राहुल गांधी का इमरजेंसी पर बयान बेवक्त की शहनाई बजाने जैसा
राहुल गांधी ने इमरजेंसी (Rahul Gandhi Emergency) को लोकतंत्र के लिए गलत और नौकरशाही (Democracy and Bureaucracy) पर संघ के प्रभाव को लेकर जो सवाल उठाया है, वो ताजा चुनावी माहौल में अप्रासंगिक है - कांग्रेस नेता ने एक कारगर हथियार चलाया और चूक गये.
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हर चीज का मौका होता है. ऐसे मौके खास भी होते हैं और आम भी. फिलहाल खास मौका चुनाव का है - और आम मौका रोजाना होने वाली राजनीति का. राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भी कुछ खास काम कर रहे हैं - और कुछ आम भी. खास काम राहुल गांधी की चुनावी एक्टिविटी है - और आम उसके तौर तरीके. खास बात ये भी है कि राहुल गांधी की चुनावी गतिविधियों में उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा भी पूरा सहयोग दे रही हैं.
कांग्रेस के भीतर एक और खास काम चल रहा है - और वो है G-23 नेताओं की तरफ से पैदा की गयी राजनीतिक हलचल. ये राजनीतिक हलचल ऐसे वक्त हो रही है जब देश के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं - बीजेपी की तरफ से खास प्रयास पश्चिम बंगाल जैसे एक और सूबे में सत्ता हासिल करना है - और कांग्रेस की आम कोशिश ये है कि बंगाल की धरती पर भी जैसे तैसे हो सके तो हाजिरी तो लग ही जाये.
एक खास बात और इस बीच हुई है, इमरजेंसी (Emergency) पर राहुल गांधी बयान आया है - 'जो भी हुआ बहुत गलत हुआ'.
इमरजेंसी के बहाने राहुल गांधी ने केंद्र में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार में लोकतंत्र की स्थिति और ब्यूरोक्रेसी (Democracy and Bureaucracy) पर संघ के प्रभाव का भी खास तौर पर जिक्र किया है - और वो भी सवाल उठाने की जगह सवालों का ही सब्जेक्ट बन गया है.
अव्वल तो राहुल गांधी को ऐसे मुद्दे पर बयान तब देना चाहिये था जब देश में आम चुनाव हो रहा हो - क्योंकि देश में इमरजेंसी लागू किया जाना या उस पर नये सिरे से चर्चा भी राष्ट्रीय मुद्दा है. राष्ट्रीय मुद्दे उठा कर तो बीजेपी भी चुनाव हार जा रही है या सत्ता से बेदखल हो जा रही है या फिर सत्ता हासिल करने के लिए जुगाड़ अख्तियार करना पड़ रहा है.
अगर राहुल गांधी पश्चिम बंगाल सहित पांचों राज्यों में कांग्रेस के चुनावी मुहिम में बराबर एक्टिव होते और बंगाल से जुड़े किसी प्रसंग में इमरजेंसी पर बयान दिये होते तो भी चल जाता. कम से कम बीजेपी के हमले थोड़े थम भी सकते थे, तेवर थोड़े हल्के तो हो ही सकते थे.
इमरजेंसी ही क्यों ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिस पर बोलने से राहुल गांधी और उनके साथी कांग्रेस नेता बचते रहे हैं - ऑपरेशन ब्लू स्टार और 1984 के सिख दंगे, ये ऐसे दो मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी नेतृत्व को कभी भी घेर लेते हैं. हाल ही में अकाली नेता हरसिमरत कौर बादल ने राहुल गांधी को पंजाब के किसानों से सहानुभूति जताने को लेकर कठघरे में खड़ा किया था. मान कर चलना होगा अगले साल पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस को कोई स्टैंड लेना ही पड़ेगा, वरना, चुनावों में राहुल गांधी को जबाव देना भारी पड़ सकता है.
इमरजेंसी पर राहुल गांधी का बयान अभी किस काम का?
चुनावी सरगर्मी के बीच राहुल गांधी ने कांग्रेस शासन में लगायी गयी इमरजेंसी को लेकर अफसोस जताया है - और ये भी याद दिलाने की कोशिश की है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी अपने फैसले को लेकर करीब करीब वैसी ही राय जाहिर की थी. हां, राहुल गांधी का टोन थोड़ा सख्त जरूर लगता है - 'बिलकुल गलत.'
राहुल गांधी का इमरजेंसी पर ये बयान अमेरिका के कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे कौशिक बसु के साथ हुए एक वर्चुअल संवाद के जरिये सामने आया है. भारत में 70 के दशक में 21 महीने तक इमरजेंसी लगायी गयी थी - 25 जून 1975 से लेकर 21 मार्च 1977 तक. पूरे वक्त चुनाव होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, नागरिक अधिकारों को भी सस्पेंड कर दिया गया था. संविधान की धारा 352 के तहत राहुल गांधी की दादी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर तब के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इमरजेंसी को मंजूरी दी थी.
