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Updated: 09 मार्च, 2022 07:07 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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एग्जिट पोल और चुनाव नतीजों के बीच कांग्रेस से एक महत्वपूर्ण खबर और आ रही है. एके एंटनी सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने जा रहे हैं - मतलब, कांग्रेस में इस बार हार की समीक्षा के लिए एंटनी कमेटी नहीं बन पाएगी.

ज्यादातर यही देखा गया है कि कांग्रेस की हार के बाद एक कमेटी बनती रही है. एंटनी के नेतृत्व में ही ज्यादातर कांग्रेस की हार की समीक्षा होती रही है - और समीक्षा के नतीजे की स्क्रिप्ट भी एक सी रही है. हर बार हार की सामूहिक जिम्मेदारी लेते हुए गांधी परिवार को निर्दोष करार दिया जाता है, लेकिन अब ऐसा नहीं होने वाला है.

पंजाब में कांग्रेस की हालत के संकेत तो एग्जिट पोल आने से पहले ही मिलने लगे थे. एग्जिट पोल तो एक तरीके से चुनाव पूर्व सर्वे जैसा ही आया है. हालांकि, एक तबका ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के मिलते जुलते होने पर भी सवाल उठा रहा है.

अगर पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजे वैसे ही आते हैं जैसे एग्जिट पोल में पाये गये हैं तो भी कोई सरप्राइज एलिमेंट नहीं देखा जाएगा - और पंजाब ही नहीं, दरअसल, ये कांग्रेस में अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित हो चुके वर्क कल्चर का बेहतरीन नमूना है.

हुआ तो यही है कि कांग्रेस के नये नेतृत्व - नये नेतृत्व के तौर पर भाई-बहन की जोड़ी के तौर पर देखा जा रहा है. असल में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी वाड्रा मिल कर पंजाब में शिद्दत से एक्सपेरिमेंट किये हैं. सोनिया गांधी भले ही कार्यकारिणी की बैठक में कांग्रेस नेताओं से कहतीं फिरें कि अध्यक्ष की कुर्सी पर वही बैठी हैं और सारे फैसले भी वही ले रही हैं. लेकिन कपिल सिब्बल ने कांग्रेस में 'स्थाई अध्यक्ष' और 'फैसले कौन ले रहा है' जैसे सवाल उठाया है तो वो बेवजह नहीं रही.

पंजाब में कांग्रेस के अंदर जो अंदरूनी 'खेला' हुआ वैसा तो सोनिया गांधी के जमाने में कम ही देखने को मिलता था. सबसे लंबे समय तक कांग्रेस का अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए ने 10 साल सरकार भी चलायी है - अब उस सरकार में 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' हुआ करता या आखिरी पारी में कई घोटाले सामने आये ये बहस का अलग टॉपिक हो सकता है.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के अनुसार, सोनिया गांधी ने फोन पर जो 'सॉरी अमरिंदर' कहा था उसके कई आयाम हो सकते हैं, लेकिन इस बात से भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि बच्चों की जिद के आगे उनको हर आदेश पर के ड्राफ्ट पर दस्तखत करने ही पड़े हैं.

ये भाई-बहन लीडरशिप भी हर जगह एक जैसा नहीं दिखा है. हो सकता है पंजाब की तरह ही उत्तराखंड में भी जो जो फैसले लिये गये, उसके पीछे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) के सामूहिक निर्णय रहे - लेकिन यूपी चुनाव (UP Election 2022) में तो ऐसा लगा जैसे राहुल गांधी के नाम की महज रस्मअदायगी हो रही हो. कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत का यूपी में 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को टिकट देने को प्रियंका गांधी वाड्रा का फैसला बताया जाना - और प्रियंका गांधी का कहना कि 'कोई और चेहरा दिखता है क्या... मेरे सिवा' आखिर क्या कहलाता है?

पंजाब तो बचा ही सकते थे

ये तो नहीं कहा जा सकता कि कैप्टन अमरिंदर सिंह से इस्तीफा लेना कांग्रेस नेतृत्व का सही फैसला नहीं था - लेकिन वो मामला अच्छे से हैंडल किया जा सकता था और अगर एक बार कोई गड़बड़ी भी हो गयी तो उसमें कदम कदम पर सुधार के मौके थे. लिहाजा ये तो कहा ही जा सकता है कि बाद में भी सही फैसले लेने की कोशिश नहीं हुई.

rahul gandhi, priyanka gandhi vadraकांग्रेस में नयी नयी उभरी भाई-बहन की लीडरशिप ने तो विपक्ष में प्रासंगिक बने रहने का संघर्ष भी बढ़ा दिया है

ये पंजाब का ही केस है जो कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के रूप में नेतृत्व की नयी जोड़ी सामने आयी. ऐसा होना भी चाहिये था. कांग्रेस को इसकी बहुत जरूरत भी रही - लेकिन नेतृत्व को फैसला दिमाग से लेना होता है, दिल से तो कतई नहीं. नये नेतृत्व के फैसले तो यही बताते हैं कि दिमाग की जगह ज्यादातर फैसलों में दिल ही हावी रहा.

