महात्मा गांधी से तुलना करने पर राहुल गांधी का बयान सच का सामना है
शुरुआती विवादों से आगे बढ़ती हुई भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra 100 Days) के 100 दिन पूरे हो चुके. लेकिन महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) से अपनी तुलना किये जाने पर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने सख्त लहजे में ऐतराज जताया है - क्या आप कांग्रेस नेता में विनम्रता का भाव देखते हैं?
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भारत जोड़ो यात्रा के 100 दिन (Bharat Jodo Yatra 100 Days) हो चुके हैं. तमिलनाडु से शुरू होकर कई राज्यों से गुजरती हुई ये यात्रा फिलहाल राजस्थान पहुंची है - और जिन मुद्दों को लेकर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) यात्रा पर निकले हैं, उससे वक्त निकाल कर वो राजस्थान कांग्रेस का झगड़ा सुलझाने की कोशिश में भी लगे हुए हैं.
भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआती दौर में विवादों से भरी रही, लेकिन धीरे धीरे ऐसी चीजें पीछे छूटने लगीं. राहुल गांधी खुद भी पहले के मुकाबले ज्यादा संजीदगी की नुमाइश करने लगे - और अब तो उनका एक नया ही रूप देखने को मिल रहा है.
जरूरी नहीं कि राहुल गांधी या कांग्रेस को भारत जोड़ो यात्रा से कोई चुनावी फायदा मिले ही. अच्छे और बुरे कर्मों का फल जरूरी नहीं कि तत्काल ही मिले. ये सब आगे पीछे भी होता रहता है. ऐसा भी होता है कि कहीं और के कर्म का फल भी कहीं और मिल जाता है - और चुनावी राजनीति से यात्रा को जोड़ कर देखे जाने पर राहुल गांधी भी तो अपनी तरफ से बार बार यही समझाने की कोशिश भी कर रहे हैं.
एक प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा का मकसद दोहराया जो तीन मुद्दों पर फोकस है. राहुल गांधी के मुताबिक, पहला मुद्दा बेरोगजारी का है जिससे आज देश का हर युवा परेशान है... दूसरा मुद्दा महंगाई का है जिसने हर घर का बजट बिगाड़ दिया है... और तीसरा, नफरत की राजनीति का है जिसके जरिये लोगों में नफरत फैलाई जा रही है.
ऐसे मुद्दों के अलावा और बात सामने आयी है, वो है - महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) से अपनी तुलना किये जाने पर राहुल गांधी का कड़ा ऐतराज जताना. राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा का नाम लेकर राहुल गांधी, साफ शब्दों और हिदायत भरे सख्त लहजे में महात्मा गांधी से अपनी तुलना किये जाने से मना कर देते हैं.
राहुल गांधी का ये स्टैंड जयपुर की कांग्रेस रैली में हिंदुत्व पर उनके भाषण से काफी अलग लगता है. तब हिंदुत्व और हिंदूवादियों के बारे में समझाते हुए राहुल गांधी ने महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे की तुलना की थी - और ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचे जो सुन कर लगा कि वो खुद को महात्मा गांधी के तौर पर पेश कर रहे हैं. राहुल गांधी के ताजा बयान के बाद अपने को लेकर उनका रुख अलग ही तस्वीर पेश कर रहा है.
ऐसे में ये समझना जरूरी हो गया है कि क्या राहुल गांधी विनम्रता का भाव जाहिर कर रहे हैं? या फिर वो हकीकत से वाकिफ हैं और अपने इर्द-गिर्द जमा हो चुके चापलूसों को चेतावनी दे रहे हैं?
महान बनने से बेहतर है हकीकत से वाकिफ होना
कन्याकुमारी से कश्मीर की राह में. सरेराह, देखते देखते सौ दिन बीत गये. सौ दिन के सफर में राहुल गांधी 2800 किलोमीटर का सफर तय भी कर चुके हैं. शुरू में बताया गया था कि यात्रा 150 दिनों की होगी, तो उस हिसाब से दो-तिहाई सफर पूरा भी हो चुका है. चुनावी राजनीति में दो-तिहाई का आंकड़ा बहुत मायने भी रखता है.
