Rahul Gandhi का वीडियो चैट विपक्षी राजनीति के दायरे से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहा है?
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को उनके वीडियो चैट (Video Chat) का ये फायदा तो है कि चर्चा में बनाये रखे है, लेकिन अगर वो पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर ऐसे विशेषज्ञों (Experts) के साथ बात करते और आइडिया लाते कि सरकार के लिए लागू करना मजबूरी हो जाती तो कई गुना ज्यादा फायदा होता.
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) चाहते तो हैं कि जितना जल्दी संभव हो मोदी सरकार को हटाकर केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस को फिर से कब्जा दिला दें, लेकिन उनके इरादे ऐसे बिलकुल नहीं लगते कि लोग उनको कामयाबी दिलाने के लिए कायनात बन जायें. बार बार धक्के खाने और फजीहत के बाद भी वो कट्टर विपक्षी राजनीति के दायरे से बाहर आने की कोशिश करते भी नहीं नजर आते.
अव्वल तो राहुल गांधी की ताजातरीन पहल ही अजीब है, जिसमें वो अलग अलग एक्सपर्ट का इंटरव्यू कर रहे हैं - उसमें भी उनका गेस्ट सेलेक्शन (Experts) सीमाओं में बांध दे रहा है. हो सकता है कि ये राहुल गांधी की मजबूरी हो कि वो ऐसे एक्सपर्ट को ही तरजीह देते हों जो उनके पुराने आइडिया पर मुहर लगा दे - टेस्टेड ओके.
क्या राहुल गांधी के लिए ये नहीं संभव है कि कुछ देर के लिए दिल पर पत्थर रख कर ऐसे एक्सपर्ट के साथ वीडियो चैट (Video Chat) करते जिनकी बातें सुनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम के लोग राजनीति भूल कर उस पर अमल करने में जुट जाते.
थोड़ा मुश्किल है, नामुमकिन तो नहीं
राहुल गांधी के पास फिलहाल दो ऑपश्न हैं. एक, जो वो एक के बाद एक फिलहाल कर रहे हैं - और दूसरा वो जो अब तक नहीं सोचा है और चाहें तो बड़ी आसानी से कर सकते हैं.
एक तो वो जैसे विपक्ष की राजनीति होती है - बस, हर बात पर सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा करने का बहाना खोजो. इसमें बहुत मेहनत भी नहीं करनी पड़ती और सलाहकारों के लिए भी ये बहुत ही आसान काम होता है. बात बात पर कमियां खोजना बताना और पूरा जो लगा कर शोर मचाना.
ऐसे तरीके फायदेमंद भी हैं और नुकसानदेह भी हैं. फायदा तात्कालिक और असरदार होता है, नुकसान दूरगामी है और असर देखने के लिए लंबे इंतजार की जरूरत होती है.
तात्कालिक फायदा ये है कि मीडिया में चर्चा होती रहती है. सोशल मीडिया पर लोग अपने अपने हिसाब से रिएक्ट करते रहते हैं. विपक्ष के आरोपों पर सत्ता पक्ष की तरफ से कोई न कोई आकर बयान देकर चला जाता है - और थोड़े बहुत वार पलटवार के बाद बात आगे बढ़ जाती है. तभी सत्ता पक्ष एक नया मुद्दा छेड़ देता है - और फिर विपक्ष को मजबूरन रिएक्ट करना पड़ता है - और अगले मुद्दे तक ये सिलसिला उलझा रहता है.
ये भी मुख्यधारा की ही राजनीति होती है - लेकिन जरूरी नहीं कि सत्ता में पहुंचने की ये राह भी बने. सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए सत्ता पक्ष की कमजोरियों और जनता के मोहभंग तक का इंतजार करना पड़ता है.
