New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 12 दिसम्बर, 2020 09:40 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukharjee) का संस्मरण 'द प्रेसिडेंशियल ईयर्स' जनवरी, 2021 में मार्केट में आने वाला है. तकरीबन उसी दौरान कांग्रेस को भी नया अध्यक्ष मिलने की संभावना जतायी गयी है. संभवतः राहुल गांधी ही फिर से कांग्रेस कांग्रेस की कमान संभालने के लिए आगे आयें - और G-23 वाले कांग्रेसियों को उम्मीद करनी चाहिये कि नया कांग्रेस अध्यक्ष भले ही पुराना मॉडल क्यों न हो, वास्तव में काम करता हुआ दिखेगा भी.

बहरहाल, बात प्रणब मुखर्जी की नयी किताब की हो रही है जिसमें कांग्रेस नेतृत्व के कामकाज पर उनकी महत्वपूर्ण टिप्पणी की अभी से चर्चा होने लगी है. किताब को लेकर फिलहाल जो जानकारी आयी है, उससे मालूम होता है कि प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस के पतन के दो पड़ावों का खास तौर पर जिक्र किया है - एक जब वो कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद राष्ट्रपति भवन चले गये - और दो, 2014 का आम चुनाव जब कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात से दिल्ली पहुंचे और तभी से अब तक कांग्रेस अपने ही पैरों सीधे खड़े होने की लगातार कोशिश कर रही है - लेकिन ज्यादातर कवायद नाकाम ही साबित होती आ रही हैं.

प्रणब मुखर्जी की किताब को लेकर जिस बात की चर्चा हो रही है, वो है, कांग्रेस की 2014 में हार के लिए वो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) दोनों को जिम्मेदार मानते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष होने के साथ साथ यूपीए की चेयरपर्सन होने के नाते सोनिया गांधी की जिम्मेदारी तो बनती ही है, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है - क्या प्रणब मुखर्जी, डॉक्टर मनमोहन सिंह को एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं मानते थे?

देश का राष्ट्रपति बन जाने के बाद भी प्रणब मुखर्जी को लेकर एक अवधारणा बनी रही - 'सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में से एक जो भारत को कभी नहीं मिला'. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का 84 साल की उम्र में इसी साल अगस्त में निधन हो गया.

प्रणब मुखर्जी की किताब में क्या है?

राष्ट्रपति भवन शिफ्ट होने से पहले तक प्रणब मुखर्जी कांग्रेस कांग्रेस के सामने आयी हर मुश्किल घड़ी में अपने लंबे अनुभव और गहरी राजनीतिक समझ की टॉर्च लेकर खड़े रहे - और चुटकी बजाते ही हर समस्या का हल ढूंढ लेते रहे. गाढ़े वक्त में हर कांग्रेसी उनका मुंह देखता था और उनके राष्ट्रपति बन जाने के बाद काफी मिस भी किया जाता रहा. हालांकि, ये भी सही है कि उनको राष्ट्रपति बनाये जाने के पीछे भी कांग्रेस की राजनीति ही रही - और तस्वीर के दूसरे पहलू को देखा जाये तो वो उनको प्रधानमंत्री न बनाये जाने की भरपायी जैसा भी रहा. पहली बार 1984 और फिर 2004 - कम से कम ये दो ऐसे मौके रहे जब प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री पद के बड़े दावेदार रहे, लेकिन ये देश अपने 'सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में से एक' समझे जाने वाले प्रणब मुखर्जी की काबिलियत का फायदा उठाने से वंचित रहा.

2014 की मोदी लहर में कांग्रेस के सब कुछ गंवा देने से पहले, प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस के उस पीरियड का भी जिक्र किया है जब वो 2012 में राष्ट्रपति बने और कांग्रेस पीछे छूट गयी. प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, 'मैं यह मानता हूं कि मेरे राष्ट्रपति बनने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने राजनीतिक दिशा खो दी.'

pranab mukherjee, manmohan singhप्रणब मुखर्जी को मनमोहन सिंह से हद से ज्यादा अपेक्षा क्यों थी?

दरअसल, यही वो दौर रहा जब भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए अन्ना आंदोलन के चलते देश का मिजाज बदला बदला सा था - और रामलीला मैदान लोगों की ताकत देख कर मनमोहन सिंह सरकार की चुनौतियां बढ़ने लगी थीं. अगला आम चुनाव नजदीक आ रहा था और 2जी से लेकर कोयला घोटाले तक - एक एक कर ऐसे सामने आ रहे थे कि कांग्रेस नेतृत्व के लिए पार्टी और सरकार को संभालना मुश्किल हो रहा था.