शुरू से लेकर आखिर तक कांग्रेस नेतृत्व के हर फैसले के केंद्र में नवजोत सिंह सिद्धू ही रहे. ध्यान देने पर मालूम होता है कि भाई-बहन की लीडरशिप ने पहले तो सिद्धू को की हर बात मानी लेकिन आखिर में रणनीति बदल दी - और सिद्धू का तो एक ही मिशन था, गांधी परिवार ने मुख्यमंत्री या सीएम फेस नहीं बनाया तो सब छोड़ कर घर बैठ गये.

कैप्टन से इस्तीफा लिया जाना: एक ही वक्त पर कांग्रेस नेतृत्व और बीजेपी नेतृत्व एक जैसी समस्या से जूझ रहा था. दोनों ही अपने अपने मुख्यमंत्रियों से परेशान रहे, लेकिन दोनों ने अलग अलग तरीके से पूरे मामले को सुलझाने की कोशिश की.

जरूरी नहीं कि हर फैसला नेतृत्व के मनमाफिक हो ही, लेकिन ये बहुत जरूरी है कि हर फैसला राजनीतिक रूप से सही होना ही चाहिये. कैप्टन अमरिंदर सिंह के केस में कांग्रेस नेतृत्व और योगी आदित्यनाथ के केस में बीजेपी नेतृत्व के फैसले में बड़ा फर्क यही रहा.

और अगर यूपी को छोड़ दें तो ऐसा गुजरात और उत्तराखंड में भी तो हुआ. जैसे कांग्रेस ने पंजाब में मुख्यमंत्री बदला, बीजेपी ने गुजरात में बदला और उत्तराखंड में तो उसे दोहरा भी दिया. गांधी परिवार ने बीजेपी की कॉपी तो कर ली, लेकिन अंजाम तक नहीं पहुंचा सके.

योगी आदित्यनाथ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आदेश की अवहेलना के बावजूद अमित शाह पूरी ताकत से मैदान में सबसे कठिन मोर्चे पर डटे रहे - और बनारस जैसे बीजेपी के गढ़ में जब लगा कि मामला गड़बड़ हो सकता है तो कुछ खास विधानसभाओं की जरूरत के हिसाब से रोड शो और ऐसे इंटरैक्टिव कार्यक्रमों के जरिये खुद प्रधानमंत्री मोदी मोर्चे पर डट गये.

मौजूदा हालात में राहुल और प्रियंका गांधी तो ऐसी स्थिति में भी नहीं हैं कि मोदी की तरह चुनाव जिता दें - और जिन नेताओं पर कांग्रेस नेतृत्व ने जीत की जिम्मेदारी छोड़ी थी वे भी उतने सक्षम नहीं थे.

ऐसा भी नहीं लगता कि कैप्टन के कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी से हाथ मिला लेने से कोई बड़ा नुकसान हुआ हो, लेकिन ये तो है कि कैप्टन के कांग्रेस में रहते पंजाब में सत्ता में वापसी सुनिश्चित जरूर की जा सकती थी - हालांकि, ये सब अभी एग्जिट पोल के अनुमानों के मुताबिक ही कहा जा सकता है. अंतिम तो चुनाव नतीजे ही होंगे.

चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया जाना: कैप्टन से इस्तीफा लेने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर ट्रंप कार्ड ही खेला था, लेकिन क्रेडिट लेने के साथ ही फटाफट गंवा भी डाला.

पंजाब में दलित मुख्यमंत्री का प्रस्ताव बीजेपी की तरफ से आया था. असल में अकाली दल के अलग हो जाने के बाद बीजेपी के पास भी पंजाब में खड़े होने के लिए कोई मजबूत आधार नहीं था. किसान आंदोलन के बाद तो बीजेपी की जो हालत पश्चिम यूपी में हो गयी थी, पंजाब में भी वैसा ही था. बीजेपी नेताओं के लिए गांवों में घुसना मुश्किल हो गया था. कांग्रेस ने बीजेपी के मुद्दे को लपक कर अपने खाते में डाल तो दिया लेकिन सिद्धू के चन्नी के साथ भी कैप्टन की तरह ही पेश आने से मामला खराब होता चला गया.

