कश्मीर में सीजफायर अब और नहीं - लेकिन नाकामी की जिम्मेदारी कौन लेगा?
रमजान सीजफायर को आगे नहीं बढ़ाया गया और सुरक्षा बलों को फिर से ऑपरेशन शुरू करने का ग्रीन सिग्नल मिल गया है. सवाल ये है कि सीजफायर की नाकामी की जिम्मेदारी कोई लेगा भी या नहीं? महबूबा मुफ्ती क्या कहना चाहेंगी?
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अव्वल तो जम्मू कश्मीर में ऐसे किसी एक्सपेरिमेंट की जरूरत ही नहीं थी, जिसे 'रमजान सीजफायर' कहा जा रहा था. फिर भी अगर इसे लागू किया गया था तो इसकी समीक्षा करके नयी शर्तों के साथ थोड़ा और आजमाना चाहिये था. ऐसा लगता है जिस जल्दबाजी में इसे लागू किया गया - उससे भी कहीं ज्यादा हड़बड़ी में इसे आगे न बढ़ाने का फैसला लिया गया है.
बहरहाल, गृह मंत्रालय की ओर से ऐलान किया जा चुका है कि पहले की ही तरह आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई फिर से शुरू हो जाएगी. राजनाथ सिंह ने सीजफायर के दौरान सुरक्षा बलों के जवानों के धैर्य की दिल खोल कर तारीफ भी की है.
सीजफायर क्यों और किसके लिए?
रमजान के पाक महीने में होने के कारण सीजफायर के साथ ये नाम जोड़ दिया गया था - रमजान सीजफायर. तकनीकी तौर पर तो वैसे भी ये सीजफायर नहीं था, बल्कि सुरक्षा बलों के के ऑपरेशन को सस्पेंड किया गया था, जिसे फिर से सरकार ने चालू कर दिया है. सीजफायर तो सरहद पर होता है.
सीजफायर से क्या फायदा...
घाटी के लोगों को पिछली ईद पर घरों में ही नमाज पढ़ने पड़े थे - क्योंकि बाहर खराब हालात के चलते मनाही थी. जुलाई, 2016 में हिज्बुल आतंकी बुरहान वानी के एनकाउंटर में मारे जाने के बाद से ही लगातार कर्फ्यू और तनावपूर्ण माहौल रहा. ऑपरेशन ऑल आउट के तहत सुरक्षा बलों ने बुरहान के साथियों और कई नये कमांडरों का सफाया तो कर दिया लेकिन इसमें लंबा वक्त भी गुजर गया.
रमजान से पहले मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर के सियासी दलों की मीटिंग बुलायी और रमजान के वक्त सुरक्षा बलों की कार्रवाई रोकने के लिए केंद्र सरकार से गुजारिश की.
हालांकि, महबूबा और जम्मू कश्मीर के कुछ नेताओं को छोड़ कर बीजेपी नेताओं का एक धड़ा इसके कतई पक्ष में न था. सुब्रह्मण्यन स्वामी की नजर में तो महबूबा मुफ्ती ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए ही सीजफायर की पहल की थी. आर्मी चीफ बिपिन रावत ने भी एकतरफा सीजफायर से उल्टा नुकसान की आशंका जतायी थी. आर्मी चीफ का आकलन रहा कि सेना भले ही परहेज करे लेकिन आतंकवादी हमले बंद नहीं करने वाले. यहां तक कि, कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की भी राय यही रही कि रमजान सीजफायर का कभी कोई फायदा नहीं मिला है. वाजपेयी सरकार के दौरान हुआ प्रयोग इस बात की मिसाल है.
हुआ भी वही, जैसी आशंका रही. आतंकवादियों ने अपनी ओर से कोई कसर बाकी न रखी, लेकिन मानना पड़ेगा सुरक्षा बलों ने धैर्य बनाये रखा. यहां तक कि ईद के दिन भी न तो हिंसा थमी और न ही रूटीन फीचर - पत्थरबाजी.
