राहुल गांधी का कश्मीर दौरा कांग्रेस के हिस्से में एक और नाकामी लिख गया
चाहे धारा 370 का मामला हो या चिदंबरम केस ही कांग्रेस नेतृत्व ने हैंडल करने में राजनीतिक अपरिपक्वता तो दिखायी ही है, मौके भी गंवा दिये हैं. ये सारे वाकये बता रहे हैं कि आधे मन से किये गये काम के नतीजे भी ऐसे ही होते हैं.
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मशहूर किताब अल्केमिस्ट में Paulo Coelho की लिखी बातों को लेकर बनी फिल्म 'ओम शांति ओम' शाहरूख खान का एक डायलॉग है - 'कहते हैं अगर दिल किसी चीज को चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है.'
फर्ज कीजिए सब कुछ इसका उल्टा हो तो क्या होगा? जाहिर है पूरी कायनात उल्टी गंगा बहाने में जुट जाएगी. फिर तो ये समझना भी मुश्किल नहीं होगा कि नतीजे क्या होंगे. दरअसल, अधूरे मन से किये गये कामों के नतीजे भी वैसे ही होते हैं - और जो कोई भी ऐसे काम करता है उसे कदम कदम पर नाकामी ही हाथ लगती है.
ऐसा क्यों लगता है कि राहुल गांधी के खिलाफ पूरी कायनात जुटी हुई है? असल बात तो ये है कि ऐसा लगता ही नहीं बिलकुल ऐसा ही हो रहा है. ऐसा होने की वजहें भी बहुत सारी हैं. हाल फिलहाल के कांग्रेस नेतृत्व के फैसले भी इस थ्योरी को सही साबित करते हैं.
धारा 370 पर लकीर पीटकर राहुल किसका फायदा कर रहे हैं?
कुछ ही दिन पहले की बात है सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और सीपीआई महासचिव डी. राजा श्रीनगर तक तो पहुंच गये - लेकिन एयरपोर्ट से बाहर नहीं जाने दिया गया, लिहाजा बैरंग लौटना पड़ा. गुलाम नबी आजाद के साथ भी ऐसा ही हुआ.
बावजूद ये सब होने के राहुल गांधी ने भी जम्मू कश्मीर दौरे का प्लान कर लिया. वो भी अकेले नहीं बल्कि सीताराम येचुरी, डी. राजा और गुलाम नबी आजाद के अलावा कई दूसरे दलों के नेताओं को साथ लेकर. राहुल गांधी की इस यात्रा को लेकर प्रशासन की ओर से ऐसा न करने की सलाह भी दी गयी थी. प्रशासन का कहना रहा कि नेताओं के वहां पहुंचने से असुविधा होगी और वे जिस काम में जुटे हैं उसमें भी बाधा पहुंचेगी.
राहुल गांधी के जम्मू कश्मीर दौरे की चर्चा तब शुरू हुई जब राज्य के गवर्नर सत्यपाल मलिक ने एक न्योता दे डाला. राहुल गांधी के सूबे के हालात पर सवाल उठाने को लेकर सत्यपाल मलिक ने कह दिया कि अगर राहुल गांधी आकर देखना चाहें तो वो विमान भेज देंगे. राहुल गांधी ने कहा कि वो विमान तो नहीं चाहते लेकिन विपक्षी दलों के कुछ नेताओं के साथ एक दौरा जरूर करना चाहते हैं. फिर सत्यपाल मलिक ने अपना न्योता वापस ले लिया. बाद में राहुल गांधी अकेले जाने को तैयार हो गये तो सत्यपाल मलिक ने कहा कि स्थानीय प्रशासन को इत्तला दे दी गयी है और वो खुद संपर्क करेगा. बाद में क्या हुआ ये तो नहीं पता लेकिन राहुल गांधी ने एक बार फिर विपक्षी दलों के नेताओं के साथ जम्मू-कश्मीर का कार्यकर्म बनाया और फ्लाइट पकड़ ली.
जब श्रीनगर एयरपोर्ट से लौटना तय था तो गये ही क्यों?
