राहुल गांधी न्यायपालिका और मीडिया को लेकर पूर्वाग्रह से भरे हुए क्यों हैं?
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कुछ छात्रों को सुनने की कला सिखाने लंदन गये थे, लेकिन वो समाचार सुनने की भी जहमत नहीं उठायी जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने ऐसा फैसला सुनाया है जिसने मोदी सरकार (Narendra Modi) को खामोश कर दिया है.
-
Total Shares
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के लेक्चर को लेकर काफी एहतियात बरती गयी है. गांधी परिवार के लंबे अरसे से तकनीकी सलाहकारों में प्रमुख रहे, सैम पित्रोदा ने राहुल गांधी के भाषण का वीडियो अपने यूट्यूब चैनल पर रिलीज किया है - और एक छोटी सी झलक ट्विटर पर भी दिखायी है. मौके पोस्टर तो वो पहले ही सोशल मीडिया पर रिलीज कर चुके थे.
ये सब इसलिए करना पड़ा क्योंकि पिछले कार्यक्रम के वीडियो में एक लोचा रह गया था, जिसे बीजेपी समर्थकों ने शेयर कर खूब मजाक उड़ाया था. एक छोटी सी क्लिप में राहुल गांधी को एक सवाल का जवाब देने के लिए रुक कर सोचता हुआ दिखाया गया था - राहुल गांधी ने वहां क्या बोला या क्या क्या किया, ये बाद इस बार बाहर नहीं आने दी गयी है.
राहुल गांधी को जिस टॉपिक पर लेक्चर देना था वो भी काफी दिलचस्प रहा - 'लर्निंग टू लिस्निंग' यानी सुनना भी सीखना होता है. काफी लोगों में ये पैदाइशी गुण होता है, कुछ लोग इसे एक नये हुनर के तौर पर सीखते भी हैं.
अगर आप कोई भी भाषा सीखना चाहते हैं तो उसे पढ़ने, लिखने और बोलने और बोलने के साथ साथ सीखना भी जरूरी होता है. क्योंकि अगर सुनेंगे नहीं तो सीखेंगे कैसे? और ये बात जीवन के हर मोड़ पर महत्वपूर्ण होती है - लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या राहुल गांधी ऐसी चीजों में यकीन रखते हैं?
अपने लेक्चर में राहुल गांधी ने बहुत सारी बातों का जिक्र किया है. भारत यात्रा से जुड़े अनुभव भी सुनाया है. एक आतंकवादी से मुलाकात का भी जिक्र किया है - और उसके जरिये ये समझाने की कोशिश की है कि सुनने की कोशिश की जाये तो लोग आपसे जुड़ना चाहते हैं. आपसे जुड़ कर अपनी बात कहना चाहते हैं.
अव्वल तो ये राहुल गांधी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के लिए कटाक्ष है. प्रधानमंत्री मोदी के 2014 से अब तक एक बार भी प्रेस कांफ्रेंस न करने का उदाहरण देकर भी तो वो यही समझाने की कोशिश करते हैं कि वो सिर्फ भाषण देना चाहते हैं, सुनना नहीं चाहते - क्योंकि प्रेस कांफ्रेंस में तो मीडिया के सवाल सुनने ही पड़ेंगे?
लेकिन सवाल सुनना तो राहुल गांधी को भी पसंद नहीं है. जब जवाब देने का मन नहीं होता तो किसी भी पत्रकार को अपनी राजनीतिक विरोधी पार्टी से जुड़ा हुआ करार देते हैं - क्या सवाल सुनने से भागने का ये भी एक तरीका नहीं है?
राहुल गांधी के भाषण पर बीजेपी और केंद्र सरकार की तरफ से केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर की प्रतिक्रिया आयी है. अनुराग ठाकुर का कहना है कि वो विदेशी धरती पर हो हल्ला मचाने का काम कर रहे हैं... पेगासस उनके दिमाग में है.
त्रिपुरा सहित तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों का ध्यान दिलाते हुए अनुराग ठाकुर कहते हैं, 'कांग्रेस लोगों के जनादेश को स्वीकार नहीं कर पा रही है... और नतीजे बताते हैं कि लोग प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा करते हैं.'
बीजेपी नेता मोदी की तारीफ में कहे गये इटली की प्रधानमंत्री के शब्दों का भी हवाला देते और कहते हैं कि राहुल गांधी को सुनना चाहिये. राहुल गांधी इटली में अपने ननिहाल को लेकर हमेशा ही राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर रहे हैं - और भारत दौरे पर आयीं वहां की प्रधानमंत्री कह रही हैं, 'प्रधानमंत्री मोदी दुनिया के सबसे चहेते लीडर हैं... ये साबित हो चुका है कि वो कितने बड़े नेता हैं.'
राहुल गांधी ने ज्याादतर पुरानी बातें ही दोहरायी है. जैसे लोकतंत्र पर हमला, संस्थानों पर मौजूदा सरकार के काबिज होने की बातें. पेगासस का जिक्र करते हुए राहुल गांधी ने बताया है कि कई खुफिया अफसरों ने फोन पर बात करते समय उनको सावधानी बरतने की सलाह दी है. क्योंकि, अधिकारियों के हवाले से उनका दावा है, फोन पर की जाने वाली उनकी बातचीत रिकॉर्ड हो रही है.