रमजान सीजफायर के दौरान बीएसएफ, आर्मी और सीआरपीएफ कैंपों पर आतंकवादी हमलों के अलावा ईद की पूर्व संध्या पर इफ्तार के लिए जा रहे सीनियर पत्रकार शुजात बुखारी की निर्मम हत्या और औरंगजेब के साथ जो सलूक हुआ उसे शायद ही कभी भुलाया जा सके. हालांकि, ये नहीं कहा जा सकता कि अगर सीजफायर लागू नहीं होता तो ये घटनाएं नहीं होतीं. आखिर पहले भी पत्रकारों पर हमले और उनकी हत्याएं हुई हैं - और सेना के जवान आतंकियों के शिकार हो ही चुके हैं. आर्मी अफसर लेफ्टिनेंट उमर फैयाज को भी तो आतंकियों ने औरंगजेब की तरह छुट्टी के दौरान ही मार डाला था.
महबूबा मुफ्ती कन्फ्यूज हैं या ये उनकी पॉलिसी है?
रमजान सीजफायर पर सवाल तो शुरू से ही उठते रहे, राइजिंग कश्मीर के एडीटर शुजात बुखारी के कत्ल और औरंगजेब की हत्या के बाद ये बहस और तेज हो गयी.
शुजात बुखारी पर हमले के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती फौरन अस्पताल पहुंच गयी थीं और वहां उन्हें रोते देखा गया. समझा जा सकता है शुजात बुखारी की हत्या से उन्हें कितनी पीड़ा हुई होगी. किसी को इसमें कोई शक भी नहीं होने वाला.
जिम्मेदारी किसकी?
सवाल ये है कि क्या महबूबा मुफ्ती को सीजफायर की डिमांड पेश करते वक्त ऐसी स्थितियों का अहसास नहीं हुआ? ऐसे में जब सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर लगातार कार्रवाई से सेना आतंकवादियों पर काफी हद तक नकेल कस चुकी थी, महबूबा को क्यों लगा कि सीजफायर लागू होना चाहिये?
महबूबा एक तरफ तो कहती हैं कि मोदी ही कश्मीर समस्या को सुलझा सकते हैं. वो और उनके साथी बार-बार वाजपेयी की दुहाई देते हैं. और वाजपेयी सरकार की दुहाई देते हुए ही रमजान सीजफायर की सलाह दी थी.
महबूबा बीजेपी के साथ सरकार चलाती हैं - लेकिन बातचीत को लेकर जो उनका नजरिया है, अलगाववादियों से तुलना करें तो जरा भी फर्क नहीं समझ आता.
मुख्यमंत्री बनने के बाद महबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान और आतंकवादियों को भी शुक्रिया कह डाला था. तब महबूबा और भी कट्टर हुआ करती थीं. पिता की मौत के बाद उन्होंने विरासत तो संभाल ली, लेकिन कुर्सी संभालने में काफी देर किया - और आखिर में जब सारे रास्ते बंद नजर आने लगे - बीजेपी के साथ सरकार बनाने को राजी हो गयीं.
बाद में भी उनके नजरिये में खास बदलाव नजर नहीं आया. अब भी वो जम्मू-कश्मीर का मसला सुलझाने में सारे स्टेक-होल्डर्स को शामिल करने की बात करती हैं. बात तो वही है. अलगाववादियों की भी तो यही डिमांड है कि पाकिस्तान को भी बातचीत में शामिल किया जाये. दोनों में सिर्फ नाम लेकर मांग करने का ही तो फर्क है.
हालांकि, हाल ही में कश्मीर दौरे पर गये केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी मोदी सरकार का इरादा साफ कर दिया कि बातचीत 'लाइक माइंडेड' लोगों से नहीं, बल्कि 'राइट माइंडेड' लोगों से ही होगी.
The Security Forces are being directed to take all necessary actions as earlier to prevent terrorists from launching attacks and indulging in violence and killings.