सिद्धू को हैंडल न कर पाना: सिद्धू तो सदाबहार एक जैसे रहते हैं. शुरू से आखिर तक अपने मकसद के लिए लड़ते रहे. जब लगा कि उनके हिस्से कुछ भी नहीं लगने वाला तो चुपचाप घर में बैठ गये.

सिद्धू को अंत तक यकीन रहा कि राहुल गांधी उनके अलावा किसी और को पंजाब में मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं घोषित करेंगे. जिस रैली में ये घोषणा होनी थी, उससे पहले होटल में दो घंटे तक राहुल गांधी के साथ इसी बात पर जिरह होती रही. राहुल गांधी ने अपनी तरफ से चन्नी और सिद्धू दोनों को समझाने की कोशिश की. राहुल गांधी के पास चन्नी को मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाने की कोई वजह नहीं थी. कोई विकल्प बचा ही नहीं था.

सिद्धू तो कंट्रोल किये जाने वाले शख्स हैं नहीं. जो जी चाहेगा करेंगे. किये भी जो जो मन किया. कुछ भी छिपा कर नहीं किया. पहले ही बोल दिया था कि दर्शानी घोड़ा बन कर नहीं रहेंगे - और देखा जाये तो अपने हिसाब से ईंट से ईंट तो खड़का ही दिये.

सिद्धू को लेकर आखिर तक ये नहीं समझ में आया होगा कि भाई-बहन की जोड़ी से जो दुलार मिल रहा है उसमें नेता बने रहने की गुंजाइश होती है, या फिर राजनीति में कर्मचारी बन कर रह जाना पड़ता है. सिद्धू को इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा, या फिर अपने पर हद से ज्यादा भरोसा हो सकता है.

जैसे ही राहुल गांधी ने चरणजीत सिंह चन्नी के नाम की घोषणा की, सिद्धू सीट से उठे और चन्नी का हाथ ऊपर करके सपोर्ट का इजहार किया, लेकिन ये सब ऊपर से प्रदर्शन भर रहा. उसके बाद तो सिद्धू घर ही बैठ गये. प्रियंका गांधी की रैली में पहुंचे जरूर लेकिन भाषण तक देने से मना कर दिया.

उत्तराखंड में तो पूरा मौका था

पंजाब के चक्कर में उत्तराखंड भी गवां डाला: अगर हरीश रावत को ही उत्तराखंड चुनाव की कमान संभाना था तो लंबे समय तक उनको पंजाब का प्रभारी बना कर फंसाये रखने की क्या जरूरत रही?

अगर हरीश रावत पंजाब के झगड़े सुलझाने की जगह उत्तराखंड में टाइम दिये होते तो स्थिति अलग भी तो हो सकती थी. जैसे पंजाब में मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर आखिर तक कन्फ्यूजन बनाये रखा गया, उत्तराखंड के मामले में भी राहुल गांधी ने बिलकुल वैसा ही किया.

शुरू से ही हरीश रावत समझा रहे थे कि उत्तराखंड में लड़ाई को क्षेत्रीय बना कर रखा जाये. मोदी फैक्टर की एंट्री हर सूरत में रोकी जाये - कोशिश ये हो कि सूबे की लड़ाई पुष्कर सिंह धामी बनाम हरीश रावत हो, न कि प्रधानमंत्री मोदी बनाम कांग्रेस यानी राहुल गांधी.

कांग्रेस नेतृत्व पहले तो आंख पूरी तरह बंद किये रहा. जिस तरह से कांग्रेस की रैलियों के पोस्टर से हरीश रावत के फोटो हटा दिये गये थे, आखिर लोगों के बीच क्या मैसेज गया होगा? जब चुनाव करीब आ गये तो बताया गया कि हरीश रावत के नेतृत्व में ही कांग्रेस उत्तराखंड में चुनाव लड़ेगी, लेकिन उससे भी बड़ा संदेश ये गया कि 2012 की तरह मुख्यमंत्री कोई और भी हो सकता है.

पूरा मौका था, लेकिन चूक गये: पंजाब को लेकर तो शुरू से ही सर्वे रिपोर्ट से संकेत देते रहे कि कांग्रेस सत्ता गवां सकती है. त्रिकोणीय असेंबली हो सकती है. फिर भी कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से कोई सतर्कता नहीं बरती गयी - और अब तो सब कुछ सामने है.

पंजाब और उत्तराखंड की चुनावी राजनीति में बुनियादी फर्क है. पंजाब में कांग्रेस की चुनौती सत्ता बचाने की रही, जबकि उत्तराखंड में सरकार बनाने का पूरा मौका - पंजाब में तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने बस मौके का फायदा उठाया है.