बीजेपी की ओर से केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने राहुल गांधी के इस दौरे को 'राजनीतिक पर्यटन' की संज्ञा दे डाली.
कांग्रेस की ओर से एक ट्वीट कर राहुल गांधी के जम्मू-कश्मीर दौरे की वजह बतायी गयी है - धारा 370 हटाये जाने के बाद जमीनी हालात को समझना, स्थिति की समीक्षा और हकीकत का पता करना.
Shri @RahulGandhi is leading a delegation of opposition leaders to assess the ground situation in Kashmir today.
This visit is an attempt to review the reality in the region after the abrogation of Article 370.#RahulGandhiWithJnK
— Congress (@INCIndia) August 24, 2019
राहुल गांधी की नजर में उनके जम्मू-कश्मीर दौरे को लेकर जो भी रणनीति हो, लेकिन उसका कोई नतीजा न निकलने वाला रहा, न ही निकल ही पाया. ले देकर ये दौरा कुछ देर तक मीडिया में छाया रहा. हो सकता है कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए उत्साहवर्धक रहा हो, लेकिन इससे केंद्र की मोदी सरकार पर कहीं कोई दबाव बनाने वाली स्थिति तो नहीं बनी.
वैसे भी राहुल गांधी के धारा 370 पर स्टैंड से आधे कांग्रेस नेता तो इत्तेफाक भी नहीं रखते - और तो और जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी और शशि थरूर जैसे कांग्रेस नेता तो कहने लगे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खलनायक तक पेश करने का कोई फायदा नहीं बल्कि ज्यादा नुकसान हो सकता है.
ऐसे में जबकि अरविंद केजरीवाल को भी भरोसा है कि मोदी सरकार आर्थिक संकट से उबरने के लिए कोई कारगर उपाय खोज ही लेगी, राजनीतिक वस्तुस्थिति का इशारा क्या राहुल गांधी नहीं समझते?
क्या ऐसा नहीं लगता कि राहुल गांधी ने अचानक जम्मू-कश्मीर दौरे का प्लान कर, चिदंबरम केस में कांग्रेस की राजनीतिक लड़ाई कमजोर कर दी है? कांग्रेस नेतृत्व ने जो रवैया धारा 370 के मामले में अपनाया वही, चिदंबरम केस में भी अख्तियार किया. धारा 370 को गुलाम नबी आजाद के हवाले कर दिया और वो अपनी सूबे की राजनीति चमकाने में जुट गये - कांग्रेस की जो फजीहत हुई वो तो सबको पता है.
चिदंबरम केस की पैरवी भी अधूरे मन से
अब तक पी. चिदंबरम को लेकर मीडिया में जो भी चर्चा हो रही थी, राहुल गांधी के जम्मू-कश्मीर दौरे से एक झटके में फोकस शिफ्ट हो गया. आमतौर पर सत्ता पक्ष पर ऐसे मीडिया मैनेजमेंट के इल्जाम लगते रहे हैं, लेकिन यहां क्या समझा जाये? क्या कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष की कुर्सी संभाल रहीं सोनिया गांधी को भी इसमें को पॉलिटिकल ब्लंडर नहीं नजर आता?
अच्छा तो ये होता कि राहुल गांधी जम्मू-कश्मीर की यात्रा की जगह चिदंबरम से रोजाना 30 मिनट की मिली मोहलत में मुलाकात किये होते - और उस लड़ाई को आगे बढ़ाते तो कांग्रेस को ज्यादा फायदा हो सकता था.
ऐसा क्यों लगता है जैसे कांग्रेस ने चिदंबरम का मामला सिर्फ कपिल सिब्बल के भरोसे छोड़ दिया है - और वो जिनता भी संभव है अपने मन की हर बात कर रहे हैं. सिर्फ मोदी सरकार पर हमले की कौन कहे, वो तो सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट के जज को भी नहीं छोड़ रहे हैं. बेहतर तो ये होता कि चिदंबरम को महज वकील नेताओं के भरोसे प्रेस कांफ्रेंस में छोड़ देने की बजाये कांग्रेस नेतृत्व खुद भी मैदान में डटा होता.
