हिंदुत्व के खिलाफ राहुल का दांव मास्टरस्ट्रोक है या प्री-मैच्योर शॉट?
राहुल गांधी ने हिन्दू और हिंदुत्व के बीच फ़र्क समझाकर एक नयी बहस को आयाम दे दिया है. कांग्रेस का हिंदुत्ववादी विहीन हिंदू राज्य की परियोजना या परिकल्पना में ऐसा न हो कि हिंदू तो हाथ से चले हीं जाए मुस्लिम भी खिसक लें. इसलिए इसमें एक बड़ा जोखिम है. प्री मैच्योर डिलेवरी हमेशा रिस्की होती है.
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भारतीय राजनीति में राहुल गांधी ने हिन्दू और हिंदुत्व के बीच फ़र्क समझाकर आग में घी डालने की हिमाक़त की है? या फिर आग में पानी डालने की कोशिश की है? इसे लेकर हर तरफ बहस चल रही है मगर राहुल की हिंदुत्व विहीन हिंदूराष्ट्र की परिकल्पना अनायास नहीं है. पिछले चार दिनों में दुनिया के तीन देशों में जो घटनाएं हुई हैं वह बेहद असामान्य रही हैं, जो धर्म को धर्मांधता से दूर करने की इकाई के रूप में मनुष्य और संगठन के रूप में समाज की छटपटाहट को दिखाती हैं. जर्मनी के नए चांसलर जब गॉड के नाम पर चांसलर पद की शपथ नहीं लेते हैं तो कभी धर्म के नाम पर यातना गृह बनवाने वाला जर्मनी क्या संदेश देना चाहता है? इस्लाम का उद्गम और इस्लाम के नाम पर कभी पूरी दुनिया में रक्तपात करने वाला सउदी अरब जब तबलिगी जमात और अल हबाब को अपने से दूर करता है तो धर्म के भ्रामक आडंबर से दूर दिखने की सउदी की कैसी कोशिश नज़र आती है? और जब धर्मनिरपेक्ष समाज की परिकल्पना करने वाला और पंथ निरपेक्ष संविधान देने वाली पार्टी का भावी राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी, मंच से भारत को हिंदुत्व विहीन हिंदू राष्ट्र बनाने का सब्ज़बाग़ दिखाता है तो धर्म और धर्मांन्धता के बीच फंसे होने की उसकी बेचैनी दिखती है.
राहुल गांधी ने हिंदुत्व को लेकर जो बातें की हैं उसने एक नयी डिबेट का शुभारंभ कर दिया है
कांग्रेस का हिंदुओं का राज स्थापित करने की कल्पना यूटोपिया नहीं है. बल्कि दुनिया भर में धर्म को लेकर बदल रही सोच को परिलक्षित करने वाली है. हो सकता है कि मौजूदा देश काल की परिस्थितियों के लिहाज़ से भारत जैसे राज्य के संदर्भ में राहुल अपने समय से आगे की सोच रख रहे हों मगर जर्मनी और सऊदी अरबिया की सोच में बदलाव मौजूदा दुनिया को नयी राह पर ले जाती दिखती है.
जो कुछ दुनिया में घट रहा है वह अब तक अबनॉर्मल समझे जाते रहे को न्यू नॉर्मल बना रहा है. दुनिया भर में इस्लाम के शुद्ध रूप को स्थापित करने के नाम पर सौ साल पहले धर्मांतरण कराने की योजना के साथ भारत के मेवात से शुरू किए गए तब्लिगी मूवमेंट को इस्लाम के जनक सऊदी अरबिया ने आतंकवाद की जड़ बता दिया है. उसने कहा कि ये इस्लाम के नाम पर सुनी सुनाई और बनी बनाई बातों को बेचकर मानवता के दुश्मन तैयार कर रहे हैं.
सऊदी अरब के इस्लामी मामलों के मंत्री डॉ अब्दुल्ला लतीफ़ अलशेख ने मस्जिदों से ऐलान किया कि ये इस्लाम के दुश्मन हैं. महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि तब्लीगियों को सबसे ज़्यादा फ़ंडिंग सऊदी अरब से आती है. सोच में यह बदलाव क्यों हुआ? यह सोचने का विषय है. तो क्या मक्का-मदीना के बाशिंदे धर्म के नाम पर नफ़रत के बाज़ार से उकताए हुए हैं.