पंजाब में कांग्रेस सोच समझ कर रणनीति तैयार करती तो सत्ता बचाने की कोशिश हो सकती थी - और उत्तराखंड में भी उसी तरीके से सत्ता हासिल करने की भी. दोनों में से कहीं भी कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से गंभीर प्रयास नहीं किये गये.

विपक्ष में भी संघर्ष करने पड़ेंगे

पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने से पहले राहुल गांधी अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड के दौरे पर हैं. वैसे हाल फिलहाल अपने पुराने चुनाव क्षेत्र अमेठी का भी दो बार दौरा कर चुके हैं. एक बार चुनावों से पहले भूल चूक लेनी देनी के बहाने और दूसरी बार कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए वोट मांगने.

जहां तक पांच राज्यों के चुनाव नतीजों की बात है तो गोवा और मणिपुर का मामला तो पांच साल पहले ही कांग्रेस के हाथ से फिसल गया था. गोवा और मणिपुर में कांग्रेस चुनाव नतीजे आने के बाद वैसे ही हाथ पर हाथ धरे बैठी रही, जैसे 2019 में बीजेपी के बहुमत से चूक जाने के बाद हरियाणा में. दुष्यंत चौटाला कांग्रेस के साथ भी तो सरकार बना सकते थे. जैसे यूपी में जयंत चौधरी बीजेपी नेतृत्व की तरफ से बार बार तारीफ किये जाने के बावजूद अखिलेश यादव के साथ डटे रहे.

आम तौर पर विपक्ष ऐसी ही रणनीति पर काम कर रहा है कि कैसे उन सीटों पर बीजेपी को चैलेंज किया जाये जहां कांग्रेस के साथ सीधी टक्कर देखा जा रहा है. ममता बनर्जी और शरद पवार मिलते हैं तब भी ये बात होती है - और केसीआर मुंबई पहुंच कर पवार के साथ साथ मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मिलते हैं तब भी.

पंजाब को लेकर ये तो कहा ही जा सकता है कि कांग्रेस वहां हार रही है, जहां बीजेपी से उसकी सीधी लड़ाई नहीं थी - और उत्तराखंड में तो सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाते हुए भी सरकार बनाने का पूरा मौका था. बारी बारी सरकारें बदलने की परंपरा उत्तराखंड में भी रही है. पंजाब और उत्तराखंड दोनों के ही चुनाव नतीजे राहुल-प्रियंका के रूप में सामने आयी भाई बहन की जोड़ी के नेतृत्व की ही हार और जीत के तौर पर देखी जाएगी.

बाहर की कौन कहे, कांग्रेस के भीतर तो बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद भी सवाल उठे थे, पंजाब में सत्ता गंवाने के बाद तो स्वाभाविक ही है. पंजाब को लेकर तो G-23 नेता कपिल सिब्बल ने पहले से ही सवाल उठाने शुरू कर दिये थे - जब कांग्रेस के पास पूर्णकालिक अध्यक्ष है ही नहीं तो आखिर फैसले कौन ले रहा है?

और कांग्रेस नेतृत्व पर ये इतना बड़ा हमला था कि CWC की बैठक बुलाकर खुद सोनिया गांधी को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी थी - "मैं ही हूं कांग्रेस अध्यक्ष!"

पश्चिम बंगाल तो नहीं लेकिन 2021 में राहुल गांधी ने केरल चुनाव में काफी मेहनत की थी. वैसे ही प्रियंका गांधी को असम के चाय बागानों में देखा गया था. उत्तर प्रदेश के खेतों में भी प्रियंका गांधी को महिलाओं के साथ हंसते खेलते मक्के की रोटी और गुड़ खाते पेश किया गया.

कांग्रेस जैसे जैसे कमजोर होती जाएगी, ऐसी चुनौतियां बढ़ती ही जाएंगी. पंजाब की सत्ता गंवाने के बाद राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं, लेकिन जो हाल कभी कैप्टन का हुआ करता था अशोक गहलोत और भूपेश बघेल का हाल भी कोई अलग नहीं है.

विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के साथ ही कांग्रेस की चुनौतियां एक साथ बढ़ने वाली हैं - अभी राज्य सभा के लिए चुनाव होने हैं और जुलाई में राष्ट्रपति चुनाव भी है. बीजेपी के पास बहुमत को देखते हुए विपक्ष के उम्मीदवार के चुनाव जीतने की संभावना तो न के बराबर है, लेकिन उम्मीदवार तय करने में कांग्रेस की कितनी भूमिका होगी ये देखना होगा?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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