क्या चिदंबरम की गिरफ्तारी से पहले वाली प्रेस कांफ्रेंस में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी मौजूद होते तो उसका अलग असर नहीं होता?
अगर चिदंबरम केस में मोदी सरकार को घेरना ही था तो राहुल गांधी सड़क पर उतरते और थाने पहुंच कर गिरफ्तारी देते तो उसका राजनीतिक असर तो कहीं ज्यादा ही होता - राजनीतिक तौर पर जम्मू-कश्मीर दौरे से तो ज्यादा ही फायदे मंद हो सकता था.
विपक्षी को एकजुट करने में फिसड्डी
कांग्रेस के लिए विपक्ष की राजनीति अब इतनी ही बची हुई लगती है कि वो कभी चाहे तो EVM के मुद्दे पर चुनाव आयोग जाकर कोई पत्र दे आये, या फिर किसी मुद्दे पर राष्ट्रपति से मिलकर कोई ज्ञापन सौंप दे. राहुल गांधी का ताजा जम्मू-कश्मीर दौरा भी ऐसी ही विपक्षी एकता का मिसाल लग रहा है. कांग्रेस नेतृत्व के अधूर मन के प्रयासों के जितने भी उदाहरण संसद के हालिया सत्र में देखने को मिले, ऐसा कम ही मिलते हैं. लोक सभा को एक पल के लिए छोड़ दें तो राज्य सभा में तमाम जुगाड़ के बावजूद बीजेपी बहुमत का नंबर हासिल नहीं कर पायी - फिर भी तीन तलाक, आरटीआई संशोधन और धारा 370 पर एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि बीजेपी राज्य सभा में बहुमत में नहीं है.
ऐसा क्यों हुआ? सिर्फ और सिर्फ बिखरे विपक्ष के कारण. जिस किसी ने सीधे सीधे सपोर्ट नहीं किया वो सदन से हट कर कर परोक्ष तरीके से मोदी सरकार का सपोर्ट कर दिया. कांग्रेस नेतृत्व को हवा तक नहीं लगी.
2019 के आम चुनाव में भी अगर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी छोड़ दी होती तब भी क्या यही हाल हुआ होता. क्या वाकई कांग्रेस के नेता इस मुगालते में थे कि पार्टी बहुमत हासिल कर लेगी और सरकार बनाने में भी कामयाब हो जाएगी. जब सारे दलों के नेता समझ चुके थे कि बालाकोट स्ट्राइक के बाद बीजेपी लीड ले चुकी है तो - क्या कांग्रेस अपनी रणनीति नहीं बदल सकती थी? ये जानते हुए भी कि विपक्ष से प्रधानमंत्री बनने जैसी स्थिति में किसी भी नेता का पहुंचना मुश्किल है - क्या कांग्रेस ममता बनर्जी या मायावती के नाम पर सहमत नहीं हो सकती थी? अगर ऐसा कोई निर्णय समय से ले लिया होता तो क्या वो नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी के लिए भी यूं ही तरसती रहती?
कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल हर मुद्दे पर कंफ्यूजन है जिसके चलते हर फैसला लटका रहता है. पीवी नरसिम्हा राव के योगदानों को कांग्रेस नेतृत्व भले ही नकारता फिरे, सच तो ये है कि निर्णय लेने के मामले में अब भी वही आदर्श लगते हैं - कोई फैसला न लेना भी एक फैसला ही है.
राहुल गांधी सहित सारे विपक्षी नेता श्रीनगर से लौटा दिये गये हैं - क्या राहुल गांधी को ये समझने के लिए वहां तक जाना पड़ा? ये तो पहले से मालूम होना चाहिये था - और अगर जरा भी इस बात का एहसास रहा तो बची खुची ऊर्जा में से इतनी मात्रा खर्च करने की जरूरत ही क्या थी?
क्या ये सब आधे मन से लिया गया फैसला नहीं है? क्या ये अधूरे मन से किया गया प्रयास नहीं है - और अगर सिर्फ तफरीह की ही दरकार रही तो जो कुछ भी हासिल हुआ वो कम नहीं है.
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