राष्ट्रपति बन जाने के बाद की कांग्रेस को लेकर प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, 'सोनिया गांधी पार्टी के मामलों को संभालने में असमर्थ थीं, तो मनमोहन सिंह की सदन से लंबी अनुपस्थिति से सांसदों के साथ किसी भी व्यक्तिगत संपर्क पर विराम लग गया.'

सोनिया गांधी पर प्रणब मुखर्जी की टिप्पणी अपनी जगह है, लेकिन मनमोहन सिंह को लेकर थोड़ी अजीब लगती है. प्रणब मुखर्जी ने लिखा है, 'मेरा मानना है कि शासन करने का नैतिक अधिकार प्रधानमंत्री के साथ निहित होता है... देश की संपूर्ण शासन व्यवस्था प्रधानमंत्री और उनके प्रशासन के कामकाज का प्रतिबिंब होती है...'

बेशक ऐसा ही होता है. अगर मनमोहन सिंह के अलावा किसी के भी बारे में प्रणब मुखर्जी ऐसे विचार रखते हैं तो सौ फीसदी सही है, लेकिन मनमोहन सिंह के केस में एक कमजोर शख्सियत से हद से ज्यादा अपेक्षा ही लगती है.

पूरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतने मजबूत कभी नहीं हो पाये जब वो अपने मन से कुछ कर सकें. ये भी संभव था कि अगर कभी वो कुछ इधर उधर की सोचते तो प्रधानमंत्री बने रहना भी मुश्किल होता.

ऐसा क्यों लगता है प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह में वो खासियत खोज रहे थे जो उनमें कभी नहीं रही और उसी के बूते प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी की पसंद बन सके - अगर ऐसा न होता तो मनमोहन सिंह क्यों, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर तो प्रणब मुखर्जी ही बैठते.

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर रहते प्रणब मुखर्जी ने जिन आदर्श अपेक्षाओं की याद दिलायी है, वो तो प्रणब मुखर्जी ने बेहद करीब से महसूस किया ही होगा, लेकिन 2014 के बाद जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी विराजमान हुए.

लिखते भी प्रणब मुखर्जी कुछ कुछ ऐसा ही हैं, ' डॉक्टर मनमोहन सिंह गठबंधन को बचाने में व्यस्त रहे जिसका शासन पर असर हुआ, जबकि नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल में शासन की अधिनायकवादी शैली को अपनाये हुए प्रतीत हुए - जो सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के बीच तल्ख रिश्तों के जरिये परिलक्षित हुए.'

कोई दो राय नहीं कि मनमोहन सिंह निश्चित तौर पर प्रणब मुखर्जी की अपेक्षाओं पर खरे उतरते, लेकिन ऐसी आदर्श स्थिति उनके लिए तभी होती जब उनको मिले अधिकार के इस्तेमाल और कर्तव्य निभाने की थोड़ी एक्स्ट्रा ताकत मिली होती.

मनमोहन सिंह देश के उस मिडिल क्लास वेतनभोगी कर्मचारी की तरह 10 साल तक प्रधानमंत्री बने रहे जो समय पर हाजिरी लगाने के साथ देर तक काम करता है - और ड्यूटी के दौरान भी उसका ज्यादा ध्यान इस बात पर कभी नहीं होता कि काम कितना और कैसा हो रहा है, बनिस्बत कोशिश यही रहती है कि जैसे तैसे नौकरी बची रहे.

वो अपनी मेहननत, लगन और कर्मठता के बूते ही तरक्की करते करते प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, लेकिन वहां बैठ जाने के बाद नौकरी बचाने से ज्यादा कुछ कर पाना उनके लिए शायद ही कभी संभव रहा - और ये सब तो प्रणब मुखर्जी काफी करीब से देखे और महसूस किये ही होंगे.

मान लेते हैं, मनमोहन सिंह कभी प्रधानमंत्री जैसा तेवर दिखाते और कुछ ऐतिहासिक करने की सोचते तो, संभव था उनके साथ भी वैसा ही होता जैसा एक बार दिनेश त्रिवेदी और मुकुल रॉय के साथ हुआ था. दिनेश त्रिवेदी से नाराज तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने फौरन ही इस्तीफा दिलवा कर मुकुल रॉय को रेल मंत्री बना दिया था और इस बात की भी परवाह नहीं की कि वो रेल बजट का महत्वपूर्ण वक्त था. ये उन दिनों की बात है जब रेल बजट आम बजट से अलग हुआ करता था.