वो चाहते हैं कि उनको राहुल ही रहने दिया जाये, गांधी बनाने की कोई जरूरत नहीं है!
अब तक की यात्रा में राहुल गांधी ने क्या खोया और क्या पाया, ये आकलन भी हो ही रहा होगा. ऐसा वो खुद भी कर रहे होंगे. यात्रा के संयोजक दिग्विजय सिंह और कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश भी. ये जयराम रमेश ही बता चुके हैं कि राहुल गांधी के बाद लोकप्रियता के मामले में कन्हैया कुमार की डिमांड है. कन्हैया कुमार का ये रूप कांग्रेस के लिए उपलब्धि ही है.
अब ये तो कोई कह नहीं सकता कि कांग्रेस और राहुल गांधी ने गुजरात को खो दिया और हिमाचल प्रदेश पा लिया. बल्कि, न गुजरात खोया न हिमाचल पाया ही. गुजरात को तो हाथ से चले ही जाना था, हिमाचल प्रदेश मिल जरूर गया - क्योंकि नंबर जो लगा रखा था.
जैसे पैसेंजर के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट में ऑटोवाले, टैक्सीवाले और बाकी सभी वाले नंबर लगाये रहते हैं. अब तो एयरपोर्ट पर भी नंबर लगने लगा है. जैसे बस स्टैंड पर लगता है. जैसे कभी अपने ही पैसों के लिए बैंको के बाहर, एटीएम के बाहर लगाने पड़ते थे. बाकी जगह भी ऐसी ही कतारे हैं.
अगर कांग्रेस की जगह कोई और भी कतार में होता तो उसे भी हिमाचल प्रदेश में फायदा मिल सकता था - आम आदमी पार्टी को भी. तो क्या अरविंद केजरीवाल से एरर ऑफ जजमेंट हो गया? गुजरात जितनी ऊर्जा अगर वो हिमाचल प्रदेश में लगाये होते तो क्या पंजाब जैसी ही संभावना वहां नहीं थी?
लेकिन जैसे गुजरात के वोटर की भाषा राहुल गांधी नहीं समझ पाये समझने की जहमत नहीं उठायी, करीब करीब वैसे ही अरविंद केजरीवाल और उनके साथी हिमाचल का आकलन नहीं कर पाये.
फिलहाल तो राहुल गांधी के लिए राजस्थान का मामला समझना जरूरी हो गया है. कोई चीज ठीक से समझने की जरूरी शर्त होती है मुद्दे के इर्द-गिर्द बने रहना. या उससे जुड़े किरदारों को आस पास बनाये रखना. राजस्थान में राहुल गांधी फिलहाल यही कर रहे हैं - जहां तक संभव होता है, अशोक गहलोत और सचिन पायलट को अपने आस पास ही रखने की कोशिश करते हैं.
एक दिन, देर शाम राहुल गांधी दौसा में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुए. साथ में अशोक गहलोत और सचिन पायलट भी रहे. मंच पर कांग्रेस नेताओं का भाषण चल रहा था. राहुल गांधी अपनी आदत के मुताबिक मोबाइल पर कुछ देख रहे थे और बीच बीच में नेताओं की बातें भी सुन रहे थे. तभी राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी के योगदानों की चर्चा करने लगे - और थोड़ा आगे बढ़ कर राहुल गांधी की महात्मा गांधी जैसा बताने लगे.
राहुल गांधी का मोबाइल पर से ध्यान टूटा और मंच पर खड़े होते ही वो कहने लगे, 'देखिए अभी, डोटासरा जी ने गांधी जी और मेरी तुलना की.. .ये बिल्कुल गलत है.'
बीजेपी की केंद्र सरकार को घेरते हुए गोविंद सिंह डोटासरा का कह रहे थे, '... जो आजादी महात्मा गांधी के नेतृत्व में हमारे महापुरुषों ने दिलाई थी... वो आज खतरे में पड़ गई है... ऐसे में जिनकी त्याग-तपस्या का इतिहास रहा हो... वो राहुल गांधी... जिनकी दादी ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये... जिनके पिता देश की एकता के लिए शहीद हो गये.'
और उसी क्रम में डोटासरा ने राहुल गांधी को महात्मा गांधी जैसा साबित करने की भी कोशिश की. जब डोटासरा का भाषण चल रहा था, राहुल गांधी सुन तो रहे थे, लेकिन शायद वो बातें हजम नहीं कर पा रहे थे. कभी मोबाइल देख रहे थे, कभी डोटासरा का चेहरा.
महात्मा गांधी को लेकर राहुल गांधी बोले, वो महान व्यक्ति थे... अपनी पूरी जिंदगी देश की आजादी के लिए दी... जेल काटी... उनकी जगह कोई और भर नहीं सकता... उनकी जगह मेरा नाम भी नहीं लेना चाहिये...
फिर कहने लगे, मैं कुछ कड़वी बातें पार्टी के साथियों से कहना चाहता हूं... राजीव गांधी जी ने जो किया... इंदिरा गांधी जी ने जो किया... वे शहीद हुए... जो करना था वे किये और अच्छा किये... कांग्रेस को हर मीटिंग में ये दोहराना नहीं चाहिये... हमें ये बोलना चाहिये कि हम जनता के लिए क्या करेंगे? या क्या करने जा रहे हैं? ये ज्यादा जरूरी है.
और बड़ी ही विनम्रता से माफी भी मांग ली, 'मेरे दिल में बात आई... कभी-कभी मैं जो दिल में आता है वो कह देता हूं तो मैं आपसे माफी मांगता हूं.'
'सावरकर नहीं... मैं गांधी भी नहीं... मैं...'
आखिर एक गांधी के 'गांधी' बनने की कोशिश कैसी हो सकती है? मोहन दास का महात्मा गांधी बनना दिलचस्प तो रहा ही - गांधी परिवार के टाइटल की विरासत ढोते हुए राहुल का 'गांधी' बनना या बनने की छिपी हुई कोशिश को समझना और भी ज्यादा दिलचस्प हो सकता है.
आखिर ये कौन सा द्वंद्व है? राहुल गांधी कहते हैं कि 'मेरा नाम राहुल गांधी' है 'सावरकर' नहीं - और भी वैसे ही सरेआम कह देते हैं कि मैं 'गांधी' नहीं!
ये कैसा डिस्क्लेमर है? क्या ये राहुल गांधी को राहुल गांधी ही रहने तो कोई नाम न दो टाइप की कोई गुजारिश है?
क्या खुद को इतिहास में कहीं आगे दर्ज कराने की कोई छिपी हुई हसरत का इजहार है?
क्या भारत जोड़ो यात्रा में भारत को जानने की भी कोई कोशिश भी देखी और समझी जा सकती है? नेहरू ने भारत की खोज किताब लिखी थी, राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं - और तभी एक कांग्रेस नेता महात्मा गांधी से उनकी तुलना कर देते हैं.
भारत लौटने पर गांधी ने गोपाल कृष्ण गोखले से मुलाकात की और अपने मन की बातें शेयर की. तभी राजनीतिक आंदोलन का जिक्र आया. गोखले की सलाह थी, अगर राजनीति करनी है तो पहले भारत घूमो. और फिर गांधी भारत भ्रमण पर निकल पड़े.
मालूम नहीं राहुल गांधी को गोखले जैसी सलाह किसने दी होगी या नहीं? दिग्विजय सिंह से लेकर प्रशांत किशोर तक? राहुल गांधी की शुरुआती राजनीति में दिग्विजय सिंह फ्रेंड, फिलॉस्फर और गाइड की भूमिका में रहे. भारत जोड़ो यात्रा में एक बार फिर दोनों का करीब करीब वैसा ही साथ हो गया है. यहां प्रशांत किशोर का जिक्र इसलिए आया है क्योंकि कांग्रेस पार्टी को लेकर अपने प्रजेंटेशन में प्रशांत किशोर ने ऐसी ही यात्रा का सुझाव दिया था. और उसी पर आगे बढ़ते हुए उदयपुर चिंतन शिविर में आखिरी फैसला लिया गया.