कांग्रेस नेतृत्व का ये आरोप रहा है कि मोदी सरकार एक खास विचारधारा थोप कर संवैधानिक संस्थानों को बर्बाद कर रही है, राहुल गांधी ने ऐसी कई बातों का जिक्र करते हुए एक बड़ा इल्जाम ये भी लगाया है कि न्यायपालिका और मीडिया को भी कंट्रोल किया जा रहा है - कोशिश करने की बात और है, लेकिन ऐसा हो भी रहा है क्या?
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से अपडेट नहीं होंगे
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और अदानी-हिंडनबर्ग केस की जांच के लिए कमेटी बनाने का सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का आदेश, उन सवालों का जवाब है जो राहुल गांधी ने लंदन जाकर उठाया है - अब भी अगर कांग्रेस नेता को लगता है कि न्यायपालिका पूरी तरह सरकार के कंट्रोल में है तो मालूम होना चाहिये कि वो भी पूरी तरह सही नहीं हैं.
राहुल गांधी को दूसरों को सुनने का स्किल सिखाने से पहले खुद भी सीख लेने की कोशिश करनी चाहिये.
राहुल गांधी को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि जो मोदी सरकार ज्यूडिशियरी में होने वाली नियुक्तियों में दखल देना चाहती थी, सुप्रीम कोर्ट ने उसे अनसुना तो किया ही, चुनाव आयोग की नियुक्तियों में भी अपना सीधा हस्तक्षेप बढ़ा दिया है.
अब भी अगर अदानी ग्रुप के कारोबार से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट के जांच कमेटी बनाने का फैसला राहुल गांधी को संतोषजनक नहीं लगता तो ये किसी की निजी समस्या हो सकती है. निजता के अधिकार को तो कोई भी चैलेंज करने नहीं जा रहा है.
लेकिन राहुल गांधी को ऐसा क्यों लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को ही सरकार को जेपीसी से जांच का आदेश देना चाहिये था. सुप्रीम कोर्ट ने तो वो कर दिया है, जो वो और उनके अत्यंत भरोसेमंद कांग्रेसी साथी भी नहीं करा सके - संसद में जोर जोर से भाषण दे देना और विपक्ष को साथ लेकर चलना दोनों ही अलग अलग बातें हैं. राहुल गांधी के सवालों पर प्रधानमंत्री मोदी का भाषण सुन कर लोग ताली बजाते नहीं थक रहे थे, लेकिन अदानी पर जवाब मिला था क्या? ताली तो दोनों हाथों से ही बज रही थी - है कि नहीं?
अगर राहुल गांधी की तरफ से थोड़ी सूझ बूझ दिखायी गयी होती तो संसद में कांग्रेस विपक्ष के बीच अकेले नहीं पड़ी होती. सुप्रीम कोर्ट की जांच कमेटी पर तो ज्यादातर विपक्षी दल सहमत थे, लेकिन जेपीसी की मांग पर कांग्रेस के अड़ जाने के बाद कई विपक्षी नेता पीछे हट गये - और कांग्रेस शोर शराबे और हंगामे के बाद भी कुछ हासिल नहीं कर पायी.
अदानी केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो किया है, वो तो मुंहमांगी सौगात ही है, और वो भी बिना उनके मांगे मिली है - राहुल गांधी को इतना तो एहसान मानना ही चाहिये.
मीडिया से तो वो खुद भी तरीके से पेश नहीं आते?
राहुल गांधी मीडिया पर कंट्रोल की बातें पहले भी करते रहे हैं. लेकिन भारत यात्रा के दौरान जब कड़ाके की ठंड में उनके टी-शर्ट को लेकर सवाल होता है, तो पत्रकारों को समझाने लगते हैं कि वे डरते हैं इसलिए स्वेटर पहनते हैं - ऐसा कह कर वो क्या समझाना चाहते हैं, ये शायद उनको भी ठीक से पता नहीं होता. उनके चेहरे के तात्कालिक हाव भाव तो यही जाहिर करते हैं.
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी के भाषण का वीडियो सोशल मीडिया पर डाला गया है. बेशक सोशल मीडिया की पहुंच अनलिमिटेड है, लेकिन क्या मीडिया उसे लोगों तक नहीं पहुंचा रहा है - अगर ऐसा नहीं होता तो वो मीडिया पर कंट्रोल के आरोप लगा सकते थे, लेकिन ऐसी बातें उनकी तमाम गंभीर बातों को भी हल्का कर देती हैं.