अभिजीत बनर्जी और रघुराम राजन बड़े एक्सपर्ट हैं, लेकिन राजनीतिक बंटवारे में तटस्थ नहीं रह गये हैं
ये काम तो राहुल गांधी क्या बारी बारी से पूरा गांधी परिवार और परिवार के करीबी लोग करते रहते हैं. और इसी जिद में दो दो हार भी झेल चुके हैं. चाहे वो सोनिया गांधी हों या फिर प्रियंका गांधी वाड्रा हर कोई बारी बारी या कभी कभी एक साध मिल कर भी हिट एंड ट्रायल के तरीके आजमाते हुए देखा जा सकता है.
दूसरा तरीका थोड़ा मुश्किल है, जिसके लिए मेहनत करनी पड़ती है. वैसी सोच के लिए दिल भी बड़ा करना पड़ता है और सलाहकार भी ठीक वैसे मिलें जरूरी नहीं. वैसे तो रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी से भी एक तरीके से राहुल गांधी सलाह ही ले रहे हैं. रघुराम राजन तो कांग्रेस शासन में ही नियुक्त हुए थे. नयी व्यवस्था में भी हटाया नहीं गया लेकिन खुद को फिट नहीं पाकर वो चलते बने.
कांग्रेस की न्याय योजना के बारे में पहले दावा यही रहा कि अभिजीत बनर्जी ने ही तैयार किया था. बाद में उनके नोबल पुरस्कार जीतने पर पूछा गया तो साफ किया कि पूछे जाने पर सलाह भर दी थी.
बेशक रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी अपनी फील्ड के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के एक्सपर्ट हैं, लेकिन देश की राजनीतिक विचारधारा की खाई में दोनों ही दूसरी छोर पर खड़े नजर आते हैं.
क्या ऐसा नहीं संभव है कि राहुल गांधी ऐसे विशेषज्ञों से सलाह लेते जिन पर मौजूदा सरकार के भी सहमत होने की गुंजाइश रहती?
राहुल गांधी ये दावा भी तो नहीं कर सकते कि सरकार उनकी हर सलाह को सिरे से खारिज ही कर देती है. जबकि ये सही है कि कांग्रेस नेताओं की वो सलाह कभी ध्यान देने के काबिल नहीं समझी गयी कि हर मुद्दे पर मोदी का विरोध कांग्रेस के लिए नुकसानदेह भी साबित हो सकता है.
1. ये तो राहुल गांधी की ही तरफ से पी. चिदंबरम की डिमांड रही कि लॉकडाउन लागू किया जाय - और लागू होने पर चिदंबरम ने मोदी को कमांडर और बाकियों को पैदल सेना तक कहा था. अब बाद में चिदंबरम और राहुल गांधी को लगने लगा कि गलत सुझाव दे दिया तो इसके लिए किसी और के सिर थोड़े ही ठीकरा कसा जाएगा.
2. राहुल गांधी ने तो FDI के मुद्दे पर क्रेडिट भी ले लिया था कि उनकी सलाह को सरकार ने माना और शुक्रिया भी कहा था.
3. राहुल गांधी ने कोरोना वायरस को लेकर टेस्टिंग पर जोर दिया था - आखिर देश भर में कोरोना वायरस की टेस्टिंग बढ़ी की नहीं?
अगर ऐसी ही सलाहें राहुल गांधी खुद खोज कर लायें या अपने वीडियो चैट शो के जरिये निकलवायें तो उनकी सलाह क्यों नहीं मानी जाएगी? या फिर सलाह मानी जाने की संभावना तो काफी ज्यादा बढ़ ही सकती है.
लेकिन राहुल गांधी को इसके लिए ऐसे विचार या एक्स्पर्ट खोज के लाने होंगे - अरे सरकार तो खुद परेशान है कि आगे क्या उपाय किये जायें. अगर ऐसे नाजुक मौके पर राहुल गांधी कुछ नया सोचें. एक पल के लिए पार्टी पॉलिटिक्स को दरकिनार कर देश के बारे में सोचें. देश के लोगों के बारे में सोचें, न कि सरकार को कैसे घेरा जाय, तो निश्चति है कि देश का कल्याण होगा. सरकार भी बैकफुट पर आएगी कि उसे कांग्रेस के ही मनरेगा जैसी योजनाओं की तरह नयी स्कीम भी माननी पड़ रही है. फिर चुनाव का मौसम तो आएगा ही.