मोदी सरकार को काउंटर करने के लिए राहुल गांधी ने इमरजेंसी का मुद्दा तो उठा दिया, लेकिन फायदा मिलेगा भी कहना मुश्किल है
अब तक तो यही होता आया है कि कांग्रेस मुक्त भारत के निर्माण में जुटी बीजेपी इमरजेंसी को लेकर राहुल गांधी सहित कांग्रेस नेतृत्व पर हमलावर रही है, जबकि खुद राहुल गांधी भी इससे पहले और उनके साथी पार्टी नेता बचाव की मुद्रा में आ जाते देखे गये हैं.
पिछले साल 2020 में इमरजेंसी के 45 साल पूरे होने पर भी बीजेपी नेताओं ने कांग्रेस को घेरा था, लेकिन सबसे सख्त टिप्पणी रही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की - "एक परिवार के सत्ता के प्रति लालच में रातोंरात पूरे राष्ट्र को जेल में बदल दिया गया."
राहुल गांधी ने आपातकाल पर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा, "मुझे लगता है कि वो एक गलती थी... बिल्कुल, वो एक गलती थी - और मेरी दादी ने भी ऐसा कहा था."
बेवक्त की शहनाई ही सही, सवाल तो ये भी है कि राहुल गांधी ने अभी अभी ये बयान क्यों दिया है. अब इसका जवाब ये भी हो सकता है कि सवाल पूछा जाएगा तो जवाब भी देना पड़ेगा. अगर ऐसा ही है तो '84 के दिल्ली सिख दंगों का सवाल राहुल गांधी क्यों हमेशा ही टाल जाते हैं?
बेहतर तो यही होता कि राहुल गांधी ने इमरजेंसी को लेकर अभी जो कुछ भी कहा है, अगर वो बात 2019 के आम चुनाव के दौरान कहे होते तो 'चौकीदार चोर है' का असर थोड़ा कम भी हो सकता था!
नौकरशाही और लोकतंत्र पर सवाल
राहुल गांधी ने लोकतंत्र और संस्थाओं में संघ के लोगों के कब्जे का भी मुद्दा उठाया है - मौजूदा चुनावों के हिसाब से राहुल गांधी का ये बयान भी कोई खास मायने नहीं रखता.
2014 में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार बनने के बाद से अक्सर राहुल गांधी कहते रहे हैं कि बोलने की आजादी नहीं रह गयी है. इसे वो लोकतंत्र पर सीधा प्रहार भी बताते रहे हैं. साथ ही, सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों ही घोषित तौर पर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर संघ की पृष्ठभूमि वाले और अघोषित तौर पर देश की संस्थाओं में संघ की विचारधारा से प्रभावित लोगों को स्थापित किये जाने के आरोप लगाते रहे हैं.
कौशिक बसु से बातचीत में राहुल का कहना रहा, 'हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली संस्थानिक संतुलन के चलते बनी हुई है... संस्थान स्वतंत्र रूप से काम करते हैं... लेकिन संस्थानों की आजादी पर देश का सबसे बड़ा संगठन, जो RSS है, वो हमला कर रहा है... ये प्लान के साथ किया जा रहा है... हम ये तो नहीं कहेंगे कि लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है... बल्कि, उसे खत्म किया जा रहा है.'
लोकतंत्र को लेकर राहुल गांधी ने ये बात ऐसे दौर में दोहरायी है जब कांग्रेस के सीनियर नेता पार्टी को मजबूत करने के मकसद से आवाज उठा रहे हैं और उसे या तो नजरअंदाज किया जा रहा है या फिर गांधी परिवार के कुछ करीबी नेताओं की तरफ से दबाने की कोशिश की जा रही है. ऐसा होने पर भी राहुल गांधी और सोनिया गांधी G-23 कहे जाने वाले नेताओं के इस समूह की बातों पर जरा भी ध्यान नहीं दे रहे.
हालांकि, राहुल गांधी का दावा है कि कांग्रेस में लोकतंत्र की बात करने वाले वो पहले नेता हैं और इसके लिए भी उनको अपने ही नेताओं का कड़ा विरोध तक झेलना पड़ा है. राहुल गांधी कहते हैं, 'मैं पहला व्यक्ति हूं जिसने कांग्रेस के भीतर लोकतांत्रिक चुनाव की बात कही. ऐसे सवाल दूसरी पार्टियों में नहीं उठाये जाते... बीजेपी, बीएसपी और समाजवादी पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र की बात कोई नहीं उठाता - मैंने यूथ कांग्रेस में चुनाव कराया और कांग्रेस में भी इसकी वकालत की.'
कौशिक बसु से बातचीत के दौरान राहुल गांधी ने कमलनाथ के मुख्यमंत्री रहते वहां के नौकरशाहों के कामकाज में सहयोगी न करने की भी मिसाल दी है. राहुल गांधी का कहना है कि ऐसा वे अपने ऊपर संघ के प्रभाव की वजह से कर रहे हैं.