जैसे गांधी ने देश में जगह जगह घूम कर चीजों को जानने और समझने की कोशिश की और सफल भी रहे, राहुल गांधी को लेकर भी लोगों की धारणा में थोड़ा बदलाव तो आया है. अब उनका पहले की तरह मजाक नहीं उड़ाया जा रहा है. बीजेपी भी राहुल गांधी को पहले की तरह हल्के में नहीं ले रही है. हो सकता है, वो ऐसा भारत जोड़ो यात्रा के बारे में सोच रही हो. कर्नाटक से लेकर राजस्थान तक बीजेपी आखिर यात्राएं क्यों निकाल रही है.
अब अगर कोई आईटी सेल सोशल मीडिया पर सद्दाम हुसैन के साथ राहुल गांधी की तस्वीर लगा दे, और गुजरात के चुनावी माहौल में हिमंत बिस्वा सरमा उसे और हवा दे दें - तो जुमला समझ कर माफ कर देना चाहिये.
ये ठीक है कि राहुल गांधी महात्मा गांधी से अपनी तुलना नहीं करते, लेकिन ये भी इनकार तो नहीं करते कि वो उनकी राह पर नहीं चल रहे हैं. गांधी को फॉलो नहीं करते. जयपुर की ही रैली में हिंदुत्व का भाषण देते हुए राहुल ने हिंदूवादियों की तुलना गोडसे से की थी. कहा था, एक तरफ गांधी हैं और एक तरफ गोडसे को मानने वाले.
जाहिर है खुद को गांधी की साइड में ही खड़ा बताने की कोशिश करते. जिसे गोडसे बता कर लड़ाई लड़ रहे हैं, उनकी तुलना में तो खुद को गांधी के तौर पर ही पेश कर रहे थे. गांधी अपनी बकरी के साथ होते थे तो भी साथियों से बात किया करते थे. साथियों में नेहरू और उनके स्तर के और भी नेता होते ही होंगे - राहुल गांधी भी पिडी के साथ खेलते हैं, लेकिन वो अपने साथी नेताओं से बात नहीं करते. ये बात हिमंत ने ही पहली बार बतायी थी और कभी इस बात का खंडन भी नहीं किया गया.
तुलना न सही, लेकिन गांधी की राह पर चलने के लिए कुछ बातों का ख्याल तो रखना ही पड़ता है. कुछ संयम कुछ पार्दशिता तो बरतनी ही पड़ेगी. चाहे वो राहुल गांधी हों या कोई और हो.
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से पहले भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही कांग्रेस के नेता राहुल और गांधी को एक जैसा बताने की कोशिश करते थे. याद दिलाते कि दोनों ही एक एक बार ही कांग्रेस अध्यक्ष रहे - और फिर पूछते, जैसे गांधी हमेशा कांग्रेस नेता रहे, राहुल गांधी क्यों नहीं हो सकते? अब तो मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष बन ही चुके हैं, लिहाजा वो बहस भी खत्म हो चुकी है, लेकिन पूरी तरह तो नहीं.
देखा जाये तो महात्मा गांधी भी कांग्रेस में फैसले लिया करते थे, राहुल गांधी भी फिलहाल वही कर रहे हैं. लेकिन महात्मा गांधी ये जानने से किसी को नहीं रोकते थे कि कांग्रेस में कौन फैसले ले रहा है? और तभी सोनिया गांधी सामने आकर बोल देती हैं - मैं ही फैसले लेती हूं. सच क्या है सभी नहीं जानते, लेकिन सोनिया की बात को सभी सच भी नहीं मान पाते. मान लेते हैं कि ये एक बेटे के प्रति मां की ममता है और दोनों को संदेह का राजनीतिक लाभ मिल जाता है.
ये अच्छा है कि राहुल गांधी हकीकत से रूबरू हैं, और चापलूसों के झांसे में आने से बचने लगे हैं - सच का सामना हमेशा ही फायदेमंद होता है.
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