Dhami किस्मतवाले हैं - 2024 में आम चुनाव नहीं होता तो धूमल बन कर रह जाते!
पुष्कर सिंह धामी (Pushkar Singh Dhami) के साथ भी बीजेपी नेतृत्व वैसा ही सलूक करता जैसा 2017 में प्रेम कुमार धूमल (Prem Kumar Dhumal) के साथ किया था. हालांकि, धामी के फिर से उत्तराखंड (Uttarakhand CM) के मुख्यमंत्री बनने की वजह भी वही लगती है, जो पहली बार रही.
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उत्तराखंड में मुख्यमंत्री (Uttarakhand CM) के शपथग्रहण के मौके को बीजेपी ने बड़ा इवेंट बनाया है - और अब ये 2024 के आम चुनाव तक बार बार देखने को मिल सकता है. तब भी जब मौका बहुत महत्वपूर्ण न हो. तब भी जब चीजें बीजेपी के खिलाफ जाती लगती हों, ताकि लोगों में किसी भी तरीके से बीजेपी की ताकत कम होने जैसा कोई मैसेज न चला जाये.
विधानसभा चुनावों में चार राज्यों में बीजेपी की जीत के जश्न की अगुवाई करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अहमदाबाद पहुंच गये. रोड शो करने. जब देहरादून पहुंचे तो मोदी के साथ बीजेपी के ज्यादातर दिग्गजों ने भी हाजिरी लगायी. साथ में, बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ अरसे से बगावत का बिगुल बजाने वाली राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की भी मौजूदगी दर्ज करायी गयी. ये भी एक खास राजनीतिक मैसेज देने की ही कोशिश रही.
पुष्कर सिंह धामी (Pushkar Singh Dhami) के शपथग्रहण के मौके पर बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय मंत्री अमित शाह और नितिन गडकरी भी पहुंचे थे, लेकिन नारे तो मोदी के साथ साथ यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ही ज्यादा लग रहे थे - बुलडोजर बाबा बोल कर. ये हाल तब है जब योगी का अभी लखनऊ में शपथ लेना बाकी है.
चुनाव नतीजे आने के बाद से विधायक दल का नेता चुने जाने तक पुष्कर सिंह धामी के नाम पर संशय बना हुआ था क्योंकि वो अपने विधानसभा क्षेत्र खटीमा से चुनाव हार गये थे, लेकिन ये भी महसूस किया जा रहा था कि रेस में वो न सिर्फ बने हुए थे, बल्कि चर्चाओं में वो सबसे आगे चल रहे थे.
उत्तराखंड चुनाव से सात महीने पहले तीन महीने के अंतर पर दो-दो मुख्यमंत्री बदले जा चुके थे और विधानसभा के एक ही कार्यकाल में एक ही पार्टी तीसरे मुख्यमंत्री बने थे पुष्कर सिंह धामी. त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत को हटाकर धामी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाये जाने की वजह भी वही रही जो गुजरात में विजय रूपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाये जाने की - 2024 में होने वाला आम चुनाव.
अगर देश का अगला चुनाव 2024 में नहीं होने वाला होता तो भी क्या चुनाव हार चुके पुष्कर सिंह धामी फिर से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन पाते? आखिर प्रेम कुमार धूमल (Prem Kumar Dhumal) और धामी के साथ बीजेपी नेतृत्व ने अलग अलग व्यवहार क्यों किया?
धामी और धूमल में फर्क क्यों?
2021 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनवाल ही असम में बीजेपी सीएम फेस थे, लेकिन चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने मुख्यमंत्री बदल दिया था. बीजेपी नेतृत्व ने सोनवाल की जगह हिमंत बिस्वा सरमा को असम का मुख्यमंत्री बनाया और लगे हाथ कई संदेश भी दे डाले.
उत्तराखंड में बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने का बाद अब पुष्कर सिंह धामी पर अगले आम चुनाव का दारोमदार है.
ये संदेश बाहर से बीजेपी में आने वाले कई नेताओं के लिए तो थे ही, दूसरे दलों के उन नेताओं के लिए भी रहा जो बीजेपी ज्वाइन करने की योजना पर काम कर रहे हों. सरमा को सीएम बनाये जाने से पहले तक यही धारणा रही कि बीजेपी में संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलती है.
पुष्कर सिंह धामी के खटीमा विधानसभा सीट हार जाने के बाद लगा तो यही कि बीजेपी नेतृत्व वैसा ही फैसला लेगा जैसा 2017 के हिमाचल प्रदेश चुनाव में लिया था. पुष्कर सिंह धामी की ही तरह 2017 में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल भी अपनी विधानसभा सीट हार गये थे और बीजेपी ने उनको मुख्यमंत्री नहीं बनाया. मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जयराम ठाकुर को बिठा दिया गया. प्रेम कुमार धूमल को मन मसोस कर रह जाना पड़ा.
करीब दो साल बाद जब अनुराग ठाकुर को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिली तब जाकर प्रेम कुमार धूमल ने राहत भरी सांस ली होगी. अनुराग ठाकुर, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके प्रेम कुमार धूमल के सबसे बड़े बेटे हैं - और 2021 में मंत्रिमंडल में हुई अनुराग ठाकुर को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया है. दिल्ली और अभी अभी खत्म हुए यूपी विधानसभा चुनावों में अनुराग ठाकुर फ्रंटफुट पर खेलते नजर आये. जम्मू-कश्मीर में हुए डीडीसी चुनाव में भी अनुराग ठाकुर को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली थी - और यूपी चुनाव में भी वो सह-प्रभारी बनाये गये थे.
2017 में प्रेम कुमार धूमल के अलावा जेपी नड्डा और जयराम ठाकुर भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में शामिल थे लेकिन अमित शाह ने धूमल को सीएफ का चेहरा बना कर सबको चौंका दिया था. तब चर्चा ये रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपने पुराने संबंधों की वजह से धूमल भारी पड़ गये थे.
क्योंकि जिस जेपी नड्डा को आगे चल कर अमित शाह ने बीजेपी अध्यक्ष की अपनी कुर्सी सौंपी, पहले भी तो भरोसा करते ही रहे होंगे. जयराम ठाकुर भाग्यशाली रहे कि धूमल विधानसभा चुनाव हार गये और उनको मुख्यमंत्री बना दिया गया. लेकिन पांच साल में ही हिमाचल प्रदेश में बहुत कुछ बदल चुका है - और ये कुछ दिन पहले अनुराग ठाकुर की हिमाचल प्रदेश यात्रा में भी देखने को मिला. कैबिनेट मंत्री बनने के बाद पहली बार हिमाचल प्रदेश पहुंचे अनुराग ठाकुर के स्वागत के लिए जयराम ठाकुर एक घंटा पहले ही पहुंच चुके थे.
जैसे भूपेंद्र पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाये जाते वक्त मनसुख मंडाविया के नाम की चर्चा रही, हिमाचल प्रदेश में अनुराग ठाकुर का मामला भी मिलता जुलता ही लगता है. हो सकता है बीजेपी हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले ही जयराम ठाकुर को भी बदल डाले. वैसे गुजरात के साथ ही इस साल के आखिर में हिमाचल प्रदेश में भी चुनाव होने वाले हैं - और अनुराग ठाकुर वहां सबसे बड़े दावेदार लगते हैं.
जैसे पहली बार, वैसे दूसरी बार
माना जा रहा है कि ये सात महीने में पुष्कर सिंह धामी की मेहनत का नतीजा है कि बीजेपी को 70 में से 47 सीटों पर जीत हासिल हुई है. फिर तो सवाल ये उठता है कि ये बात धूमल पर क्यों नहीं लागू हुई? आखिर धूमल ने भी कांग्रेस के शासन से मुक्ति दिलाकर बीजेपी की सरकार बनवा दी थी.
असल बात तो ये है कि जिन वजहों से पुष्कर सिंह धामी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, दूसरी बार भी वही वजह आधार बनी है - 2024 में होने जा रहा आम चुनाव.
बीजेपी शासित राज्यों में नेतृत्व को ऐसे ही मुख्यमंत्री की जरूरत है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सत्ता वापसी में हर लिहाज से मददगार साबित हो - मतलब, अपने राज्य की सभी नहीं तो ज्यादातर सीटों पर बीजेपी की जीत सुनिश्चित कर सके.
वैसे पुष्कर सिंह धामी के हार कर भी मुख्यमंत्री बन जाने के पीछे कई कारण समझे जा रहे हैं, लेकिन ये भी है कि देश, काल और परिस्थितियां भी धामी के पक्ष में ही रहीं
धामी जैसा कोई नहीं: कहने को तो उत्तराखंड में भी मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे. कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में सतपाल महाराज तो धामी की हार के बाद मन ही मन फूले नहीं समा रहे होंगे.
सतपाल महाराज की ही तरह धामी की हार का परदे के पीछे जश्न तो अनिल बलूनी, अजय भट्ट और मदन कौशिक भी मना रहे होंगे, लेकिन आखिरी बाजी तो धामी के हाथ ही लग पायी.
46 साल के पुष्कर सिंह धामी को चुनावों से पहले भी युवा होने के चलते ही मुख्यमंत्री बनाया गया था. जुलाई, 2021 में कुर्सी संभालने के महीना भर बाद ही स्वतंत्रता दिवस के मौके पर धामी ने कई स्कीम लांच कर लोगों का ध्यान खींचा. धामी ने दसवीं और बारहवीं के छात्रों को फ्री टैबलेट देने के ऐलान के साथ ही खेल नीति बनाने का भी ऐलान किया था. ये धामी की मेहनत ही रही कि वो सूबे में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहे.
वैसे धामी मोदी-शाह की पसंद तो बताये ही जाते हैं, महाराष्ट्र के मौजूदा राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के भी करीबी माने जाते हैं. जब कोश्यारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे तो धामी उनकी टीम में शामिल थे. उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के वक्त वो राज्य के भारतीय जनता युवा मोर्चा के भी अध्यक्ष रह चुके हैं - असल बात तो ये है कि मौजूदा दौर में उत्तराखंड में धामी की टक्कर का कोई नेता नहीं है.
खुद हारे, लेकिन बीजेपी की जीत सुनिश्चित की: धामी ने जब सत्ता हासिल की तब बार बार मुख्यमंत्री बदले जाने ने उत्तराखंड के लोग खासे खफा थे. हर बार सत्ता परिवर्तन की परंपरा को देखते हुए कांग्रेस भी सरकार बनाने के बारे में सोच रही थी, लेकिन मौका तो कांग्रेस नेतृत्व ने वैसे ही गवां दिया जैसे पंजाब में चूक गये.
धामी ने जब सूबे की कमान संभाली तो सत्ता विरोधी लहर भी एक बड़ा चैलेंज था. धामी कामकाज संभालने के साथ ही मोर्चे पर लग गये और खूब मेहनत की - ये धामी की मेहनत ही रही जो बीजेपी ने 47 सीटें जीत ली और सत्ता बदलने का मिथक भी तोड़ डाला.
धामी की तुलना ममता बनर्जी से भी की जा सकती है, जो खुद नंदीग्राम से चुनाव हार गयीं लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तृणमूल कांग्रेसी की जीत सुनिश्चित की - और ये भी है कि ममता की तरह हारने के बाद भी धामी सीएम बने हैं. हां, दोनों में फर्क ये है कि ममता को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के बारे में खुद फैसला लेना था लेकिन धामी की किस्मत का फैसला तो मोदी-शाह के हाथों में सुरक्षित था.
सबकी पसंद बने धामी: उत्तराखंड के तमाम सीनियर नेताओं को किनारे रख कर बीजेपी नेतृत्व ने धामी को कमान सौंपी थी - और माना जाता है कि ये बात वो हर पल याद रखे. धामी ने सभी सीनियर नेताओं का पूरा ख्याल रखा क्योंकि ऐसा न होता तो उनकी छोटी सी नाराजगी भी भारी पड़ सकती थी.
बताते हैं कि अपने पूर्ववर्ती तीरथ सिंह रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक से भी वो सलाह लेते रहे. सीनियर और युवा नेताओं के बीच वो खुद महत्वपूर्ण कड़ी तो बने ही रहे, सरकार और पार्टी में तालमेल बनाये रखने के लिए ज्यादातर नेताओं से संपर्क बनाये रखा - और उनकी व्यवहारकुशलता का धामी को पूरा फायदा भी मिला.
ये 2024 का बंदोबस्त है
धामी का विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन उनकी निजी हार पर भारी पड़ा है. तीरथ सिंह रावत के बार बार विवादों में पड़ जाने के बाद बीजेपी नेतृत्व को एक ऐसे नेता की तलाश रही जो विधानसभा चुनाव के साथ साथ 2024 के आम चुनाव के लिए भी उपयोगी साबित हो सके.
देखा जाये तो धामी बीजेपी नेतृत्व की उम्मीदों पर खरा उतरे हैं. विपरीत परिस्थितियों में सत्ता संभालने के बाद भी धामी ने बीजेपी की सत्ता में वापसी करायी - ऐसे में उस नेता की निजी हार का कोई मतलब रह जाता है क्या?
असल बात तो ये है कि धामी का चयन ही 2024 के आम चुनाव के लिए हुआ था और हर पैमाने पर वो सही साबित हुए हैं - मान कर चलना चाहिये अगले आम चुनाव तक बीजेपी शासित बाकी राज्यों में भी यही ट्रेंड देखने को मिलेगा. 2024 को लेकर बीजेपी को कोई भी जोखिम नहीं उठाने वाली है.
जैसे यूपी चुनाव में योगी आदित्यनाथ के बागी तेवर के बावजूद बीजेपी ने चेहरा नहीं बदला, धामी के शपथग्रहण में पहुंची वसुंधरा राजे को भी नाउम्मीद होने की कोई वजह नहीं लगती. और हा, सिराथू से हार जाने के बावजूद यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या को भी निराश होने की जरूरत नहीं है.
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