राजद-जेडीयू के साथ आने से बदल गए जातीय समीकरण! भाजपा के लिए बिहार बड़ी चुनौती...
बिहार में ओबीसी वोटर निर्णायक संख्या में हैं. नीतीश कुमार और राजद दोनों ही पिछड़ों को लुभाने की राजनीति के लिए जाने जाते हैं. इन दोनों के साथ आने से पिछड़ा वर्ग के वोटरों में बिखराव की संभावना कम है. यह भाजपा के लिए अवसर और चुनौती दोनों है.
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बिहार में जेडीयू, राजद, लेफ्ट दल और कांग्रेस के समर्थन से महागठबंधन की सरकार बन गई है. महागठबंधन में शामिल सभी दलों ने नीतीश कुमार को सर्व सहमति से अपना नेता चुना. नीतीश कुमार ने 8वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. इसके साथ ही राजद नेता और लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव दूसरी बार डिप्टी सीएम बन गए हैं. बिहार की सियासत में लालू की पार्टी राजद और नीतीश कुमार का साथ आना कई मायनों में महत्वपूर्ण है. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के इर्द-गिर्द ही बिहार की सियासत पिछले 3 दशकों से घूम रही है. बिहार की राजनीति में समाजिक समीकरण का अपना महत्व है. कोई भी दल समाज के सभी वर्गो को साधे बिना बिहार पर शासन नहीं कर सकता. बिहार की राजनीति को दो हिस्सों में बांट कर देखा जा सकता है एक 1990 से पहले का बिहार एक 1990 के बाद का बिहार. मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद देश भर में पिछड़ा वर्ग एक प्रभावी वोटर के रूप में सामने आया. बिहार में भी मंडल राजनीति ने नए सिरे से करवट बदली. बिहार में पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं को आकर्षित किये बिना कोई भी दल सत्ता के करीब नहीं पहुंच सकता है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव
पिछड़ी राजनीति के दो बड़े चेहरों के साथ आने के बाद बिहार भाजपा के लिए बढ़ी चुनौती 1990 के बाद से बिहार में पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के वोटर ही सरकार तय करने की भूमिका में हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है इन दोनों वर्गों का मजबूत संख्याबल. यही कारण है कि सभी दल अब उसे अपने पाले में करने में जुटे हुए हैं। राज्य में ओबीसी और ईबीसी मिलाकर कुल 50% से अधिक आबादी है. इसमें सर्वाधिक संख्या यादव जाति की है. जानकारों की माने तो बिहार में यादवों की संख्या 14% के लगभग है. नीतीश कुमार खुद कुर्मी जाति से आते हैं इनकी संख्या बिहार में 4 से 5 प्रतिशत के बीच है.
बिहार में कुर्मी के साथ-साथ कुशवाहा वोटर भी जेडीयू के पक्ष में गोलबंद दिखाई पड़ते हैं. कुशवाहा वोटर की संख्या 8 से 9 प्रतिशत के बीच है. सर्वणों की बाद करें तो राज्य में इनकी कुल आबादी 15% है, इनमें भूमिहार 6%, ब्राह्माण 5%, राजपूत 3% और कायस्थ की जनसंख्या 1% है. बिहार में अति पिछड़ा वर्ग भी निर्णायक संख्या में है. नीतीश कुमार इस वर्ग के बीच काफी लोकप्रिय माने जाते हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार नीतीश की वजह से बिहार में भाजपा को इस वर्ग समूह का वोट मिलता रहा है.
नीतीश और राजद के साथ आने के बाद ओबीसी वोटरों में बड़े बिखराव की संभावना कम दिखाई पड़ती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में यह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती के रूप में समाने आएगी. भाजपा को मंडल और कमंडल का साझा चेहरा तैयार करना होगा! मौजूद वक्त में बिहार भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे पार्टी मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट कर सके.
बिहार में भाजपा के पास अलग-अलग जातीय समूहों के कई सारे नेता हैं पर राज्य के स्तर पर जनता को अपील करने वाले नेताओं की कमी साफ-साफ दिखाई पड़ती है. बिहार की सियासत को नजर में रखते हुए भाजपा के सामने अवसर और चुनौती दोनों है. भाजपा को बिहार में एक ऐसा चेहरा खड़ा करना होगा जो मंडल और कमंडल के बीच पुल का काम करे. दोनों वर्गों के साझा चेहरा के रूप में जनता से अपील करे.
बिहार में भाजपा के लिए नए अवसर खुल गए हैं, भाजपा सभी 243 सीटों पर संगठन और कार्यकर्ता के स्तर पर खुलकर काम कर सकती है. गठबंधन में रहते हुए ऐसा कर पाना मुश्किल था.
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