आप उस मनमोहन सिंह से क्या अपेक्षा रखते हैं जो ऊपनी मन से ही सही, हर वक्त राहुल गांधी के लिए कुर्सी खाली करने वाली मुद्रा में ही नजर आये. राहुल गांधी ने उनके कैबिनेट में मंजूर किया हुए ऑर्डिनेंस की कॉपी सरेआम मीडिया के सामने फाड़ कर फेंक दिया और उस हालत में भी अपनी ख्याति के अनुरूप खामोशी अख्तियार किये रहे.

प्रणब मुखर्जी अपेक्षा तो वही कर रहे हैं जो कोई भी किसी प्रधानमंत्री से करेगा, लेकिन प्रणब मुखर्जी की अपेक्षाओं पर खरा उतरने वाला प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह की पोजीशन अलग अलग छोर पर हुआ करती रही - तभी तो प्रणब मुखर्जी को पछाड़ कर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गये और प्रणब मुखर्जी कभी न बन कर भी कहलाये - देश के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में से एक जो भारत को कभी नहीं मिला.

प्रणब मुखर्जी क्या राहुल गांधी की सोच से इत्तेफाक रखते थे

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को मनमोहन सिंह से जो अपेक्षा है, वैसे वो एक बार दिखे जरूर हैं - लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद.

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राज्य सभा से चुन कर आये सभी सांसदों की एक मीटिंग बुलायी थी. मीटिंग में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद रहे. ये वर्चुअल मीटिंग रही क्यों कि ये कोरोना काल का ही वाकया है.

तब सीनियर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने जैसे ही पार्टी की मौजूता स्थिति को लेकर आत्ममंथन की सलाह दी, मीटिंग में हिस्सा ले रहे राजीव सातव आपे से बाहर हो गये. राजीव सातव की आवाज भी तेज रही और तेवर भी तल्खी भरे देखे गये. ऐसा लगा जैसे राहुल गांधी के करीबियों में शुमार किये जाने वाले राजीव सातव अरसे से ऐसे मौके का इंतजार कर रहे हों.

कपिल सिब्बल से मुखातिब राजीव सातव ने कहा कि आत्ममंथन अगर करना ही है तो 2019 नहीं, बल्कि 2014 और उसके ठीक पहले के यूपीए 2 के शासन से करना चाहिये. मतलब, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हुआ करते रहे और कपिल सिब्बल उनके कैबिनेट साथी.

राजीव सातव की यही समझाने की कोशिश रही कि अगर यूपीए 2 के शासन में ध्यान दिया गया होता तो 2014 में वो हाल नहीं होता जो हुआ और 2019 वाली तो नौबत ही नहीं आती.

यही वो मौका था जब मनमोहन सिंह ने खामोशी तोड़ी और भरी सभा में किसी बात का प्रतिकार किया जिसकी जानकारी बाहर भी आयी. ठीक अगले दिन मनमोहन सरकार में मंत्री रहे कांग्रेस नेताओं ने भी बड़े ही सख्त लहजे में रिएक्ट किया और मीटिंग में जो कुछ हुआ था उस पर कड़ा ऐतराज जताया था.

राजीव सातव की बातों को राहुल गांधी से जोड़ कर देखा गया. माना गया कि राजीव सातव, वहां अपनी तरफ से कुछ नहीं, बल्कि राहुल गांधी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और कांग्रेस नेता के मन की ही बात कर रहे थे. उस मीटिंग के वाकये और प्रणब मुखर्जी की किताब के जरिये आ रही टिप्पणियां तो एक जैसी ही लगती हैं.

तो क्या समझा जाये - कांग्रेस को लेकर राहुल गांधी भी वही विचार रखते हैं जो प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में लिखी है?

राहुल गांधी की बातों और कांग्रेस अध्यक्ष रहते उनके एक्शन से तो ऐसा ही लगता है जैसे वो बुजुर्गों को कभी पंसद नहीं किये. खासकर वे बुजुर्ग जिनकी सलाह पर सोनिया गांधी काम करती रही हैं. जाहिर है मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सलाहियत भी सोनिया गांधी को उन बुजुर्ग कांग्रेसियों ने ही दी होगी.

राहुल गांधी कहीं ये भी तो नहीं सोचते हैं कि मनमोहन सिंह की जगह प्रणब मुखर्जी को ही प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिये था!

इन्हें भी पढ़ें :

सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री न बनने की जगह फैसला कुछ और लिया होता तो!

अहमद पटेल के न होने से कांग्रेस पर कितना फर्क पड़ेगा

अहमद पटेल के नाम में 'गांधी' नहीं था, लेकिन कांग्रेस में रुतबा वही था

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय