प्रियंका गांधी के यूपी में दखल से सबसे ज्यादा घाटा किसे - योगी, अखिलेश या मायावती को?
प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi Vadra) की बस पॉलिटिक्स ने योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को परेशान तो किया ही है, सबसे बड़ी मुसीबत तो अखिलेश यादव और मायावती (Akhilesh Yadav and Mayawati) के लिए हुई है, जिनकी राजनीति कोरोना वायरस संकट के पहले से ही क्वारंटीन में चल रही है.
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उत्तर प्रदेश की सीमा से प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi Vadra) की बसें तो लौट गयीं, लेकिन राजनीति घुस कर रफ्तार भरने लगी है. ये भले लगता हो कि मजदूरों के नाम पर हुई बसों की राजनीति में प्रियंका गांधी ने योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) पर हमला बोला है, लेकिन असलियत तो ये है कि सबसे ज्यादा घाटे में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और बीएसपी नेता मायावती (Akhilesh Yadav and Mayawati) हैं.
क्या ऐसा नहीं लगता कि योगी आदित्यनाथ और उनकी टीम ने बसों के मामले को बेवजह इतना तूल दे दिया?
क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव और मायावती को फिलहाल पीछे छोड़ दिया है?
योगी के पास कोई और रास्ता नहीं था?
सबसे बड़ा सवाल तो एक ही है - प्रियंका गांधी की राजनीतिक घेरेबंदी में योगी आदित्यनाथ फंस कैसे जाते हैं?
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को शायद ही कभी अखिलेश यादव और मायावती के हाथ मिलाने से घबराहट में देखा गया हो. 2018 के उपचुनावों में जब सपा-बसपा ने गोरखपुर और फूलपुर में संयुक्त उम्मीदवार उतारे तो योगी आदित्यनाथ उसे टिप्पणी के लायक भी नहीं समझते रहे. बीजेपी की हार के बाद कहे भी थे कि जरा हल्के में ले लिया गया और नतीजा उलटा हो गया. आम चुनाव में तो खैर बदला भी ले लिये और अखिलेश-मायावती के गठबंधन को एक खास दायरे को लांघने तक नहीं दिया और हाल ये हो गया कि गठबंधन ही टूट गया.
2019 के आम चुनाव में तो योगी आदित्यनाथ ने कांग्रेस को भी सिर्फ एक सीट पर समेट दिया. अब इससे बड़ी बात क्या होगी कि राहुल गांधी को अमेठी से बोरिया बिस्तर समेटने के लिए मजबूर कर दिया - लेकिन ऐसा क्या होता है कि जब भी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की राजनीति पर धावा बोलती हैं अपने मन की करके ही लौटती हैं. जिन बातों के लिए योगी आदित्यनाथ सरकार के अफसर प्रियंका गांधी को पहले साफ मना कर देते हैं, बाद में वही काम कांग्रेस नेता के मन मुताबिक करने को मजबूर हो जाते हैं. सोनभद्र में स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने नरसंहार के पीड़ितों से मिलने से ही रोक दिया था - और फिर मिलाने के लिए गाड़ी में बैठा कर उस गेस्ट हाउस तक ले गये जहां प्रियंका गांधी को हिरासत में रखा था. नागरिकता संशोधन कानून के विरोध प्रदर्शनों के दौरान लखनऊ पुलिस ने प्रियंका गांधी के सारे रास्ते रोकने की कोशिश की, लेकिन बाद में पुलिस एक्शन के शिकार लोगों के घरों में जाकर इमोशनल तस्वीरें लेने और ट्वीट करने की पूरी छूट दे दी.
बिलकुल वही काम मजदूरों के लिए प्रियंका गांधी की भेजी गयी बसों के साथ भी योगी सरकार ने किया है.
फर्ज कीजिये योगी सरकार ने बसों का मामला सीधे सीधे खारिज कर दिया होता तो कौन सा पहाड़ टूट जाता?
अभी के हिसाब से देखें तो प्रियंका गांधी ने योगी आदित्यनाथ को निशाने पर लेकर अखिलेश यादव और मायावती को पीछे छोड़ दिया है.
जो राजनीतिक दांव प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश को लेकर चलती हैं, उससे बड़ी चालें कांग्रेस नेतृत्व दिल्ली में चलता है. दिल्ली दंगों का केस ही देख लीजिये. पहले सोनिया गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस कर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को कठघरे मे खड़ा करने की कोशिश की. उसके बाद राष्ट्रपति भवन जाकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अमित शाह को बर्खास्त करने के लिए ज्ञापन दिलवाया - और फिर मीडिया के सामने आकर बयान भी दिलवाया. तुरंत ही बीजेपी के कुछ नेताओं ने मोर्चा संभाला और 1984 के दंगों की याद दिलाते ही गुब्बारा फूट कर हवा हो गया. जब से कोरोना संकट आया है सोनिया गांधी और राहुल गांधी - और प्रियंका गांधी भी, हर रोज किसी न किसी बहाने मोदी सरकार पर हमला बोलते हैं, लेकिन एक दो बीजेपी नेता सामने आते हैं और बड़े आराम से न्यूट्रलाइज कर देते हैं. कई बार तो संबित पात्रा जैसे प्रवक्ताओं के स्तर पर ही मामला शांत हो जाता है.
तो क्या यूपी में इतनी हलचल योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक अपरिपक्वता की वजह से मच जाती है?
ये सब देख कर तो ऐसा ही लगता है कि योगी आदित्यनाथ अगर प्रियंका गांधी की बसें भेजने की पेशकश को नजरअंदाज कर दिये होते तो ज्यादा सुखी रहते. ये भी तो हो सकता था कि सरकार चुप रहती और कांग्रेस के राजनीतिक हमले का जवाब बीजेपी नेता लखनऊ में दे देते - और योगी आदित्यनाथ पर आंच तक न पहुंच पाती.
अब तो हालत ये है कि ट्विटर पर भी लोग बस पॉलिटिक्स का भरपूर मजा लूट रहे हैं - कई लोग तो कोरोना संकट में सरकारी इंतजामों तक से जोड दे रहे हैं.
सरकार जितनी बारीकी से प्रियंका गाँधी की बसों को चेक कर रही है, अगर इतनी तत्परता हवाई अड्डों पर कोरोना जाँच में दिखाती तो आज ये दिन ना देखने पड़ते ।
— prince bhalla (@mr_nice_boy2011) May 19, 2020
पहले तो योगी आदित्यनाथ सरकार को प्रियंका गांधी के बसें भेजने पर भी आपत्ति रही. फिर पत्र लिखकर डीटेल मंगा लिया. जांच-पड़ताल में बसों की डीटेल में खामियां ही खामियां नजर आयीं, लेकिन जब प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा कि जो बसें सभी पैमानों पर खरा उतर रही हैं उनमें मजदूरों की बिठा कर भेज दीजिये. प्रियंका ने कहा कि बाकी का इंतजाम फिर से कर देंगे. आखिरकार प्रियंका गांधी के पास ये कहने को तो है ही कि बसें 24 घंटे तक यूपी बॉर्डर पर खड़ी रहीं और योगी सरकार सिर्फ पत्र व्यवहार करती रही - साफ साफ मैसेज तो यही है.
अब योगी आदित्यनाथ और उनकी टीम को इस बात का जवाब तो देना ही होगा कि आखिर प्रियंका गांधी की पेशकश को स्वीकार ही क्यों किया गया जब मंजूर नहीं था - और मंजूर किया तो बसों का फायदा मजदूरों तक पहुंचने क्यों नहीं दिया?
अखिलेश और मायावती तो हाथ मलते रह गये
उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी बीजेपी के बाद सबसे बड़े विपक्षी दल के तौर पर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी है और उसके बाद बीएसपी. अपना दल के बाद पांचवें पायदान पर रहने वाली कांग्रेस की हैसियत तो इतनी भर बची है कि लोक सभा में रायबरेली से सोनिया गांधी की सीट और विधानसभा में कुल जमा 7 विधायक हैं. फिर ऐसा क्या है कि मायावती और अखिलेश यादव जैसे जनाधार वाले नेताओं से ज्यादा प्रियंका गांधी की राजनीति का योगी आदित्यनाथ पर असर होता है?
यही यक्ष प्रश्न मायावती और अखिलेश यादव के सामने भी होगा ही - जिस कांग्रेस पार्टी को अखिलेश यादव 2017 के चुनावों में गठबंधन के तहत एक एक सीट के लिए रुला डाले थे उसे यूपी में बीजेपी इतना महत्व क्यों देने लगती है?
ठीक वैसे ही 2019 में जब सपा-बसपा गठबंधन बना मायावती ने कांग्रेस को आस पास फटकने तक नहीं दिया था, लेकिन वक्त की नजाकत देखिये कि सिर्फ एक या दो बार नहीं बार बार प्रियंका गांधी बाजी मार ले जा रही हैं - और मायावती हों या अखिलेश यादव गुबार देखते रह जाते हैं.
देखा जाये तो उन्नाव रेप पीड़ित की मौत के वक्त प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव और मायावती तीनों फील्ड में नजर आये थे - वरना, ज्यादातर वक्त सभी ट्विटर से ही आजकल काम चला रहे हैं. प्रियंका गांधी और अखिलेश-मायावती में एक फर्क जरूर नजर आता है - प्रियंका गांधी हर मौके पर फील्ड में उतर जा रही हैं, जबकि अखिलेश यादव और मायावती या तो ट्विटर पर बयान जारी कर रहे हैं या ज्यादा से ज्यादा मीडिया के सामने आकर. जाहिर है फील्ड का ज्यादा असर होता है इसलिए फायदा भी वैसा ही मिलता है.
ट्विटर पर भी अखिलेश यादव और मायावती के रिएक्शन में काफी फर्क नजर आता है. ऐसा अक्सर देखा गया है कि मायावती के निशाने पर कांग्रेस ही होती है. हाल फिलहाल भी जब राहुल गांधी दिल्ली में मजदूरों से मिलने गये तो मायावती ने नसीहत दी - और जब प्रियंका गांधी ने मजदूरों के लिए बसे भेजने की पेशकश की तो भी मायावती ने उसी अंदाज में रिएक्ट किया. अखिलेश यादव ने अलग ही ली हुई थी.
आम जनता को ये समझ नहीं आ रहा है कि जब सरकारी, प्राइवेट और स्कूलों की पचासों हज़ार बसें खड़े-खड़े धूल खा रही हैं तो प्रदेश की सरकार प्रवासी मज़दूरों को घर पहुँचाने के लिए इन बसों को सदुपयोग क्यों नहीं कर रही है. ये कैसा हठ है?
बस की जगह बल का प्रयोग अनुचित है.
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) May 19, 2020
सवाल ये है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मायवती और अखिलेश यादव की तुलना में प्रियंका गांधी वाड्रा को ज्यादा महत्व देने की क्या वजह हो सकती है? बीजेपी की तरफ से यूपी में मायावती और अखिलेश यादव पर प्रियंका गांधी को ज्यादा तरजीह मिलने की एक वजह तो यही लगती है कि लोगों में मैसेज जाये कि भाजपा के मुकाबले सपा और बसपा कहीं लड़ाई में है ही नहीं - और चर्चा में कांग्रेस होने से लोगों तक ये मैसेज पहुंच जाता है तो बीजेपी राहत महसूस करती है क्योंकि जमीन पर कांग्रेस का खाता गोल ही है.
ये तो साफ है कि प्रियंका गांधी वाड्रा अपने राजनीतिक पैंतरे से योगी आदित्यनाथ से लेकर अखिलेश यादव और मायावती सभी को बार बार हैरान कर रही हैं. भले ही प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस पार्टी को इससे दूरगामी फायदा न दिला पायें, लेकिन तात्कालिक लाभ तो मिल ही रहा है - और कांग्रेस के लिए ये फिलहाल संजीवनी बूटी से कम है क्या?
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