— Rajnath Singh (@rajnathsingh) June 17, 2018
एक बात समझ में नहीं आती कि जमीनी हालात से पूरी तरह वाकिफ और सूबे की सरकार का नेतृत्व कर रहीं महबूबा कन्फ्यूज हैं या उनकी पॉलिसी ही इस तरीके की है? वैसे भी डिमांड जरूर महबूबा की रही, लेकिन सीजफायर को मंजूरी तो केंद्र की मोदी सरकार ने ही दी थी. ऐसे में जिम्मेदारी से पल्ला तो वो भी नहीं झाड़ सकती.
नुकसान तो हुए, क्या कुछ भी फायदा संभव न था?
सेना, सुरक्षा बल और पुलिस के आला अफसरान कई बार कह चुके हैं कि बलपूर्वक जितना कुछ हो सकता है, कश्मीर में हो रहा है. मगर अब इतने भर से काम नहीं चलने वाला. फोर्स के जरिये आतंकियों पर तो काबू पाया जा सकता है, लेकिन लोगों का भरोसा कायम हो इसके लिए राजनीतिक कदम ही जरूरी हैं. ये अफसर भी इसी बात के हिमायती हैं कि घाटी में अमन कायम करने के लिए राजनीतिक समाधान ही तलाशे जायें.
सारी स्थितियों से असली मुठभेड़ तो उन्हीं की होती है. वो देखते हैं कि सेना और सुरक्षा बलों के बारे में स्थानीय लोग क्या राय बना रखे हैं. ये सही है कि पत्थरबाजों को कश्मीरी अलगाववादियों के जरिये फंडिंग कर पाकिस्तान मदद करता है, लेकिन नौजवान भटके नहीं इसके लिए तो कारगर उपायों की जरूरत है. ये भी सच है कि इसी माहौल में कश्मीरी नौजवान सेना, सुरक्षा बल और सिविल सेवाओं में टॉपर की लिस्ट में भी छाये हुए हैं.
क्या ऐसा कुछ संभव नहीं था कि महीने भर में जो घटनाएं घटीं उसकी समीक्षा की जाती और कुछ और सख्ती के साथ सीजफायर वाले मोड में चीजों को चलने दिया जाता? वैसे भी खुफिया सूचनाओं के आधार पर और आतंकियों के एक्टिव होने पर भी सुरक्षा बलों को हाथ पर हाथ रख कर बैठने को कहा नहीं गया था. जब भी जरूरत पड़ी सुरक्षा बलों ने जोरदार तरीके से जवाबी कार्रवाई की.
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार रिपोर्ट पर भारत ने तीखी प्रतिक्रिया जतायी है और सारे दावों को खारिज कर दिया है. क्या सीजफायर को आगे बढ़ा कर ऐसी गतिविधियों का काउंटर नहीं किया जा सकता था?
जिस तरीके से अंतर्राष्ट्रीय मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आतंकवाद का मामला उठा रहे हैं और दूसरे मुल्कों का सपोर्ट मिल रहा है, क्या सीजफायर एक्सटेंशन उसमें कुछ मददगार साबित नहीं होता?
क्या सीजफायर कायम रखने से घाटी के लोगों का भरोसा नहीं बढ़ता - और क्या इससे पाकिस्तान के नापाक मंसूबों को नाकाम नहीं किया जा सकता था?
निश्चित तौर पर रमजान सीजफायर का फैसला साहसिक रहा. बल्कि दुस्साहसिक भी कह सकते हैं. मगर, फायदे की जगह बहुत नुकसान भी हुआ. क्या महबूबा मुफ्ती को भी इस बात का अहसास हो रहा होगा? या उनका काम हो चुका है - जिस किसी को भी इसके जरिये उन्हें मैसेज देना था? वो तो इस मामले में कामयाब रहीं.
सीजफायर के दौरान जो नुकसान हुआ है उसकी भरपायी तो नामुमकिन है लेकिन इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? जिम्मेदारी लेने का और कोई फायदा हो न हो, इतना तो संभव है कि आगे से ऐसे प्रयोग न हों.
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