ये भी बड़ा हास्यास्पद है - नौकरशाही की मजाल नहीं कि तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व के आदेशों की अवहेलना करें. रूटीन की कौन कहे, वे तो नियम कानून में ऐसे बंधे होते हैं कि जो कहा जाये करना ही पड़ता है. मध्य प्रदेश भी कोई यूपी-बिहार के राजनीतिक मिजाज से ज्यादा अलग नहीं है - और यूपी और बिहार से तो ऐसे कई उदाहरण हैं. पटना के एक डीएम रहे गौतम गोस्वामी की तस्वीर प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय मैगजीन टाइम ने अपने कवर पेज पर छापी थी - बिहार में बाढ़ राहत के कामों में उनके बेहतरीन रोल के लिए - और बाद में गौतम गोस्वामी को भ्रष्टाचार के मामलों में जेल भी जाना पड़ा था. आखिरी वक्त में कैंसर हो जाने के कारण सरकार ने उनके साथ सहानुभूति भी दिखायी थी.
बेशक गौतम गोस्वामी दोषी पाये गये, लेकिन बैकग्राउंड में ये भी धारणा बनी कि राजनीतिक आदेशों को मानने के चलते ही गौतम गोस्वामी का वो हाल हुआ. गौतम गोस्वामी की तरफ से ऐसी किसी भी दलील की कोई अहमियत नहीं रही कि वो तो सिर्फ ऊपर से मिले आदेशों को मानते जा रहे थे. असल बात तो ये रही कि सारी चीजें उनकी दस्तखत से हुई थीं और उनके कागजी सबूत मौजूद रहे.
कहते हैं कि मायावती जब भी यूपी की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी हैं, सूबे के सारे नौकरशाह थर्र थर्र कांपते रहे - जो नेता अपनी ही पार्टी के साथी नेता को घर पर ही पुलिस बुलाकर सौंप देता हो, उसके बारे में बाकियों के मन में डर तो होगा ही. हुआ तो ये भी है कि मायावती शासन के दौरान यूपी काडर चाहने वाले कई छात्रों ने सिविल सर्विस की तैयारी छोड़ कर कार्पोरेट ज्वाइन कर लिये. राजनीतिक नेतृत्व को लेकर नौकरशाही में ऐसी दहशत होती है.
और राहुल गांधी कह रहे हैं कि कमलनाथ ने उनको बताया था कि नौकरशाह बतौर मुख्यमंत्री उनके आदेश ही नहीं मानते थे. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक विरोधी तो कहते हैं कि प्रशासनिक अनुभव न होने के कारण नौकरशाह उनको अपने तरीके से नचाते रहते हैं - कुछ मामलों में ऐसा लगता भी है, लेकिन इतनी भी अंधेरगर्दी नहीं मची है. रही बात कमलनाथ की तो, भला उनको कौन गुमराह कर सकता है. कमलनाथ तो अनुभवी नेता रहे हैं और वो भी इंदिरा गांधी के जमाने के. इमरजेसी के दौरान तो नहीं, लेकिन 84 के दंगों को लेकर क्लीन चिट मिल जाने के बावजूद वो राजनीतिक विरोधियों के निशाने से तो नहीं ही बच पाते हैं.
जिन नौकरशाहों को लेकर कमलनाथ की जानकारी पर राहुल गांधी सवाल उठा रहे हैं, उनसे तो शपथ लेने से पहले से ही कमलनाथ संवाद करने लगे थे. ये जरूर है कि तब कुछ कलेक्टरों ने उनके फोन उठाने बंद कर दिये थे. ये बात 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजे वाले दिन की है. जब मालूम हुआ कि कांग्रेस के कुछ दिग्गज चुनाव हार गये और जीतने के बाद भी कइयों को सर्टिफिकेट नहीं जारी किये गये तो कमलनाथ एक्शन में आ गये. वो बारी बारी जिला निर्वाचन अधिकारी की भूमिका निभा रहे कलेक्टरों को फोन लगाने शुरू किये.
ग्वालियर और आस पास के कई कलेक्टर जब कमलनाथ के फोन नहीं उठा रहे थे तो तब कांग्रेस नेता रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया (अब बीजेपी के राज्य सभा सांसद हैं) ने भी फोन कर उनको झाड़ लगायी थी. तब कहीं जाकर वे फोन पर बात करने को राजी हुए.
बाद में कमलनाथ से एक इंटरव्यू में उस वाकये को लेकर पूछा गया तो उनका जवाब था - मैंने उनको यही बोला कि जो सच है उसके साथ रहो. जो संविधान कहता है उसी के हिसाब से काम करो. हालांकि, तब कमलनाथ के वैसे ही धमकाते हुए बयानों की खबरें मीडिया में आयीं थीं जैसे अपने राजनीतिक विरोधी शिवराज सिंह चौहान को निशाना बनाते हुए कमलनाथ ने कहा था - आज के बाद कल आता है और कल के बाद परसों भी आता है.
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