जर्मनी दुनिया में इकलौता फादरलैंड है. वर्ना सभी देश मदरलैंड यानी खुद के देश को मातृभूमि कहते हैं, पितृसतात्मक सोच जिस उग्र सोच की वाहक होती है वह धार्मिक उन्मादी हिटलर भी पैदा कर सकता है, यह जर्मनी से बेहतर दुनिया का कोई देश नहीं समझ सकता है. जिसने यहूदियों को धर्म के नाम पर ऐसी यातना दी जिसकी वजह से मानवता आज भी शर्मसार है.
हो सकता है इसी अतिवाद से परेशान जर्मनी के कलेक्टिव सब कॉन्शियस ने एक महिला ऐंजेला मर्केल को चांसलर के रूप में 16 साल तक सत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठाकर सारी ताक़त सौंप दी थी. उसके बाद ओल्फ श्कॉल्ज रीचस्टैग ब्लिडिंग जब जर्मनी के नए चांसलर के पद पर जर्मन लोगों की सेवा की शपथ लेते हैं तो शपथ की लाईन विद गॉड्स हेल्प नहीं बोलते हैं.
गॉड के नाम पर मानवीय अत्याचार की पराकाष्टा से गॉड का नाम नहीं लेने तक का यह सफ़र जर्मनी ने क्रमिक विकास के रूप में तय किया है. इस्लामिक आतंकवाद से सताए रिफ्यूजी के लिए यूरोप में सबसे पहले दरवाज़ा जर्मनी ने ही खोला था. पितृराष्ट्र के नए चांसलर श्कोल्ज ने जब अपना मंत्री मंडल बनाया तो 16 मंत्रियों में से 8 महिला और 8 पुरूष बनाए.
ज़रूरी नहीं कि जर्मनी और सऊदी अरब जिस बदलाव या रिफॉर्म से गुज़र रहा है उसके लिए जो कुछ उन्होंने भुगता है उसे भुगता जाए. इसाईयत चरमपंथ की दहशतगर्दी को कौन भूल सकता है? गैलीलियो जैसा महान वैज्ञानिक जब कहता है कि चंद्रमा नहीं पृथ्वी घूमती है तो चर्च तिलमिला उठते हैं और वैज्ञानिक सोच से तंग आकर उसे सूली पर चढ़ा देते हैं.
और फिर यूरोप मैं कैथोलिक चर्च के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट होता है और प्रोटेस्टेंट बनते हैं जिसे रिनैसां या पुनर्जागरण भी कहा जाता है. सऊदी अरब इस्लामिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ प्रोटेस्टेंट बनेगा और भारत कट्टरपंथी हिंदू सोच के खिलाफ़ प्रोटेस्टेंट बनेगा या नहीं, कहना जल्दीबाज़ी होगी.
यह क्रमिक विकास की सतत प्रक्रिया का परिणाम होता है. वैसे भी भारत के संदर्भ में है, यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारत अतिवाद से कोसों दूर रहा है. तो क्या राहुल गांधी भारत में एक जान में दो आत्मा की तलाश बेवजह कर रहे हैं. एक शब्द के दो अर्थ बेमतलब निकाल रहे हैं. ऐसा कहकर एकदम से इसे ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता है.
तो क्या राहुल- प्रियंका ने हिंद महादेश में धर्म के प्रति और इसके फलस्वरूप महिला भागीदारी के लिए सोच में बदलाव का प्रयोग भारत में करना तय किया है. तो क्या राहुल गांधी हिंदुत्व के प्रति सोच और प्रियंका गांधी ने देश में महिलाओं के प्रति सोच के बदलाव का ज़िम्मा संभाल लिया है? मगर बड़ा सवाल है, क्या भारत इस बदलाव के लिए तैयार है?
कांग्रेसियों को ऐसा लगने लगा है कि जो राहुल गांधी आज सोचते हैं वह भारत कल सोचेगा. कोरोना हो या कृषि क़ानून हो इनके भविष्य को लेकर राहुल के कथन को भविष्यवाणी बताकर कांग्रेसी भविष्यवक्ता बताने लगे हैं. हर बात में कहते हैं कि राहुल गांधी ने पहले ही कहा था या पहले ही चेताया था. कांग्रेस का हिंदुत्ववादी विहीन हिंदू राज्य की परियोजना या परिकल्पना में ऐसा न हो कि हिंदू तो हाथ से चले ही जाएं, मुस्लिम भी खिसक लें. इसलिए इसमें एक बड़ा जोखिम है. प्री मैच्योर शॉट हमेशा रिस्की होता है.
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