कर्नल थे और परिवार का ज्यादा समय दिल्ली में ही बीता. स्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई सब यहीं हुई. जब वो दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री से एमए की पढ़ाई कर रही थीं, तब उनकी मुलाकात होनहार, जिंदादिल और थिएटर में रुचि रखने वाले विनोद से हुई. पिता उमा शंकर दीक्षित के कांग्रेस में बड़े नेता होने के बावजूद विनोद दीक्षित की राजनीति में कोई खास रुचि नहीं थी. दोस्त बनने के बाद वो दिल्ली यूनिवर्सिटी से बस में बैठकर कनॉट प्लेस जाते, ऑडियन और रिवोली सिनेमा हॉल में पिक्चर देखते और सिंधिया हाउस के करीब एक रेस्त्रां में बैठकर हैमबर्गर खाते. 1962 में ये दोस्ती शादी में बदल गई. विनोद दीक्षित तब IAS की परीक्षा पास कर के ऑफिसर बन चुके थे. दोनों की शादी दिल्ली में ही हुई. लेकिन उमा शंकर दीक्षित उन्नाव के उगू गांव के रहने वाले थे और उनके बेटे से शादी करके के शीला दीक्षित का भी नाता हमेशा के लिए यूपी से जुड चुका था.

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ससुर उमाशंकर दीक्षित के साथ शीला दीक्षित

शादी के बाद जब विनोद और शीला दीक्षित पहली बार लखनऊ आए तब उमाशंकर दीक्षित ने कालीदास मार्ग पर एक घर कुछ दिनों के लिए लेकर वहीं उनका स्वागत सत्कार किया. शादी का रिसेप्शन लखनऊ के ऐतिहासिक बारादरी में हुआ. उसके बाद शीला दीक्षित पहले कुछ दिनों तक अपने सास ससुर के साथ लखनऊ के नज़र बाग मोहल्ले में रहीं और फिर बाद में उनके पति को दिलकुशा कॉलनी में घर मिल गया.

लखनऊ के पार्क लेन में जिस घर को अब शीला दीक्षित अब अपना आशियाना बनाने जा रही हैं वो पहले नेशनल हेराल्ड अखबार के पास था. इस अखबार के मशहूर एडिटर चेलापति राव इसी घर में रहते थे. जब वो लखनऊ छोड़ कर दिल्ली चले गए तो ये घर खाली हो कर नगर निगम के पास आ गया.

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1977 में कर्नाटक के राज्यपाल रहने के बाद उमा शंकर दीक्षित लखनऊ लौटे थे. पूर्व राज्यपाल के नाते नगर निगम ने उन्हें ये घर आवंटित किया. बाद में ये उन्होंने लखनऊ नगर निगम से खरीद लिया. शीला दीक्षित के पति विनोद दीक्षित का तबादला तब सरकारी ऑफिसर के तौर पर कभी लखनऊ कभी आगरा और कभी दूसरी जगहों पर होता रहता था. शीला दीक्षित कभी पति के साथ आगरा और दिल्ली रहतीं तो कभी लखनऊ आकर अपने बुजुर्ग सास ससुर के साथ इसी घर में रहतीं. ससुर के काम में हाथ बंटाने के सिलसिले में ही शीला दीक्षित की मुलाकात इंदिरा गांधी से हुई. इंदिरा गांधी ने उनके हुनर को पहचाना और उन्हें राजनीति में लेकर आईं. पहले कन्नौज के सांसद बनीं और फिर राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में मंत्री के तौर पर भी काम किया. फिर कुछ उतार - चढाव देखने के बाद लगातार पंद्रह सालों तक की मुख्यमंत्री रहकर उन्होंने इतिहास भी बना डाला.

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शीर्ष नेतृत्‍व ने सौंपी यूपी की कमान !

लेकिन राजनीतिक जीवन में लगातार ऊंचाइयों को हासिल करने वाली शीला दीक्षित को व्यक्तिगत जीवन में सबसे बड़ा झटका 1987 में लगा. उस समय को राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में पीएमओ से जुड़ी राज्यमंत्री थीं. 13 जनवरी 1987 को वो मंत्री के तौर पर काम के सिलसिले में अमेरिका में थीं जब उन्हें वहीं सन्न कर देने वाली खबर मिली.

12 जनवरी को पूरे परिवार ने उमाशंकर दीक्षित का जन्मदिन धूमधाम से कानपुर में मनाया था. उसी रात उमा शंकर दीक्षित अपने बेटे विनोद दीक्षित और अपने पोते संदीप दीक्षित के साथ प्रयागराज एक्सप्रेस में कानपुर से दिल्ली के लिए रवाना हुए. ट्रेन में दादा और पोते एक डिब्बे में बैठे और शीला दीक्षित के पति विनोद दीक्षित, जो उस वक्त उत्तर प्रदेश के बिजली विभाग में प्रिंसिपल सेक्रेटरी थे, बगल दूसरे डिब्बे में जाकर सो गए.

जब ट्रेन दिल्ली पहुंची तो विनोद दीक्षित का कहीं अता-पता नहीं था. पहले लगा कि शायद वो दूसरी गाडी से घर न चले गए हों. लेकिन वो न तो घर पहुंचे और न ही उनकी खोज खबर मिली. अंत में पुलिस से मदद मांगी गई. कहीं ऐसा तो नहीं वो रास्ते में किसी स्टेशन पर उतरे हों और फिर ट्रेन पर न चढ पाए हों.

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उनकी खोज हो ही रही थी कि तभी ट्रेन पकड़ने के लिए दिल्ली स्टेशन आए कांग्रेस के नेता हेमवंती नंदन बहुगुणा ने देखा कि बहुत से लोग एक लाश को घेरे खड़े खड़े हैं. भीड़ देकर बहुगुणा भी वहां चले गए और जो देखा उसे देख कर सकते में आ गए. लाश उमाशंकर दीक्षित के इकलौते बेटे, और शीला दीक्षित के पति विनोद दीक्षित की थी जिन्हें बहुगुणा अच्छी तरह पहचानते थे. पता चला कि प्रयागराज एक्सप्रेस के टॉयलेट में ही दिल का दौरा पड़ने से विनोद दीक्षित की मौत हो गई थी. लाश तब मिली, जब ट्रेन सफाई के लिए यार्ड में गई और भीतर से बंद टॉयलेट का दरवाजा नहीं खुलने पर आखिरकार उसे तोड़ा गया.

जब उमा शंकर दीक्षित भी इस दुनिया में नहीं रहे तब शीला दीक्षित का संबंध लखनऊ से लगभग टूट सा गया. तब तक शीला दीक्षित पूरी तरह दिल्ली की हो चुकी थीं और पार्क लेन का यह घर उन्होंने अपनी बेटी लतिका को दे दिया. बाद में लतिका भी यहां से चली गई और यह घर दीक्षित परिवार के करीबी कमलेश दीक्षित के पास आ गया. तब से इस घर को शीला दीक्षित के परिवार के लोग और रिश्तेदार अपनी जरुरत के हिसाब से इस्तेमाल करने लगे.

शीला दीक्षित ने भला ये कब सोचा होगा की सियासत के टेढ़े मेढ़े रास्ते, उम्र के 78वें पड़ाव पर आकर, एक बार फिर उन्हें पार्क लेन के उसी घर में ले आएगी. वह भी एक समय था जब इस घर की दहलीज पर उन्होंने दीक्षित परिवार की बहू बनकर कदम रखा था. यह भी एक वक्त है जब वही घर, अपनी बहू से कह रहा है - अब 'यूपी की बहू' बनकर दिखाओ.

लेखक

बालकृष्ण बालकृष्ण @bala200

लेखक आज तक में पत्रकार हैं.

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