राहुल गांधी की बातों का लोगों तक पहुंचना ही बता रहा है कि मीडिया अपना काम कर रहा है - और ऐसे आरोप तो वो खुद भी सवालों से बचने के लिए भी लगाते रहे हैं. ऐसा ही तो वो तब भी करते हैं जब कांग्रेस के भीतर ही उनके साथी नेता उनको कोई सलाह देते हैं या कभी कभार उकी बातों से असहमति जताने की हिमाकत कर बैठते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमलों से बचने की सलाह से लेकर जम्म-कश्मीर और धारा 370 पर राहुल गांधी को अपने नेताओं की अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलते हुए भी महसूस किया गया है - और बाद में जब वे नेता उनका साथ छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं, तो राहुल गांधी उनको डरपोक करार देते हैं. ये भी वैसे ही है जैसे अपने नेताओं के बीएसपी छोड़ने पर मायावती प्रेस कांफ्रेंस करके बताती हैं कि उनको पार्टी से निकाल दिया गया है.
आरोप भी उसी के दमदार लगते हैं जो खुद कठघरे में न खड़ा हो - हर बात को समझने के लिए आईना देखना ही जरूरी नहीं होता. आस पास के लोगों की बातें भी आईना जैसी ही भूमिका निभाती हैं - बशर्ते कोई बातें सुनने को तैयार भी हो.
राहुल गांधी खुद कितना सुनते हैं?
राहुल गांधी हर ऑडिएंस के सामने खुद को बहुत सहज नहीं पाते हैं. सामने से वाले से कम ही कनेक्ट हो पाते हैं. कई बार उनके मन की बात जबान पर आ भी जाती है. जैसे केरल में बताया था कि उत्तर भारत के लोगों की राजनीतिक समझ कैसी होती है?
दक्षिण भारत के स्कूली छात्रों को बीच भी राहुल गांधी का पूरा व्यक्तित्व निखर कर आता है. और वैसे ही लगता है, जब वो देश से बाहर कुछ खास लोगों के साथ संवाद कर रहे होते हैं - ऐसा अक्सर देखा और महसूस भी किया गया है.
कैम्ब्रिज में राहुल गांधी छात्रों को सुनने की कला सिखा रहे थे. सुनना सबके वश की बात नहीं होती. और उसे सुनना जिसे आप पसंद नहीं करते, कभी मुमकिन नहीं होता. फिर भी जो लोग सुनते हैं, तारीफ के काबिल होते हैं. उनके धैर्य की दाद देनी चाहिये.
अगर राहुल गांधी सुनते रहे होते तो असम में अभी बीजेपी की नहीं बल्कि कांग्रेस की ही सरकार होती - और हिमंत बिस्वा सरमा कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री होते. हिमंत बिस्वा सरमा के लिए भी कांग्रेस छोड़ना उतना आसान नहीं रहा होगा.
किराये का घर छोड़ना भी आसान नहीं होता. अनजान पड़ोसी के साथ निभाया भी जा सकता है, लेकिन जिसके बारे में कोई पहले से जानता हो, उसके लिए काफी मुश्किल होता है - मालूम नहीं राहुल गांधी को ये समझ में कभी आया कि नहीं कि किराये के नये मकान में शिफ्ट होना और वहां ऐडजस्ट करना कितना कठिन होता है.
राहुल गांधी अगर अपने कॉलेज के दिनों के साथी ज्योतिरादित्य सिंधिया की बात भी नहीं सुन सकते तो क्या समझा जाये - अगर वो वक्त रहते सिंधिया की बातें सुन लिये होते तो देश में कोविड को लेकर लॉकडाउन लगने से पहले मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार गिरी नहीं होती.
अगर राहुल गांधी अपने ही नेताओं की बात ध्यान से सुने होते तो पंजाब में कांग्रेस किनारे नहीं लगी होती. लेकिन कांग्रेस में ही उलटी गंगा भी बहती है, अगर अशोक गहलोत और भूपेश बघेल उनकी नहीं सुनते तो वो उनको कुछ भी नहीं कह पाते - दोनों में से किसी को ये भी नहीं समझा पाते कि उनको क्यों उनकी बातें सुननी चाहिये?
मोदी विरोध की दलील भी दिलचस्प है!
मोदी सरकार पर तोहमतों की लंबी फेहरिस्त के बीच राहुल गांधी के मुंह से तारीफ भी सुनी गयी है. राहुल गांधी ने मोदी सरकार की उज्ज्वला योजना और जनधन बैंक खातों का खास तौर पर जिक्र किया है, लेकिन लगे हाथ संघ, बीजेपी और मोदी से अपनी नफरत की वजह भी बता देते हैं.
राहुल गांधी कहते हैं, 'जब आपका विरोध इतना बुनियादी हो तो फर्क नहीं पड़ता कि आप किन दो-तीन नीतियों से सहमत हैं.'
मुफ्त की सलाह ये है कि राहुल गांधी को धीरे धीरे ही सही थोड़ी थोड़ी सुनने की आदत डाल लेनी चाहिये... बहुत सारी समस्यायें अपनेआप खत्म हो जाएंगी. वॉरंटीवाले दौर में ये गारंटी है.
इन्हें भी पढ़ें :
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से देश नहीं जुड़ा, पूर्वोत्तर तो बिल्कुल भी नहीं!
कांग्रेस की राह बहुत मुश्किल है और महाधिवेशन से बहुत कुछ नहीं बदला है!
हिंदुत्व की गंगा तो तेलंगाना में भी बह रही है, लेकिन दिशा उलटी है!
आपकी राय