घूम घूम कर कांग्रेस के लोग, सबके सब डंके की चोट पर कह सकते हैं कि आरटीआई और खाद्य संरक्षण कानून की तरह कोरोना से जंग में भी हमने अहम भूमिका निभायी - ऐसा किये तो बहुत पुण्य लाभ मिलेगा - भूखे गरीबों और मजदूरों का भी, बेरोजगारों और नये सिरे से रोजगार के लिए संघर्ष कर रहे लोगों का भी और बाकी लॉकडाउन पब्लिक का भी.
पार्टी पॉलिटिक्स से बाहर तो आयें
हो सकता है कांग्रेस नेतृत्व को कुछ और समझ में आता हो, लेकिन असल बात तो यही है कि कांग्रेस की पार्टी पॉलिटिक्स इतनी सख्त है कि न तो उसे विपक्षी खेमे के दूसरे दलों का साथ मिल पाता है और न ही लोगों को कोई दिलचस्पी नजर आती है. 2014 को छोड़ भी दें तो 2019 में कांग्रेस की सत्ता पर कब्जे की ललक ही ले डूबी. सोनिया गांधी को भी गुमान रहा कि 2004 में तो बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी अजेय माने जाते थे.
हाल फिलहाल राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इसलिए भी नाराज रहे कि सरकार को तो कुछ भी सुझाव दो गंभीरता से लेती ही नहीं. राहुल गांधी अपनी प्रेस कांफ्रेंस और सोनिया गांधी की सुझावों की चिट्ठियों को लेकर खफा नजर आये.
सवाल ये है कि क्या अच्छे सुझाव हों तो कोई भी सरकार उसे नजरअंदाज करने का जोखिम उठा सकती है?
आखिर मोदी सरकार ने मनरेगा को अपनाया है या नहीं. बल्कि, कांग्रेस सरकार से भी दो कदम आगे बढ़ कर उसे असरदार बनाने की तमाम कोशिशें की है. ये ठीक है कि पहले बीजेपी मनरेगा जैसी योजनाओं की आलोचक रही, लेकिन जब समझ में आया तब तो उस पर अमल करने ही लगी.
कांग्रेस नेतृत्व ने पहले भी मोदी सरकार की कई योजनाओं का क्रेडिट लेने की कोशिश की है और ये तो अभी की ही बात है जब राहुल गांधी ने ट्वीट कर फॉरेन डायरेक्ट इंवेस्टमेंट (FDI) के नियमों में बदलाव के लिए मोदी सरकार का शुक्रिया कहा. राहुल गांधी ने तो ट्वीटर पर ये भी लिखा कि कुछ दिन पहले वो ही FDI नियमों में बदलाव की सिफारिश किये थे.
I thank the Govt. for taking note of my warning and amending the FDI norms to make it mandatory for Govt. approval in some specific cases. https://t.co/ztehExZXNc
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) April 18, 2020
फिर तो राहुल गांधी को ये भ्रम बिलकुल नहीं पालना चाहिये कि मोदी सरकार उनके सुझावों को डस्ट बिन में डाल देती है - ऐसे आरोप लगाकर वो खुद अपनी ही बातों को काट दे रहे हैं. बेहतर तो यही होगा कि राहुल गांधी एक बार पार्टी पॉलिटिक्स के दायरे से बाहर निकलें - और ऐसे आइडिया और एक्सपर्ट के साथ आयें जिनसे बातचीत में ऐसा कुछ निकल कर आये कि उसे सरकार हाथों हाथ ले - और देश के लोगों का भी कल्याण हो क्योंकि लोगों के कल्याण में ही कांग्रेस का कल्याण छिपा है.
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